मेरा मन आया है कि पूछ लूं – टोनी कौन था?
एयरपोर्ट पर खड़ा मैं अब भी साहस बटोर रहा हूँ कि अंतिम बार पूछता ही चलूं कि टोनी कौन था। पता नहीं क्यों टोनी मेरा प्रतिद्वंद्वी जैसा बन गया है और मुझे चुनौती दे रहा है। मर कर भी टोनी की आत्मा मुझे किसी सहम से भरती जा रही है। क्या टोनी इतना गुण ज्ञान संपन्न था जो सोफी उसकी मौत की सूचना सुन कर अवसन्न रह गई और अब ..?
एक ओर टोनी का भरा विषाद और दूसरी ओर जुड़ा सा प्यार और सम्मोहन मुझे टुकड़ों में विभक्त किए दे रहे हैं। अगर आज एक संदेह लेकर भारत लौटा तो कभी खुल कर न जी पाऊंगा। सोफी की आंखों में याचक भाव भरे हैं। दीन गरीब सी सोफी मुझ से कुछ न मांग कर भी कुछ मांगती लगी है। पहले दिन की उद्दंड सोफी और आज की टूटी सोफी भिन्न लग रही है।
“फिर कब?” सोफी ने पूछा है।
“अगर तुम मेरे बिना न जी सको तो चली आना और अगर मैं न रुक सका तो ..” मैंने तनिक क्रोध में कहा है क्योंकि टोनी का भूत मुझ पर अब भी सवार है। “ये तो एक दौड़ है सोफी – कौन किसे पा ले बस एक होड़ लगी है।”
“हिन्दुस्तान को तुम्हारी जरूरत है! जाओ ..”
“और तुम ..?”
“जरूरत पड़ेगी तो आ जाऊंगी!” सपाट से शब्दों में सोफी ने कहा है।
लगा है दो जुड़वा स्तंभ अलग-अलग खड़े कर दिए हैं। हम दोनों को किसी अज्ञात दरार ने पृथक-पृथक खड़ा होने पर मजबूर किया हुआ है।
“तो क्या मैं ये जिए दिन, हाव भाव और उछांट पछाड़ भूल जाऊंगा? और क्या-क्या भूल पाऊंगा?” मैं चुप हूँ लेकिन उत्तर तलाश रहा हूँ।
“सोफी …!”
“हां!”
“हम में प्यार क्यों है?” मैंने खोया विश्वास तलाशने की गरज से पूछा है।
“हमारे मानसिक स्तर समान हैं। हम दोनों महत्वाकांक्षी हैं और दोनों भावुक हैं इसलिए ..”
“और वो टोनी क्या था?” मैं पूछते पूछते रुक गया हूँ। “क्या कभी इसमें कोई भिन्नता नहीं आएगी?” मैंने प्रत्यक्ष में पूछा है।
“कौन जाने दलीप!” कोई अविश्वास सोफी के मन से रिसता लगा है।
“लगता है – तुम एक चोट खाई नागिन हो?” मैंने प्रेत जैसा भयंकर प्रश्न सोफी के सामने खड़ा कर दिया है।
“हां – हूँ!” एक ठंडी आग जैसी कोई चीज सोफी ने मुझ में भर दी है। उसका ये स्वीकारात्मक उत्तर मैं अब भी झुठला देना चाहता हूँ।
“एक बार गिरने से ही क्या आदमी हमेशा के लिए गिर जाता है?” सोफी ने पूछा है।
लगा है सोफी मुझसे माफी मांग रही है। सच्चाई और सपाट ढंग से कहने के आत्म बल से चकित सा मैं सोफी को नई नजरों से निरख परख सा रहा हूँ। सोफी दगा नहीं करती, छिपाव नहीं रखती और नहीं कोई बनावटी संबंध रखना चाहती है। मैं एक बार फिर सोफी की ओर खिंचा हूँ। हम एक दम करीब खड़े हो गए हैं। मैं सोफी की गरम-गरम सांसों के सेक से पिघलने लगा हूँ।
“आदमी कभी नहीं गिरता मेरी जान!” मैंने सोफी को आगोश में ले कर कहा है।
“थैंक्स दलीप!” सोफी ने आभार प्रकट किया है।
“फिर वही ..? भाई हमें ये साले मैनर्स चुभते हैं।” मैंने हास परिहास वाली दुनिया वापस लानी चाही है।
“अच्छा बाबा, आई एम सॉरी!”
“फिर से साली .. सॉरी?”
“ओके-ओके! लुच्चे .. लफंगे यू साले चोर ..!”
“बस-बस! मजा आ गया! वैल डन माई लव!” मैंने तालियां बजाई हैं और अभिनय किया है। “लेकिन चोर कैसे री ..?”
“चोरी करके जो भाग रहे हो!”
“तो बुला लो पुलिस!”
“इसकी गिरफ्तारी तो हिन्दुस्तान में होगी!”
“होगी न?”
“जरूर, जरूर!” कह कर मैं और सोफी एक दूसरे की गिरफ्त में कैद हो गए हैं।
समय चुक गया है। मुझे उड़ना है। चलना है। कितना अजीब है ये जीवन? कमीना एक पल नहीं रुकता। कभी-कभी तो न चलने की कसम खा लेता है। लेकिन न चाहने पर फिर चल पड़ता है।
सोफी ने हाथ हिला कर विदा किया है। गहरी नीली आंखों से कई बार विश्वास पिला-पिला कर मेरे घुन लगे इरादों को जीवंत किया है। हवाई जहाज की गुर्राहट में मैं उसके मौन में बंधे आग्रह नकार नहीं पाया हूँ। न व्यक्त होने वाले भावों से मन भर गया है। सोफी को पीछे छूटते देख अच्छा नहीं लग रहा है।
अचानक शहर जमीन पर छपा कोई चित्र सा लगने लगा है। खाड़ी के मुहाने, सागर का विस्तार और जमीन पर बिछी हरियाली घटिया बढ़िया भावों का मिला जुला संगम सा लगने लगा है। कोई उलझा पन मन में भरने लगा है। घर की याद अब पूरे संवेग से खींचती लगी है। पर मात्र आभास से कि मैं तो अकेला हूँ मेरी सारी शक्ति ठंडी पड़ गई है।
हां! मैं अकेला हूँ। एक आस थी वो भी पीछे रह गई। कौन मिलेगा आगे जिसे मेरा इंतजार होगा? लग रहा है मैं आगे की ये यात्रा व्यर्थ में तय कर रहा हूँ। मैं बिना लक्ष्य के जीए चला जा रहा हूँ।
पता नहीं क्यों मन का ये कमीना असंतोष कभी नहीं मरता?
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड