जम्बोजेट रुपहले बादलों के ऊपर तैरता सा लग रहा है। अति संवेग से मैं भारत की ओर बढ़ रहा हूँ। लग रहा है सोफी से दूर चला जा रहा हूँ। लाख कोशिश करने के बाद भी मैं सोफी को भुला नहीं पा रहा हूँ। अपने आप को मिल तथा देश कल्याण के मुद्दों से बांध नहीं पा रहा हूँ। वही कमीना शब्द – वही सवाल और वही तिल-तिल कर जलाने वाला आक्रोश मेरे अंतर में भर रहा है।

“कौन था ये टोनी?” लगा है यह प्रश्न प्रेतकाय रूप धारण कर दिगंत में घूम रहा है।

“सोफी अछूती नहीं है दलीप!” अंदर के पवित्र मानस स्वरूप ने आवाज उठाई है। “जानते हो – इसकी दूधिया देह को पहले भी कोई भोग चुका है। ये तो सेकिंड हैंड है!” वही मूक आवाज उठती ही चली जा रही है।

तो क्या मैं सोफी ने फांस लिया हूँ? क्या मैं दाना निगली भोोली चिड़िया हूँ जो अब फंदा न काट पाएगी? टोनी तो मर चुका है लेकिन उसकी याद सोफी के मन में अब भी शेष है – जानते हो? किस कदर आंधी-धांधी बह-बह गई थी मात्र खबर के साथ – देखा तो था तुमने? मैं डर रहा हूँ।

आक्रोश और ग्लानि के सहारे मैं अपना प्रेम नगर ध्वस्त होते देख रहा हूँ। पहले तो सोफी का अजेय सा सौंदर्य विभाजित होता लगा है और फिर उसकी सारी अच्छाइयां मुझे दौड़ती लगी हैं। एक पतित स्वरूप सोफी सामने बिलखने लगी है। गुहारें, लाचारी – सोफी कह रही है ..!

“मुझे मत छोड़ना दलीप! मेरा क्या कसूर ..?”

“पतित है! कुलटा है ..! छिनार है, छिनार! और तुम? तुम गधे हो! भोले भाले पंछी जो हाहाहा! फंस गए न? चतुर तो बनते थे तुम पारखी लेकिन अब ..?”

“तो मैं क्या हूँ?” मैंने हिम्मत करके अपने इस मानस हंस से पूछा है।

“तुम .. यानी कि तुम ..? तुम हो एक करोड़पति – दलीप द ग्रेट एंड होनहार देश का एक अगुआ ..”

“चुप करो!” मैं झल्ला गया हूँ।

“क्यों ..?”

“परदे के पीछे से मत बोलो मित्र! असली स्वरूप बताओ न? सोफी ने तो कोई दुराव नहीं किया था?”

मेरा अपना अहम मुझे जानी मानी सच्चाई कबूलने से रोक रहा है। मैं जानकर भी भूल जाना चाहता हूँ कि मैं अनगिनत ठिकानों पर रात-रात रुका हूँ और कई भोली-भाली कलियों को मसल चुका हूँ! और शायद ..!

“याद आईं अपनी करतूतें? तुमने क्या-क्या नहीं किया?” मैंने अपने जमीर को ललकारा है ताकि मैं सच्चाई कबूल कर पाऊं।

“जब तुम गिरे थे तो तुमने भी अनगिनत बार यही किया था जो सोफी ने शायद एक बार किया है! तो क्या तुमने अपने आप को गिरा मान लिया था?”

“नहीं ..!”

“तो फिर ..?”

“पर सोफी ..?”

“अंगीकार नहीं? क्योंकि तुम अनगिनत चोखरों-पोखरों में मुंह गाढ़ कर अब गंगा जल पीना चाहते हो? सड़ांध भरी नालियों से उठ कर अब गंगा गोदावरी की कल्पनाओं से जूझ रहे हो। लेकिन क्यों?”

“इसलिए .. कि ..” अब मैं कोई उत्तर नहीं दे पा रहा हूँ।

“इस लिए कि तुम, तुम हो – अभिमानी .. करोड़पति .. दी ग्रेट हाहाहा! क्या-क्या पद नहीं पाए हैं तुमने भी, दलीप? कभी तो इंसान बन के किसी के मन में झांका होता?” पिटा सा मैं सुनता रहा हूँ।

मेरे अंदर वही दलीप बोल रहा है जो पापा के सामने अकड़ा था और विद्रोही बन कर जेल गया था। वही दलीप जो मजदूरों के माहौल में कूद पड़ा था। अब शायद आपे को संभालना संभव न हो ..

“तुम्हें गंगा गोदावरी नहाने का अधिकार ही कहां है? जो सोफी कर गुजरी है उसमें पाप भी क्या है? प्रेम तो मन से फूटता एक स्रोत है जो कभी रुकता नहीं! हां, दिशा जरूर बदल जाता है। यही तो तुम्हारे साथ होता रहा है!”

दिशा बदल जाती है? अगर फिर बदल गई तो? अगर सोफी ने मुंह मोड़ लिया तो? शायद उसी ने टोनी को छोड़ा हो! एक डर सा लगने लगा है मुझे। अब लगा है मुझे ठंड लग रही है।

“तो क्या बानी भी इसी तरह समझौता कर पाई होगी? तो क्या बानी ने सच्चाई को कहीं गहरा गाढ़ दिया होगा और शीतल ने श्याम को सती सावित्री होने की एक्टिंग कर दिखाई होगी? लेकिन सोफी ने तो कुछ भी नहीं छिपाया! लेकिन क्यों?”

अचानक मैं एक उत्तर पा गया हूँ। लगा है मैं अमेरिकी सच्चाई के करीब हूँ और उनमें हर बात कबूल करने का आत्म बल हूँ। हम लोग पर्दों के पीछे से जीना सीखते हैं, नाटक खेलना सीखते हैं और पाप पुण्य के पचड़ों में जीवन को बजाए स्वर्ग में ले जाने के जीते जी नरक में ढकेल देते हैं।

एक पर्दा पड़ा है – हमारी आंखों पर। समाज की आंखों पर पुरानी पीढ़ियों का पर्दा जो नए पन से सिहर उठा है और अभी तक उठा नहीं है! जब उठेगा तब? लेकिन इस पर्दे के उठने से कितने देवता स्वरूप उघड़ कर दानव बनने लगेंगे? कितनी हिम्मत चाहिए सच्चाई को करीब से जीने के लिए – ये मैं आज महसूस कर रहा हूँ!

“प्यार एक अमर स्रोत है। मानस हृदय मांस का बना है और हर सीने में धड़कता है। हर कोई प्यार के पल जीने की ही कामना में मिट जाता है – जूझ जाता है। जब बहती प्यार की धारा की दिशा बदलती है तो कुछ गम खा जाते हैं, कुछ सह जाते हैं तो कुछ जी जाते हैं! तुम इसे भोगो दलीप! इसे जिओ तुम! कौन जाने कब दिशा बदल जाए? प्यार पर भरोसा कम होता है क्योंकि ये दर्पण है और मामूली छींटा पड़ने से भी अंधा हो जाता है।”

“इन छींटों से ही तो बचाना है मुझे अपने प्यार को!” मैंने जैसे कोई कसम खा ली है, जैसे सोफी को झुक कर उठा लिया है और अब अपने पारदर्शी शीशे को अंधराने से बचाने में जुट गया हूँ।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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