“आप नोबल प्राइज भले ही जीत लें, धन माल का अंबार लगा लें पर वो संतोष, वो मानसिकता और वो गर्व से उन्नत सीना कभी करके चलना संभव न होगा।”

“आप मरे जग प्रलय!” संक्षेप में महंगा सिंह बोला है।

“व्यक्तिगत स्वार्थ ही हमें खा रहा है। आपाधापी का टुच्चा विचार हमें उबरने नहीं दे रहा है।”

“आप वास्तव में पॉलिटीशियन कम इंडस्ट्रियलिस्ट ज्यादा हैं।” प्रोफेसर ने व्यंग मारा है।

“रंगा गीदड़ नहीं हूँ। सच्चाई से मुंह मोड़ कर नहीं भागता। मैंने काम को व्यक्तिगत रूप में जिआ है!”

“तुम्हें कमी क्या है?” महंगा ने फिर चोट मारी है।

“तुम चल कर बांट क्यों नहीं लेते?” मैंने आक्रोश में पूछा है।

“मैं ..?” मेहरा सकपका गया है।

“क्यों ..? विश्वास नहीं है! बस यहीं तो आदमीयत की लाश हो जाती है! हमने विश्वास खो दिया है!” मैंने जैसे तमाम चर्चा का निचोड़ सबको घूंट घूंट करके पिला दिया है और अब उनके स्वस्थ होने की आशा में निराशा से देख रहा हूँ।

“भइया आओ जरा!” अनु ने मुझे पुकारा है।

मैंने एक बार सभी देश के होनहार लोगों को घूरा है और एक मूक भूमिका निभा कर दृश्य से हट जाने के हेतु माफी मांगी है – एक्सक्यूज मी! एक चुप्पी ने मुझे इजाजत दी है तो मैं चला हूँ।

“अरे, यहां तो भाषण मत दो! इन से मिलो – माइकल!”

“हाय!” माइकल ने बड़ी ही आत्मीयता से हाथ मिलाया है।

“हाय!” मैंने तनिक फीकी हंसी हंसी है और उत्तर में कहा है – मैं आपकी की शिकायत पर क्षुब्ध हूँ और जीत कर भी हारा लग रहा हूँ – अपने आप से – अपने लोगों से और अपनी कमियों से!

“सो यू आर द मैसेंजर फ्रॉम इंडिया?” माइकल ने पूछा है।

“मुझे दलीप कहिए!” मैंने रणजीत की तरह परिचय दिया है।

अनु पास खड़ी गुलाब की पंखुड़ियों की तरह खिलती रही है। लगा है फैली एक पंखुरी की जीभ पर धरे प्रशंसक वाक्य किसी अज्ञात गुफा में सरक गए हैं। अनु ने शायद सब को मेरी कैफियत पहले से बता रक्खी है। मैं एक बागी हूँ – उद्योगपति हूँ और ठीक अमेरिका वालों जैसा दृष्टिकोण रखता हूँ। शायद उसने बताया हो – मैं समाजवाद जैसे नकली सिक्कों से सरोकार नहीं रखता और सच्चे साधुवाद का अनुयाई हूँ।

“मिस्टर दलीप तुम से मिल कर बहुत खुशी हुई!” माइकल ने बनावटी हंसी हंसी है।

मन में कई बार आया है कि इन सब के नकली नकाब उतार उतार कर इन्हें नंगा कर दूं – इनके चेहरों पर पुती झूठी शान, बातों के गुच्छे और खाने के दांत तोड़ कर हाथों में पकड़ा दूँ। तब इन्हें बताऊं – संस्कृति और सभ्यता एक सोच का नाम नहीं हैं! ये तो मुल्लम्मा की चमक है – भुलावा है। एक बार हिन्दुस्तान में गोधूलि पर बजती गायों के गलों की घंटियां सुन कर देखो। अपने अंतः में उन आवाजों को उतारो, अवसन्न मन में खोजो तो पाओगे कि संस्कृति की जड़ें कहां तक फैल गई हैं – यहां का न्यूयॉर्क तो पोला है – यहां तो पोल है।

“टेक इट इजी दलीप!” सोफी ने बगल से कहा है।

सोफी मेरे मनोभाव और आदतों से जैसे परिचित है और उसने मुझे बहने से पकड़ लिया है।

मैंने सोफी को घूरा है। वह हंस गई है। मैं एक अमृत पान सा कर पाया हूँ। मानसिक परिताप जो झेल रहा था, भूल गया हूँ। लगा है गर्म-गर्म भाप के कगारों से चल कर मैं किसी बर्फीली चट्टान पर आ बैठा हूँ जहां ठंडक है। यहां तसल्ली जैसी कोई बात है और गहरी समझ सा ही उग आया हूँ मैं।

“तुम आई क्यों नहीं?” मैंने उलाहना दिया है।

“माफी चाहती हूँ।” सोफी ने हंस कर बात खत्म कर दी है।

सोफी का कहा एक वाक्य मुझे खुशियों के साम्राज्य में खींच ले गया है। वो कितनी गहरी है – मैं सोचे जा रहा हूँ।

“मैं .. जानती हो .. मैं ..” मैंने एक बालक जैसी शिकायत की है।

“जानती हूँ दलीप! कोई मेरी भी विवशता हो सकती है?” निश्वास छोड़ कर सोफी ने कहा है।

“हो सकती है! और मेरी भी ..”

“लड़ो मत! आहिस्ता बोलो!” सोफी ने मुझे शांत कर दिया है।

“सोफी … एक ..” मेरी जबान अटक गई है।

“शीईई! ये अमेरिका है! सच्चाई मत उगलना!” सोफी ने मुझे सचेत किया है।

सोफी एक अदब और नई औपचारिकता में लिपटी इधर उधर की दौड़ धूप करती रही है। उसके अंदर मची हलचल मैं जानता रहा हूँ। पता नहीं क्यों सोफी एक नकाब ओढ़े है। जरूर कोई कारण होगा – मैंने मान लिया है।

“कल मिलेंगे। मेरे साथ शाम का खाना खाना!” सोफी ने मुझे निमंत्रण दिया है।

“खाना इतना ही अच्छा होगा जितनी ये शाम?”

“नहीं!”

“तो वायदा करो ..”

“पक्का रहा!” कहकर सोफी का चेहरा अजीब आभा से आरक्त हो आया है जिसे अनु ने चोरी से देख लिया है।

मैं कुछ संतोष समेटे भीड़ में मिल गया हूँ। हर बार मेहता, वशिष्ट या महंगा आ कर मेरा गिलास भरते रहे हैं जैसे मैं इन सब का अतिथि हूँ। एक अजीब सा संबंध मुझे इन के साथ जुड़ा लगा है। एक आत्मीयता सीने में भर सी गई है और कोई अतिथि सत्कार का दिया आदर अमूल्य वस्तुओं जैसा है।

“मैं देश वापस आना चाहता हूँ!” कुलकर्णी ने इस तरह मांग की है जिस तरह वो यहां सजा काट रहा कोई निर्वासित कैदी हो।

“देश तुम्हारा अपना है। जब चाहे तब चले आओ!” मैंने हलके मूड से कहा है।

“मुझे तुम्हारी मदद चाहिए?” कुलकर्णी जैसे इस बात को बहुत दिनों से लेकर बैठा था और आज मौका पा कर इसे उगल पाया है।

“मुझे भी ..” मेहता ने भी लजाते हुए मांग की है।

“मुझे कोई आपत्ति नहीं। पर वहां वही विकट समस्याएं आज भी हैं। सोच लो!”

“कब से सोचे बैठा हूँ – साला उधार जीना भी कोई जीना हुआ।” कुलकर्णी ने एक विडंबना का बखान कर डाला है।

“जहां करोड़ों जीते हैं वहां मैं भी ..” मेहता ने भी स्वीकारा है।

हम सबकी निगाहें इस तरह मिली हैं जिस तरह अमेरिका की खिलाफत में आवाज उठाते हम विद्रोही हों। मुझे अपार संतोष हुआ है कि मैं इन लोगों को सच्चाई बताने में सफल हुआ हूँ। अनु ने मुझे नई नजरों से घूरा है मानो उसे मुझ पर गर्व हो।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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