हवाई जहाज लंबी यात्रा की उड़ान से थक कर कबूतर की तरह जमीन पर जा टिका है। गुर्राती मशीन शांत हो गई है। सांयसांय करते पंखे धीरे-धीरे विश्राम की स्थिति में लौट रहे हैं। इस कार्यान्वित होते दृश्य में मैं भी अब तक पिसता रहा था। पंखों की चरखियों पर चढ़ा घूमता रहा था और पता नहीं क्यों मशीन की गुर्राहट में अपनी गुर्राहट मिला कर लीन हो जाना चाहता था ताकि अपने मन के विषाद को मैं सुन ही न पाऊं। तो क्या मैं मिट रहा हूँ, घुट रहा हूँ और तिल-तिल घटता जा रहा हूँ?

एक निराशा भरी नजर कोई अपना खोज कर सामने की इमारत से लौट आई है। एक लंबी आह ही अपनापन सा दिखा कर चलती बनी है। एक बार अकेले पन का एहसास दोहरा चुका हूँ और अकेले ही रहने का व्रत सुदृढ़ सा हो गया है। अंदर की खामोशी बर्फ की तह की तरह जम गई है।

“हैलो सर!”

“ओह हैलो मुक्ति!” अचकचा कर मैं चौंक सा गया हूँ।

मेरी आशा के विरुद्ध जैसे ये काम हुआ है। मैं किसी अज्ञात खुशी के पारा वार नापता रहा हूँ। पराए भी कभी अपने लगने लगते हैं – इसी वाक्य का विश्लेषण करते-करते मैं मुक्तिबोध की आंखों में कुछ पढ़ता रहा हूँ। कुछ ऐसा जो अपना लगे, कुछ ऐसा जो आत्मीयता का सुखद सेक अंदर जमी खामोशी की बर्फ को पिघला दे। बावजूद कोशिश के मैं वहां भरा सहम ही खोज पाया हूँ।

“कैसा चल रहा है?” आम सवाल मैंने पूछा है।

“सब ठीक है सर!” औपचारिकता का पुट देकर मुक्ति ने उत्तर दिया है।

“पार्ट्स पहुंच गए?”

“यस सर!”

“काम चालू?”

“सर!”

“पॉलिटिकल माहौल?” मैंने जैसे कोई गुप्त राज जानना चाहा है।

मुक्ति मेरी ओर निरीहता से घूरता रहा है। अब रोया कि जब रोया – की मन: स्थिति से उसे खींचने की गरज से मैंने सवाल बदल दिया है।

“कोई नई चिड़िया फँसी?” मैं तनिक मुसकुराया हूँ।

“उलटा हुआ है सर! चिड़िया ने मुझे ..” मुक्ति ने हंसने का प्रयत्न किया है।

“ये जमाना ही उलटा है, माई डियर।” कह कर मैंने मुक्ति के कंधे पर हाथ धरा है। “सावधान! खतरा है! ये बोर्ड अपने कमरे में टांग लो!” मैंने राय दी है।

हंसते-हंसते हम दोनों चल पड़े हैं। मुक्ति कार चला रहा है। मैं उसे अमेरिका की महानता के बारे में सुनाता जा रहा हूँ। मुक्ति कभी-कभी मौत जैसी चुप्पी में जा डूबता है और मुझे टनों वजन उठाने तक की क्षमता लगानी पड़ती है तब कहीं उसे बाहर खींच पाता हूँ। लगता है कोई गड़बड़ है और तभी मुक्ति एक चुप्पी के परिधान में हर बार जा लिपटता है।

“कोई बात है?” मैंने पूछा है।

“नहीं सर! मैं .. वो वर्क लोड जादा रहता है न ..” मुक्ति उखड़ सा गया है।

यूं तो मैंने मुक्ति को घबराया कभी नहीं देखा। मैं तो उसे गहरा समुंदर ही मानता रहा हूँ जहां छोटी मोटी कठिनाइयां गहरे में डूब कर अस्तित्व विहीन लगने लगती हैं। लेकिन आज मुक्ति का निस्तेज चेहरा राहु केतु की पकड़ में आया भोला चांद लग रहा है।

मैंने सरपट दौड़ती कार के बाहर दूर नजर घुमाई है ताकि चारों ओर दौड़ धूप करते पेड़, घर, जमीन और सड़क से काट कर कोई शांत पल पकड़ लाऊं। कोई अदद अकेला पल जो विराट जैसी अकर्मण्यता से भरा लगा है। मैं भी अब किसी गहरे कुंए में समाता चला जा रहा हूँ।

“रामू काका तो होगा?” मैंने मात्र गरम पानी से स्नान करने की गरज से पूछा है।

रामू काका मेरी सारी आदतों से वाकिफ हो चुका है और अब मैं सिर्फ उसी आदमी में अपनापन जैसा कोई तत्व घुला महसूसता रहता हूँ। आराम करने का आग्रह, खाना खाने का आग्रह और खाने की जिद, कपड़े बदलने की रट और तीमारदारी, खान पीन का साज सामान संजो लाना और यहां तक कि सर दर्द होने पर एक स्नेह भरी चंपी – सभी एक आत्मीयता भर जाती है वरना तो ..?

“नहीं!” मुक्तिबोध की भर्राई सी आवाज मुझे अशुभ और अपशकुन जैसी लगी है।

“क्यों?” लगा है मेरा हिया बैठ गया है।

“आप चलकर सब कुछ देख परख लीजिए!” मुक्तिबोध जैसे मेरे बेतुके सवालों से तंग आ गया है और मेरे बेहूदापन पर खीज उठा है।

मैं शांत हो कर बैठ गया हूँ। किसी विकराल विभीषिका के आगमन को अन्यमनस्क सा न चाह कर भी देखूंगा, झेलूंगा और कुछ कड़वा कसैला जीवन गले से नीचे उतार जाऊंगा। मैंने शांत और शील स्वभाव को साक्षी बना कर पास बिठा लिया है ताकि आपत्ति काल में विचलित होने से बच जाऊं। फिर मैं बर्फ की तहों में जा बिंधा हूँ। चुप्पी से भर गया हूँ। अकेलापन समेटे एक अज्ञात सी दहशत से डरा सा मैं दूर क्षितिज पर छाए दिग्गजों जैसे बादल निहारता रहा हूँ।

फैक्टरी के मोड़ पर गाड़ी मोड़ काटने की गरज से धीमी हो गई है। मुक्तिबोध मोड़ और दरवाजे के सकरेपन से अवगत है और जागरूक भी है। मैंने दरवाजे की ऊंचाई पलक उठा कर नापनी चाही है तो कुछ अप्रत्याशित और अश्लील सा नजर भर देख पाया हूँ। एक भद्दा सा कार्टून बना है। लिखा है – आपका सतपाल!

कार्टून में मेरा और मुक्ति का नकली सा हुलिया असली बन कर हंसने लगा है। मुक्ति के हाथ में बड़ा सा मक्खन से भरा चमचा है जो मेरे ऊपर किसी भी पल उछाल कर फेंकने को तैयार है। मैं जैसे इसकी चाह में हूँ और हंस रहा हूँ।

“हाहाहा!” मैं बे रोक टोक हंसा हूँ। “हाहाहा! वॉट एन आईडिया?” मैंने प्रशंसा की है। मुक्ति लगा है – साथ देने में चूक गया है। मैंने नजर पसार कर मुक्ति के चेहरे पर क्लांत भाव पढ़ मूक नजरों से कहा है – इट्स द वे यू टेक इट!”

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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