“सर अब बात अपनी मुठ्ठी में है!” खुश होते हुए मुक्ति ने कहा है।

“कैसे?” मैंने गंभीरता पूर्वक मुक्ति का मत जानना चाहा है।

“हमारा पलड़ा भारी है। जीत को अब हमने खरीद लिया समझो और अगर जीत मुंह नहीं खोलेगा तो बाकी किसी में दम नहीं है।”

“खरीदा पैसे से है न?” मैंने बात को और भारी भरकम बना कर प्रश्न पूछा है।

“हां-हां! तो .. खरीद तो ..”

“यही तो धोखा है मुक्ति। पैसे की खरीद लगती सच्ची है पर होती झूठी है।”

“कैसे ..?”

“ऐसे – पैसा चुकाया जा सकता है। उधार लिया जा सकता है। एक खरीददार से बढ़ कर अगर दूसरी दे दे तो पासा पलट जाता है ओर पैसे का खरीदा इंसान आम तौर पर पलट जाता है।” मैंने गुत्थी को सुलझा कर मुक्तिबोध को समझाया है।

“हां! ये तो है! जीत तो ..” जो शक मुझे था वही मुक्ति को डसने लगा है।

“खैर! वैसे लगता है कि सिचुएशन अब हाथ में है। मुक्ति हमें बड़े ही एहतियात से काम लेना होगा!” मैंने मुक्ति को सचेत किया है।

रात के गहन अंधेरे में कई बार सिचुएशन हाथ में आई है और कई बार किन्हीं अज्ञात गलतियों के कारण छूट भागी है। पश्चाताप में कोई काला-काला सा पुता पुतला मेरी हर कोशिश नाकामयाब करता लगा है। मैं पूरी रात चैन से सो नहीं पाया हूँ। यों करवटें बदल ही रहा था कि फोन की घंटी ने बज कर मुझे डरा दिया है।

“हैलो! यस मुक्ति ..”

“क्या हो गया? गजब ..? क्यों .. हां-हां ..”

“जीत का कत्ल .. खून करने वाला क्या .. मैं ..?”

मैं उछल कर चारपाई से कूदा हूँ। पल भर अचेतन सा समझ नहीं पा रहा हूँ कि क्या करूं? जल्दी-जल्दी तैयार होने को हूँ तो मुक्ति आ धमका है!

“सर! गजब हो गया!”

“लेकिन हुआ कैसे?”

“ये तो बाद में पता लगेगा! आप जल्दी से देहली चले जाएं, यहां मैं संभाल लूंगा!” मुक्ति ने सहज सा उपाय बताया है।

“लेकिन क्यों?”

“इसलिए कि श्याम और शीतल चीख-चीख कर कह रहे हैं कि आप ने एक रास्ते का रोड़ा हटा दिया है।” मुक्ति भर्राए कंठ से क्रोध उगल रहा है।

अजीब बात है। लोग मौत से भी हार जीत जोड़ कर उसे यूज करते हैं। कोई यों क्यों नहीं सोचता कि जीत के परिवार का क्या होगा? उसके बीबी बच्चों को कोई तसल्ली देने कोई क्यों नहीं जा रहा है?

“चमचों का यही हाल होता है।” मैंने किसी को जोर-जोर से कहते सुना है।

अचानक लड़ाई बातों के घात प्रतिघात से उतर कर हिंसा पर आ तुली है। वैमनस्य अब लाशें खाएगा और जो समर्थन मैं जुटा लेना चाहता था अब शायद निरीह विफलता बन कर मुंह लटकाए मिल के दरवाजे पर मनहूसियत बन कर टंग जाएगी। हड़ताल, उपद्रव, मारधाड़ और पता नहीं क्या-क्या होगा?

“मैं देहली नहीं जीत के घर जाऊंगा!” मैंने दृढ़ स्वर में कहा है।

मुक्ति मुझे अवाक घूरता रहा है। लगा है मुक्ति की बात न मान कर मैं उसे भी विपक्षियों के हाथ बेच दूंगा। लेकिन मैंने इसकी कोई परवाह नहीं की है।

जीत को छुरे से गोद-गोद कर मारा है। मारने वाले को जीत की जान से ही सरोकार रहा होगा क्योंकि जीत की जेब में फटा बटुआ ज्यों का त्यों मिला है। जीत की पत्नी रो-रो कर घर भरे दे रही है और बच्चे सुबक रहे हैं। क्या करुणांत नियति है – मैं सोचे जा रहा हूँ। रात .. बस पहली ही रात जीत कितना खुश था और अब ..? पुलिस की छान बीन के थका देने वाले तौर तरीकों के बाद जीत को दाग दिया है। मैं वहां उपस्थित होना नहीं भूला हूँ। कल का स्वार्थ आज जीत की चिता में स्वाहा करके लौटा हूँ। और कसम खाता रहा हूँ कि अब किसी और को नहीं खरीदूंगा। पैसे से मौत नहीं जीवन दूंगा।

शाम को मेरे कमरे में मेरा और मान सिंह का बयान पुलिस के इंस्पेक्टर करन लेते-लेते मुझे कई बार ऊपर से नीचे तक देख गए हैं।

“आप ने पांच हजार का चेक क्यों दिया?” करन ने फूहड़ सा सवाल पूछा है।

मैं उत्तर ढूंढते कांप रहा हूँ। कैसे कह दूं कि मैं जीत को खरीदने गया था – क्या बताऊं ..?

“क्या आपने पहले भी किसी की शादी में ..?” करन ने मुझे उत्तर सुझाया है।

“जी हां – जी हां!” इंस्पेक्टर को शीतल की शादी में .. मैं घबरा गया हूँ।

“ओह तो आप शीतल को जानते हैं?”

“जी हां! उन्हें कौन नहीं जानता!” मैंने मुसकुरा कर कहा है।

इंस्पेक्टर करन भी तनिक मुसकुरा गए हैं। लगा है आदमी चालू है और मुझे फंसा रहा है।

“आप जीत को कब से जानते हैं?” दूसरा सवाल है।

“जी बस जब से वो यहां ..”

“पहले भी तो आप का एक बार मुकाबला हुआ था?”

“जी .. वह तो .. हां-हां! वो तो कोई खास नहीं था।”

“लेकिन ये वाला खास था?”

“जी नहीं! मेरी जीत से कोई दुश्मनी नहीं थी। मैं तो उसे ..”

“प्यार करते थे आप?” करन ने कोई तीखी विडंम्बना मेरे मन में ठूंस दी है।

“आप उसकी विधवा और बच्चों को भी संभालेंगे? वास्तव में बाबू दलीप आप एक बड़े समाज सेवक हैं!”

करन हंसे जा रहा है और मुझसे कोई उत्तर नहीं बन पा रहा है। वह मुझे जीत का कातिल मान बैठा है और यही सिद्ध करने की गरज से अब सवाल पूछ रहा है।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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