मैंने कैरिज के हर कोने की तलाशी ली है। हो सकता है सोफी यहीं कहीं छिपी हो। उसका कोई सामान सट्टा पड़ा हो या कोई कंगन-मुंदड़ी ही छोड़ गई हो ताकि मैं जान सकूं – लेकिन हर कोने से निराशा ही मुझ पर हंसी है। मैं अंदर की घुटन जब नहीं पी पाया हूँ तो बाहर निकल कर कैरिज के बनाव देखता रहा हूँ। लिखा है – पर्ण कुटीर! सुंदर नाम है। इस पर्ण कुटीर में एक ही कमी अखर रही है – सीता की!

मैंने कैंप का राऊंड लिया है। खिलते चेहरे, दम लगाते अल्हड़ युवक, अधनंगे जन कल्याण में लगे बैरागी और कुछ कार्य रत कैंप के स्वयं सेवक हैं – जो एक मोहक संरचना लग रहे हैं। इस तपोवन में जमी ये भीड़, भिन्न भिन्न देशों और प्रांतों के प्रतीक किसी जटिल समस्या के पीछे खोजते उपायों के समर्थक और प्रवर्तक ये सभी उन्नति के रथ में जुते घोड़े लग रहे हैं – जो किसी वक्त भी भाग खड़े होंगे। किसी भी रास से नहीं रुकेंगे और कहां रुकेंगे – कोई पता नहीं!

“हैलो पीचो?” मैंने बहुत ही शिष्टाचार के साथ सुन्न काले इस व्यक्ति से हाथ मिलाया है।

रंग भेद जैसे मेरे मन से मिट गया है। मैं और पीचो इतनी आत्मीयता से मिले हैं जैसे एक ही देश और जाति के हों। पीचो जब हंसता है तो स्वच्छ उसकी दंतावली की चमक मुझे मोहक लगती है। बलिष्ठ बांहें, ऊंचा कद काठ और घुंघराले बाल मानो कल्पना की अमर कृति हो – ऐसा लगता है। मुझे पीचो में अपने से आगे कुछ भी भिन्न नहीं लगता।

“सोफी नहीं आई?” मैंने सीधा प्रश्न पीचो से पूछा है।

पीचो तनिक हंसा है। उसने मात्र बहाने के लिए मुझे देखा है और अपना तरबूजा जितना भारी सर हिला दिया है।

“डोंट ट्रस्ट – अमेरिकन्स!” उसने उत्तर में जैसे मुझे सचेत किया है।

मैं अंदर तक आहत हुआ हूँ। इस उपजे अविश्वास ने पता नहीं क्यों मुझे मंजिल से मीलों दूर तक खदेड़ दिया है। अंदर की जेब में पड़ा-पड़ा पत्र मूक भाषा में कुछ कहता रहा है!

“क्यों नहीं आई?” मेरा ये प्रश्न नदी, पहाड़ और जंगल की हर पत्ती पर अंकित हुआ लगा है।

एक विरह – एक निराशा और तनिक से अविश्वास के साथ ही मैं जिआ हूँ। चाह कर भी मैं कैंप से वापस नहीं जा सकता। लगा है – मेरे गिर्द मेरी प्रशंसा, सम्मान और उठी इमेज के कांच के अहाते खड़े हो गए हैं। मैं डरने लगा हूँ कि कहीं तनिक सी चोट से ये टूट न जाएं। मैं डरता हूँ क्योंकि सभी मुझे इस सोच के पार निरंतर देखते रहते हैं और डरता हूँ कि कहीं मैं डीगा न खा जाऊँ।

इन सात दिनों में मैं पूरा देवदास बन कर लौटा हूँ। एक दम हिप्पी, विरह, बैरागी और एक पिटा इंसान। सोफी का छलावा मुझे छल कर भी चैन से नहीं छोड़ पाया है। इसी बेहूदा सज्जा में मैंने लैक्चरबाजी की और मेरे फोटो भी छपे हैं। इसी पागल पंथी के लिबास में मैं अपने ठिकाने पर लौटा हूँ। कई बार जम कर नशा किया ताकि सोफी को भूल जाऊं। पर जब भी मल्लप्रभा के बहते नीर को देखा – सोफी ने पीछे से आवाज दी – आओ ना ..? छपाक से कूद गई – अदृश्य हो गई और मैं सकपका कर किनारे पर खड़ा रह गया! अंगों में एक अजीब गंध आने लगी है पर मैं इसे संवरण कर पाया हूँ – सोचता हूँ – क्यों जिऊं?

“आप का पासपोर्ट और पेपर्स तैयार हैं सर!” मुक्ति ने बताया है।

“मैं भी तैयार हूँ। काम के बारे में ब्रीफिंग दे दो बस!” मैंने उत्तर दिया है।

मुक्ति ने मुझे सब कुछ समझा दिया है। सोफी से कैसे मिलना है – ये तो मैं खुद ही तय कर पाया हूँ। मैंने अपनी हिप्पी की साज सज्जा में और भी चार चांद लगा दिए हैं। लोगों ने मुझे घूरा है, परखा है और कई बार कुछ शंकाकुल और कुछ बेधड़क निगाहें मुझे सटक जाने को हुई हैं – पर मैं झुका नहीं हूँ – मुड़ा नहीं हूँ।

उड़ान भी किसी विहंग की उड़ान है और मैं सोफी के पास जाते-जाते दूर होता जा रहा हूँ। पता नहीं किस तरह उसे बता पाऊंगा कि मैं कैसे जी रहा हूँ। गलती उसकी है और सहा मैंने है। फिर दिमाग ने तर्जुमा कर के बताया है कि प्यार की परिभाषा सही मानों में यही है। एक दूसरे के लिए ही तो प्यार पलता है!

मेरे बड़े बालों के छल्ले बन कर मेरी गर्दन छू रहे हैं। लंबी सॉरी कट मूँछें – जो आज फैशन में हैं, मैं इन्हें खुद देख कर सराह लेता हूँ तथा कुर्ते के ऊपर पहनी मखौटेदार जाकिट – जो चमड़े की बनी है ओर आधुनिकता का पहला कदम जैसी लग रही है। रबर सोल के जूते जो मेरा कद और दो इंच बढ़ा गए हैं और एक बेहद अलग किस्म का बैलबॉट्स मुझे अन्य यात्रियों के साथ मिलने से रोकता रहा है। कुछ यात्रियों ने मुझे कटौंही निगाहों से कई बार घूरा है पर मैं एक मैगजीन में छपे चिड़ियाओं के चित्र देखता रहा हूँ। अचानक मुक्तिबोध की हॉबी और वही पिंजरा सामने आ गया है। कैद में लगी निरीह ये चिड़ियां और उनकी डबडबाती गोल-गोल आंखें, बेबस हो कर पंख फड़फड़ाते बेचारे पक्षी और अन्य कितने ही नाम मेरे मानस पटल से लोनी खाए पलस्तर की तरह झड़ते रहे हैं।

“हैलो भइया!” अनु ने मेरा स्वागत किया है।

“हैलो अनु!” मैंने भी उसी औपचारिकता से उत्तर दिया है।

लगा है अमेरिका में आ कर अनु हिन्दुस्तान को भूल गई है। वहां के रीति रिवाज वहीं छोड़ आई है और किसी विदेशी आवरण में लिपटी अनु कोई उधार ली गई संज्ञा लग रही है!

“मामा जी! मामा जी!” दोनों बच्चे आ कर मुझसे लिपट गए हैं।

मैं अनायास इन बच्चों से लिपट गया हूँ। प्यार में ही प्यार की आवृत्ति है – मैं समझ पाया हूँ।

“जीजा जी नहीं आए?” मैंने अनु से पूछा है।

“काम इतना है भइया कि बस घर पर भी शायद ही आए मिलें!”

अनु ने आते ही मुझे काम और समय का ज्ञान करा दिया है। फिर भी मैं पूछना ही चाहता था कि सोफी क्यों नहीं आई पर साहस नहीं कर पाया हूँ। पीचो का कहा वाक्य – डोंट ट्रस्ट अमेरिकन्स, याद आ कर एक धक्का सा मार गया है।

“वैलकम टू स्टेट्स, साले साहब!” जीजी जी ने गहक कर कहा है।

जीजी जी कौली भर कर मिले हैं। कुछ सौहार्द और आत्मीयता टपक कर सब गीला कर मन गीला कर गए हैं। मैं अनु के बनावटी लिबास पर एक बार फिर चिढ़ गया हूँ।

“चलो भइया शक्ल चेंज कर लो!” अनु ने मुझे कपड़े और हुलिया बदलने का संकेत दिया है।

मैं अनु को एक बारगी देखता रह गया हूँ। खुद कितनी बदल गई है और अब मेरे बदलाव पर खीज गई है! लेकिन क्यों? हां क्या मां अनु को इस तरह देख कर मार-मार कर इसकी खाल न उधेड़ देती? नंग धड़ंगी टांगें, कटे बाइयों जैसे बाल, चेहरे पर पुता अर्थहीन मेकअप और बात-बात में बनावटी भौंड़ापन – क्या सभी भद्दे नहीं हैं?

“मैं नहीं बदलूंगा!” कह कर मैं भी चुप लगा गया हूँ।

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मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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