“सुनाओ गोपाल, क्या हाल है?” मैंने लेवल रूम में प्रवेश किया है।
“चल रहा है, मालिक!” गोपाल ने हंस कर उत्तर दिया है।
“आज तुम हमें काम करने दो! थोड़ा सिखाओ फिर तुम्हारी तरह हम भी ..”
“नहीं सर! आप मालिक हैं ..”
“तभी तो ..! चलो, एक बार एक्सप्लेन कर दो!” मैंने गोपाल को पटा लिया है।
“ज्यादा कुछ नहीं है साहब! ये देखो! पहले इस तरह .. फिर उस तरह .. बाकी काम मशीन कर देती है। दरअसल दिमागी काम तो कोई है ही नहीं!”
“अच्छा अब तुम आराम करो!”
“काहे का आराम मालिक! हमें कौन लकवा मार गया है जो ..”
गोपाल खुश है और मेरी उपस्थिति उसे भली लग रही है। “घर पर कैसा चल रहा है?” मैंने मशीन पर हाथ डालते हुए पूछा है।
“बस! दो जून की रोटी मुअस्सिर हो जाती है मालिक!”
“कितने बच्चे हैं!”
“पांच है! दोइ लरिका और ..”
गोपाल रुक गया है। लड़कियों की मात्र संख्या से भयभीत गोपाल की आंखों में एक अज्ञात सा भय भर गया है। हमारे समाज में आज भी लड़कियां बोझ हैं। भय का कारण हैं और संतति प्रेम से वांछित हैं। “तीन लड़कियां?” मैंने वाक्य पूरा किया है।
“जी मालिक! बड़ी दो अब शादी लाइक हैं पर ..”
“कर दो शादी?”
“धन तो चाहिए मालिक! धन के लिए ससुरा हर कोई मुंह फाड़े बैठा है। लड़का दुई अक्षर पढ़ जाए बस, हजारन में बात पहुंचती है।”
“बचाया नहीं पैसा?”
“बचे जब न! पेटन पे ते उबरे तो ..”
“ओह!” कह कर एक आहत सी सांस मुझे छोड़ गई है।
लेकिन धन मुझे कारावास जैसा लगने लगा है जिसमें गोपाल सदियों से बजाए नौकरी के जेल काटता रहा है। उसकी बेबसी, आंखों में भरे अव्यक्त आंसू और सर पर लदा तीन कन्याओं का बोझ आज तक इस कारावास में उसकी हड्डियां पीसता रहा है!
“पर शादी तो धड़ाधड़ होती है?” मैंने पूछा है।
“होती है मालिक! पर उन लोगन की जो माल मार कर बैठे हैं!”
“जैसे कि ..?”
“जीत है! ससुरा चोर खाने में नहीं चूकता!”
“उसके यहां शादी है?”
“हां मालिक! बस पांच दिन हैं!”
“ओह! तुम भी कुछ करो। पैसे की चिंता मत करो!” कह कर मैं चलता बना हूँ।
ऑफिस छोड़ने से पहले मैंने एक फरमान जारी कर दिया है – पूरे स्टाफ और वर्कर्स कमेटी की साथ-साथ मीटिंग बुलाई है। कमेटी हॉल में मैं सबसे एक साथ मिलना चाहता हूँ ताकि पल-पल घटती उमंग को मरने से बचा कर एक नई दिशा दे दूं। नया जोश भर कर जन मन को उनके शुभ के चिंतन हेतु कार्यरत कर दूं।
“सर! उनका भी प्रोग्राम है कल!” मुक्ति ने मुझे आगाह कर दिया है।
“हूँ ..! खैर, देखा जाएगा!” कह कर मैं सोच में पड़ गया हूँ।
विरोधी तत्व जड़ें पकड़ चुके हैं। नफरत ओर हिंसा की भावनाएं कुछ मनों में गहरी बैठ गई हैं। इन पैवस्त जड़ों को उखाड़ फेंकने के लिए मुझे कुछ ठोस कदम उठाने होंगे।
शाम का अखबार पढ़ते-पढ़ते मैं चौंक पड़ा हूँ। चुनावों का सिर्फ एक महीना रह गया है। देश में प्रचार के लिए मची हलचल से अचानक मेरे मन में उठी हलचल जा बंधी है। त्यागी भी एक प्रत्याशी है और ..! इसी वक्त मैं तैयार हो कर चल पड़ा हूँ। समय के साथ चूक पड़ना, समय पर न चेतना और सामर्थ्य बचा कर रख लेना मेरा सिद्धांत नहीं है।
“हैलो दलीप! भाई कब आए?” त्यागी ने मेरा गहक कर स्वागत किया है।
त्यागी जी की बैठक में लोगों की भीड़ जमा है। वोटों का ही जमा जोड़ चल रहा है। हर आगंतुक किसी एक गुट को व्यक्त करता है ओर शायद त्यागी के साथ वह सौदा भी कर चुका होगा।
“काफी जोर शोर से काम हो रहा है?” मैंने पूछा है।
“वो तो होगा ही जनाब!” उनमें से एक अधेड़ नेता बोला है।
“अच्छा कहो कुमार साहब क्या लोगे?” त्यागी जी ने बड़े ही शिष्ट ढंग से मुझे पूछा है।
“आप के कीमती समय के चंद पल ..” मैंने सीधा बयान किया है।
“वाह-वाह बहुत खूब। शायर लगते हैं आप!” उसी अधेड़ नेता ने मेरी तारीफ की है और शायद अपनी अहमियत बताने से बाज नहीं आना चाहता।
“आप हैं मिस्टर दलीप .. यानी ..” मेरी कैफियत बताते हैं त्यागी जी।
“अरे ये तो! हम भी बुद्धू हैं जो पहचाने नहीं।” उनमें से एक ने असमंजस प्रकट किया है।
“अच्छा! आओ कुमार!” कह कर त्यागी जी मुझे अलग कमरे में ले गए हैं।
“त्यागी जी! मैं मदद मांगने आया हूँ।” मैंने सीधी बात की है।
“और कुमार! मुझे भी मदद चाहिए?” एक अजीब सा सरोकार उभर आया है त्यागी जी की आंखों में जो उनके मनोभाव साफ-साफ बयान कर गया है।
“मुझे मंजूर है।” मैंने मान लिया है।
“तुम्हारा काम भी हो जाएगा!” त्यागी जी ने आश्वासन दिया है।
“कल मीटिंग ..” वाक्य अधूरा छोड़ मैंने त्यागी की आंखों में घूरा है।
“मुझे सब पता है। और ये भी जानता था कि तुम आओगे!” एक अद्वितीय खिलाड़ी की तरह त्यागी जैसे मेरी चाल जानते थे और मेरे ही इंतजार में थे।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड