“और लो गाड़ी का रूप भी बदली!” सोफी कहते-कहते गाड़ी से जा भिड़ी है।
मेरे देखते-देखते पीछे से गाड़ी खुलकर एक चौड़ा कारवां बन गया है। एक चढ़ने के लिए दो पैरों की सीढ़ी नीचे गिर गई है और अंदर सोफी ने बैठक का कमरा सजा दिया है।
“कम इन!” उसने मुझे बुलाया है।
“वंडर फुल!” अनायास मेरे मुंह से निकल गया है।
शीशों पर नीले रंग के पर्दे, स्प्रिंगदार बैठने के सोफे और बीच में एक छोटा मेज तथा पढ़ने के लिए अखबार, मैगजीन और किताबें सभी हैं। एक कोने में छोटा सा बार है तथा रोशनी के लिए एक चलता फिरता टेबुल लेंप!
“काफी और टी?” सोफी ने बैठते हुए पूछा है।
“कॉफी!” मैंने सोफे पर लंबा लेटते हुए मांग की है।
सोफी ने बाई ओर एक कबर्ड सा खोला है। वहां बिजली का चूल्हा है। उसने कॉफी के लिए पानी चढ़ा कर उसे बंद कर दिया है। बस चंद मिनटों में हम कॉफी पी रहे हैं। सोफी ने बिस्कुट का पैकेट खोल कर सामने रख दिया है। नीले पर्दे हलके हवा के झोंकों में फरर-फरर फहरा रहे हैं। सूरज डूबने की तैयारी में एक ललोंही ललक लिए अब भी क्षितिज पर छाया हुआ है। शांत जलधारा हमें सशंक आंखों से घूर रही है और कभी कभार बारीक रेत खिसकने के साथ दांतों तले आ कर पिस जाता है तो एक किसकिसाहट से मुंह भर जाता है। मैं कॉफी के घूंट के साथ मुंह में भरी लुगदी नीचे उतार जाता हूँ।
“यू हैव एन आई फॉर द प्लेस!” मैंने सोफी की प्रशंसा की है।
“वैलकम!” सोफी ने इस तरह कहा है जिस तरह मैं कोई गैर होऊं।
मैं गाड़ी के बाहर आ कर टहलने लगा हूँ। जूते उतार फेंके हैं। रेत का तापमान उतर गया है पर अब भी ठंडी नहीं लग रही है। दूर आसमान पर पहाड़ियों का एक धुंधलका तैरता लगा है। वहां जा कर मेरी जिज्ञासा अटक गई है। बादल आकाश पर लाल-लाल रंग गए हैं और कोई महल जैसा बना लगता है जिसके कोनों पर हरे-हरे पेड़ पौधे बैठे झूल रहे हैं और सूरज किसी अधजले टुकड़े की भूमिका में रस्सी से बंधा दूसरे छोर पर लटक रहा है। पेड़ों की झुरमुट में कुछ एक बनफूल खिले हैं जिनकी ओर मैं अग्रसर हुआ हूँ। सोफी अब भी अंदर कुछ खुसुर-पुसुर करती कोई तैयारी कर रही है। मैं एक गुलाबी चहचहे फूल और एक सफेद मोंगरे जैसी कली की तुलना करता रहा हूँ!
“क्या कर रहे हो?” सोफी ने आ कर मुझे दबे पांवों पकड़ लिया है।
“तुलनात्मक अध्ययन!” मैंने सपाट सा उत्तर दिया है।
“किसका?”
“एक फूल है और एक कली है!”
“तो क्या हुआ?”
“और यह फूल किसी गुलाबी साड़ी में लिपटी कोई चीप और फुकरी औरत लग रही है। तो ये कली कोई मादक गंध से भरी लजीली अभिसार सुंदरी की भूमिका में बेहद फब रही है।”
“ब्रावो …! दलीप! क्या परख है तुम्हारी?”
“है तो ..! पर ये कली ..?” मैंने सोफी का हाथ पकड़ लिया है।
“फब नहीं रही है?”
“खिलती जा रही है।”
“नहीं चाहते?”
“चाह तो न जाने कब की वहां खड़ी-खड़ी इंतजार में सूख रही है!” कह कर मैंने सोफी को आगोश में लिया है। प्यार जैसी कोई बात फिर घट गई है!
नंगे पैर हम दोनों रेत पर टहलते-टहलते चल रहे हैं। हमारे पैरों की छापें रेत पर छपती जा रही हैं – एक संगत का प्रभाव जैसा पीछे छूट रहा है। मेरे और सोफी की छापें आकार में भिन्न जरूर हैं पर दिशा एक है। बालू के कुछ कण दौड़ कर यों पड़ी खाई भर देना चाहते हैं और असफल से हवा के साथ उड़ने लगते हैं। कोई कास का पैना बिरवा नंगे पैरों को तराश कर एक टीस दे जाता है – जैसे प्यार का बेनामी दर्द हो। हाथों में हाथ डाले हम चलते जा रहे हैं – रुकने का कोई प्रयत्न ही नहीं। आहिस्ता-आहिस्ता चाह आगे बढ़ने लगी है। पीछे लौटने का मन नहीं है। टे
सूरज डूब गया है। फिर भी धरती के वक्ष से एक मध्यम प्रकाश फूट रहा है। लाल-लाल वाटिका अब सो गई है और मन के छोर कहीं पहाड़ियों में जा डटे हैं। वहीं तट पर अब भी इक्का-दुक्का बगुला ध्यानावस्थित योगी सा खड़ा है ताकि कोई मछली उसका विश्वास कर ले कि वो सो रहा है। मेरे कान गायों के घर लौटने पर घंटियों की आवाज नहीं सुन रहे हैं। एक शीतल पवन सुर-सुर करती रेत को समेटने लगी है। पैरों को उड़ती रेत अजीब सा सुख दे रही है।
“कोई जंगली जानवर भी ..?” मैंने चुप्पी को तोड़ा है।
“रात होने दो!” सोफी ने कोई दो अर्थों वाला उत्तर दिया है।
“इंतजार .. लेकिन कब तक?”
“जिंदगी है – जब तक ..!” कह कर सोफी शरारत से मुसकुरा गई है।
मैं सोफी से जा जुड़ा हूँ। नीचे का रेत खिसकने लगा है तो मैंने सोफी को रेत पर चित डाल लिया है। हम ठंडे रेत को गरम शरीरों से सेंकते रहे हैं। पलोटियां खाते रहे हैं। सुर-सुर करता रेत आंखों, कानों और नाक में भरता रहा है पर हम लापरवाह जैसे लिपटे पड़े रहे हैं। मुझे सोफी का रंग और रेत का रंग एक सा लगा है।
“तुम बालू हो!” मैंने फुस-फुस आवाज में कहा है। “जब जोर पड़ता है तो खिसक जाती हो!”
“तुम बयार हो!” सोफी ने उत्तर दिया है। “चलते रहना ही जैसे तुम्हारा धर्म है – कहीं तो रुका करो?”
“क्यों?”
“हर पल को ठहर कर जिओ तो – जीना होता है। छू कर चले जाना भी कोई ..?”
“न जाऊं ..?”
“कैसे कहूँ?” सोफी धर्म संकट में पड़ गई है। “तुम रुकने वालों में से नहीं हो!”
“आजमा कर देख लो!”
“तो रुक जाओ – यहीं रुको .. आई मीन मिस्टर कुमार भी तो हैं?”
“पर मैं मिस्टर कुमार नहीं हूँ।” मैंने एक मोह का मोटा गला काट दिया है।
सोफी ठहर कर मुझे घूरती रही है। मैं सोफी के ऊपर पड़ा-पड़ा अनुभव करता रहा हूँ कि बिछी रेत पर मेरा पेट टिका है। इस रेत से मुझे दिशा जैसी कोई चीज मिलती जा रही है जो मेरे पेट में एक उमेठ पैदा कर गई है। मैं एक आकर्षण को काट कर कोई नीरस सी संज्ञा बन गया हूँ।
“मैंने तो यूं ही पूछा था!” सोफी रेत झाड़ कर खड़ी हो गई है।
“चलो आओ!” कह कर मैंने सोफी का हाथ पकड़ लिया है।
सोफी ने मुझे खींच कर खड़ा किया है। लगा है मैं एक वार बचा गया हूँ और इस में मेरा जिद्दी और अड़ियलपन ही काम आया है। पता नहीं क्यों मैं अपने मन को पालतू नहीं बना पाता। किसी का होना तो चाहता हूँ पर अपनापन खोना नहीं चाहता। सोफी निराश हुई है। आहत हुई है और शायद मुझे नकार दे पर मैं ये आफत भी चुभती घास की धारों की तरह ही सह गया हूँ।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड