गहराता घनीभूत अंधेरा आज मुझे अभिन्न अंग लग रहा है। मैं इसी अंधेरे की सुरंग में सुरक्षित आगे लपका जा रहा हूँ। पैरों में मुझे बहुत दूर तक ले जाने की सामर्थ्य एकाएक भर गई लगी है। मन मेरे साथ है और ये सजीला पल कोई अनमोल अनुभव समेटता लग रहा है। वही जोशोखरोश जो आम तौर पर मुझ में भर जाता है – जब भी मैं कोई लीक से हट कर काम करता हूँ। मेरे अंतर का डर बाहर के तिमिर से जूझ कर धराशायी हो गया है।

मैं अब फसली खेतों को पार कर रहा हूँ। हालांकि मुझे उगी फसलों का ज्ञान ना मात्र है फिर भी नाना प्रकार की बास सुबास के सहवास में आ कर मैं महसूस जाता हूँ कि ये चने का खेत होना चाहिए। ये आगे ईख है तथा ये खिलते तारामंडल जैसे फूल मटर के हैं। कई बार मकड़ियों के पुरे जाले मेरे मुंह पर आ कर चिपक गए हैं तो मैं किसी घिनौनी थरथराहट से भर गया हूँ और लपक झपक कर मुंह को रूमाल से साफ करता रहा हूँ। ब्लड़ी गंदे मकौड़े मैंने कहा है। अब ईख के खेत से चिपका बीच की लकीर जैसी मैड़ से गुजरा हूँ तो ईख के तेज तलवार के पत्तों ने मेरी कनपटियां चीर दी हैं और कोई खुजलाती वेदना एक हास्य विनोद जैसा मन में भरती लगी है। आघात करते ये बेजबान पौधे मुझे जहर उगलते विषधर बने मानवों से ज्यादा भले लग रहे हैं।

अंधेरे में पता नहीं चलता कि किस खेत में पानी भरा है और मैं फिच्च से ठंडे कीचड़ में टखनों तक कई बार धंस गया हूँ। कई बार सूखे रास्ते की खोज में ठोकर खा कर गिरा हूँ और हथेलियों पर सीधा आ कर सोच रहा हूँ – ठोकर खाना भी आवश्यक है। इसमें शोकाकुल होने वाली बात जुड़ती ही कहां है?

शीतल पवन के झोंके फसलों से बतियाते लग रहे हैं। प्रकृति के ये परस्पर जोड़े अंग और पूर्व निर्धारित रीति रिवाज मानवीय संबंधों से ज्यादा स्थाई लग रहे हैं। अंधेरा है पर निःशब्द अपना पेट भरने में लगे हैं। अंधेरे में भी जीवन पनप रहा है। आकाश की सुघड़ चादर के नीचे रम्य धरती नाना प्रकार के क्रिया कलापों से सजग कोई वायदा पूरा करती लग रही है। तारों की टिमटिमाहट दूर धरती के छोर पर जलता कोई दिया या किसी खेत पर सोते जड़ियाते किसान और उनकी जलाई आग तथा जुगनुओं की प्रशस्त प्रहरी जैसी सजग टोलियां अंधेरे को छांट कर तनिक कम कर जाती हैं ताकि मुझ जैसा अभागा राहगीर राह से भटक न जाए।

मैं दिगभ्रांत हूँ। यही सोच एक सुख उपजा है। मैं चाह रहा हूँ कि दिशा ज्ञान के साथ-साथ मैं ये भी भूल जाऊं कि मैं कौन हूँ और यहीं भोर होते ही पहले किसान के साथ हल जोतने लगूं, फसल की गुड़ाई कटाई करूं और आगे का सारा जीवन जीना सीख लूं। तब देखूंगा – कितनी मुझ पर रीझेंगी, कितनी मुझे चूंसने की गरज से फसाएंगी और कौन मुझे प्रिंस दी ग्रेट आदि विशेषणों में बांध फुसलाएंगे?

सच्चाई खोजते-खोजते मैं धड़ाम से गिर पड़ा हूँ। करारी चोट आई लगी है। मेरा पैर चूहे के गीले बिल में धंस गया है और उसी से पैर मुर्रा गया है। जमीन ठंडी है, घास फूस से ओतप्रोत है और मेरे पैरों पर की पेंट घुटनों तक पानी में सराबोर हो चुकी है। शरीर थका-थका सा लगा है। पल भर यों ही पड़े-पड़े विश्राम करने को जी ललचा है पर मैंने दुतकारा है – पुलिस। पुलिस। कह कर मैं हंस पड़ा हूँ – जैसे उजालों में ढूंढती पुलिस अंधेरों का अता पता नहीं जानती।

कड़ा मन साध मैं उठ खड़ा हुआ हूँ। पैरों से पीड उठ कर मेरे इरादों को नकारती लगी है। मैंने दो चार डग मन की लगाम खींच धरे हैं। पैर एक अजीब सी औचक खा गया है और जमीन पर टिकते-टिकते मुझे लग रहा है कि फिर किसी गहरे बिल में समा जाएगा। मैं फिर एक बार बैठने को हुआ हूँ।

“यों तो पकड़े जाओगे पारखी! जग हंसाई तो होगी ही पर साथ में मैं भी हंसूंगा।”

“अच्छा तो भइया, चल चलते हैं।” मैंने आगे बढ़ने का प्रयत्न जारी रक्खा है।

गन्ने के खेत से झड़क कर तोड़ा गन्ना एक प्रिय संबल सा लगा है मुझे। गन्ने को टेक-टेक कर मैं चल पा रहा हूँ और इस टेक के सहारे से मेरा मन लगा है। पैर तनिक गरमाने लगा है तो पीढ़ा भी कम हो गई लगी है।

यों टेढ़े मेढ़े डग भरता मैं जल्दी में हूँ कि इससे पहले अंधेरा मेरा साथ छोड़े मैं कोई ठिकाना पा जाऊं। अपनी सूझबूझ के पीछे दौड़ता मैं बाजू के खेतों का ध्यान भूला ही था कि गन्ने की लंबी लौर ने खीज कर मेरा बाजू चीर दिया है और कमीज को कत्तरों में बांट दिया है। मैंने मिली वेदना को इस तरह सहा है जिस तरह आत्मज्ञान कराते गुरु के थप्पड़ ही हों। रिसते खून को यों ही बेवजह मैंने पोंछ आगे की राह ली है।

एकाएक मैं किसी रेतीले धरातल पर खड़ा हूँ। सामने सफेद-सफेद विस्तार बिछा कोई चादर लग रहा है। इस विस्तार पर उगे काले-काले धब्बे हैं। अनुमान लगा मैं कांप रहा हूँ कि आगे शायद यमुना नदी है। पहले तो एक बार मन पीछे हटने को हुआ है पर फिर आगे घसीटता अहंकार मुझे आगे बढ़ा गया है। मैं यमुना की जलधार के समीप जा कर ही कोई निर्णय करना चाहता हूँ।

पैरों तले खिसकती रेत आज मुझे अपना विगत सामने खड़ा लगा है। यही रेत और नदी का स्निग्ध स्वरूप मुझे सोफी के पास खींच ले गया है। थके मांदे शरीर में कल्पना शक्ति जाग कर एक शक्ति संचार करती लगी है। मैं अनंत विस्तारों को लांघ कर अब सोफी के साथ हूँ।

“प्यार ही सच्चाई है प्रिये! तुमने मुझे व्यर्थ भटका दिया!” मैंने उलाहना दिया है।

“नहीं दलीप! प्यार एक परिवेश में पलता है और वो परिवेश होता है – कर्म का, उससे उपजे सम्मान और वैभव का! यूं वीरानों में भटकना ..”

“मुझे तो भला लगता है। सच स्वीट, मैं तो विरक्त ही भला!”

“जूझ कर थक गए हो – क्या इसलिए?”

“नहीं! पर नफरत से भर गया हूँ सोफी! सच कहता हूँ सच्चाई के लिए मैं जेल भी चला जाता लेकिन ..”

“तलाशते रहो! सच्चाई भी पा जाओगे!”

“तो क्या तुम कभी नहीं मिलोगी?”

“ढूंढते रहो जरूर मिलूंगी!”

कहते-कहते सोफी यमुना के उस पार जा बैठी है और कह रही है – पा लो मुझे, छू लो मुझे मैं यहां हूँ। शांत बहती जलधार अपने अंदर समोए कछुए और मछली समेट मुझ पर मुसकुराहट भरी चुनौती उतार गई है। मैं गन्ने की टेक का सहारा पा बैठ गया हूँ ताकि तनिक सुस्ता लूँ।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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