“ये हमारी भूल थी!” मैंने बानी को विश्वास दिलाया है।

“अब जी लूंगी!” कहकर बानी ने आंखों के आंसू पी लिए हैं। एक उमड़ती हूक और सुबकी रोक कर शब्दों में बदल दी है। “गम नहीं दलीप! मैं तो सोचती रही थी कि ..”

“क्या?”

“तुमने मुझे बाजारू तवाइफ ..”

“कम ऑन बानी!” मैंने इस तरह बयान किया है जिस तरह कोई घृणित दृश्य देख कर नाक आंख ढांप ले।

“मुझे लालच नहीं था दलीप पर मैं ये व्यक्त नहीं कर पाई!” कुछ हलकी होकर उसने कहा है।

“अब इसकी जरूरत नहीं, अगर कुछ चाहिए तो ..”

“मांगना कब का छोड़ दिया!” कहकर बानी तनिक हंसी है।

एक स्वाभिमान, एक गौरव और एक विजय गर्व जो अभी-अभी बानी में लौटा है मुझे मोहक लगा है। अपनी और मेरी भूल को उसने दो आंसुओं के सहारे बरी कर दिया है और अब एक ताजगी भरे जीवन में बंध गई है।

“बोलो! क्या पीओगे?”

“जो पिला दो ..!” कहकर मैं सोफे पर लंबा होकर पड़ गया हूँ।

लगा है सदियों का जोड़ा हिसाब चुका कर मैं बानी से जुड़ गया हूँ। बानी में उदारता और भावावेश की जो सहजता भरी है मैं उसपर रीझ गया हूँ। सोफी कितनी अभेद्य है, कितनी कठोर है और कितनी-कितनी परतों में लिपटी है – उसे समझ पाना बहुत कठिन है। ये मैं बानी से तुलना करके ही जान पा रहा हूँ।

“तुम्हारा दोस्त श्याम शीतल से शादी कर रहा है।” बानी ने अन्य खबरों के साथ बताया है।

समोसे खाते-खाते जैसे मैं किसी हरी मिर्च के टुकड़े को चबा रहा हूँ – ऐसी झल्ल मुंह में फुंकी है। चाह कर भी दूसरा ग्रास अंदर नहीं ठूंस पा रहा हूँ। मैं ये खबर झुठला देना चाहता हूँ। इसे सच मान लेना जैसे मेरे बूते की बात नहीं और सच मान कर भी पता नहीं कैसे पचा पाऊंगा – सोचे जा रहा हूँ।

“और किस-किस की शादियां हो रही हैं?” मैंने जैसे बात से मुंह मोड़ कर अपना रुख मोड़ा है।

“प्रकाश हनीमून पर है, कौशल लापता है और मनमौजी ने कुंवारा रहने का व्रत ले लिया है।” बानी ने बताया है।

“और तुम ..?” मैंने पूछा है मानो बानी को प्रेत काया कोई भय डरा गया हो – वह चौंकी है।

“जल्दी ही ..”

“मुबारक हो!”

“पर .. दलीप ..?”

“विश्वास रक्खो .. जिंदगी भर ..” मैंने बानी को आश्वासन दिया है।

मैं जानता हूँ कोई भी बानी का अतीत जानकर झेल नहीं पाएगा उसे। सहसा सोफी के अतीत को जानने की जिज्ञासा हुई है। फिर अपने अतीत ने आकर मेरा मुंह चिढ़ाया है।

“अपना स्वरूप शीशे में गौर से देखो, दलीप बाबू!” प्रश्न है जो खुद गरजा है।

अचानक मुझे नवीन से किया वायदा याद हो आता है। उससे मिलना है। शायद कोई काम की बात हो या कोई संसद में चलते फिरते चुटकुले हों जो कोई चेतावनी दें या फिर मार्ग दर्शन कर जाएं! नवीन एक उभरता जनता का चहेता नेता है।

“कभी नवीन से मिली हो?” मैंने बानी से पूछा है।

“हां-हां! आजकल झोंपड़-पट्टी में रहता है।” बानी ने बताया है।

“क्या ..?”

“हां-हां! उसने सेवा व्रत लिया है न। चार छह और भी चमचे हैं। कभी नालियों की सफाई तो कभी वहां के निवासियों को अपने भाषण के दो चार घूंट पिलाता रहता है।” बानी ने संक्षेप में मुझे बताया है।

“दैट इज राजनीति?” मैंने व्यंग किया है।

“दैट्स राइट!” कहकर बानी उठी है।

“मैं छोड़ता चला जाऊंगा!” मैंने मदद करनी चाही है।

“अब नहीं!” कह कर बानी भीड़ में मिल गई है।

पल भर में वही भीड़ देखता रहा हूँ – पैदल, रिक्शे, तांगे, साइकिल और रेड़ी ठेले वालों से लबालब भरा बाजार! लग नहीं रहा है कि मानव निर्मित हो वरना तो इन्हें उठती दुर्गंध पर खीज जाना चाहिए था। टूटते संबंधों और आदर्शों पर पत्थर मार-मार कर ये गगन चुंबी दीवारें गिरा देनी चाहिए थीं। मुझे ये भीड़ यांत्रिक मानवों की भीड़ लगती है जिनपर एक मीटर लगा है – और इस मीटर में एक लंबाई सेट है, एक उद्देश्य सेट है और आंखों का दृश्य भी फिक्स है। यानी कोई दाहिने या बाएं न देख पाए – यही यांत्रिक मानव किसी जीवन अंश से भावित है – जो उधार दिया मूल है और काम वसूली में पाई ब्याज है। कौन है जो इन्हें ये निर्देश दे रहा है? कौन है जो सच्चाई से इन्हें काट रहा है? आते प्रश्न प्रेत मुझे जकड़े खड़े हैं और ..

“अरे ओ भाई! यों थोबड़ा उठाए क्या देख रहा है? बीमा करा के रक्खा है क्या?” एक अक्खड़ से आदमी ने मुझे ठेले से टकराते-टकराते बचा लिया है।

“अच्छा था – टकरा ही जाता!” मैंने सोचा है और आगे बढ़ गया हूँ।

अनमने से कार चला रहा हूँ। नवीन के घर पहुंचने में सिर्फ दस मिनट लगेंगे – मैं जानता हूँ। जोर का हॉर्न बजाने पर नवीन घर से ही चीखेगा – चला आ मैं घर पर ही हूँ।

पर ऐसा नहीं हुआ है। वो चला गया है। सूचना मुझे दरवाजे पर खड़ी उसकी मां ने दी है।

“लेकिन कहां?” मैंने कार से गर्दन उचका कर पूछा है।

“भाड़ में गया है और तू भी चला जा!” कह कर वो भीतर चली गई है।

सहसा मुझे बानी की बताई झोंपड़-पट्टी याद हो आई है। बे मन आगे बढ़ गया हूँ। नवीन – जो एक जाने माने व्यक्ति का बेटा है, जिसे शहर में हर आदमी कभी नवीन बबुआ के नाम से जानता था और बाद में नवीन के नाम से और अब लफंगा और ..!

“ये क्या वेश बनाया है रे?” मैंने नवीन से लिपटते हुए पूछा है।

“बाल बैरागी बन गया हूँ।” नवीन हंसा है।

नवीन – कुर्ते पाजामे और दो कौड़ी की चप्पलों में गोरा सुडौल बदन संभाले बहुत ही मोहक लगता है। अस्त-व्यस्त बाल, माथे पर उगी पसीने की बूंदें और खुली नाली से उठती सड़ांध सभी कुछ गड्ड-मड्ड संख्याएं लगी हैं और लगा है कि मैं इन को भूला नहीं हूँ।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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