“मन की गतियां हैं – ऊर्ध्व और अधः गति। ये गतियां अगर हम जान जाएं तो ये उठाई जा सकती हैं और उठने पर मानव सामान्य स्तर से ऊपर उठ जाता है। भरण पोषण का चिंतन दाहक है पर आवश्यक भी। अगर इस चिंतन का स्तर उठ जाए तो ये दाह खा नहीं पाता।”

लगा है तमाम भीड़ अपने-अपने दाह भगवान द्रुम लता के ऊपर फेंकती चली जा रही है। हल्की होती जा रही है और सभी किसी कहे अदृश्य के चिंतन में डूब जाने को आतुर हैं।

“योग – वैराग्य योगियों या विरक्तों के लिए ही नहीं हैं। इनकी ज्यादा जरूरत आज गृहस्थियों को है। कलह, छुटपन के दाह, दिन रोज की चीखती अधूरी जरूरतें और जान लेता जघन्य लोभ और पाप अज्ञान वश बढ़ रहे हैं।”

अज्ञान ..? जैसे मैंने अपने अंदर के अंधेरे झांके हैं। मुझे किसी ने आज तक ज्ञान की परिभाषा तक नहीं बताई। ज्ञान – खाने के बारे में, रहने के बारे में, सर्दी और गर्मी का ज्ञान, लाभ और हानि का ज्ञान, प्यार और वासना का ज्ञान – हवस, धोखाधड़ी, बेवफाई और न जाने कितने अन्य ज्ञान मुझे हैं। पर जो द्रुम लता कह रही है वो ज्ञान कौन सा है?

“आत्मा ही शाश्वत इकाई है। जब ये उभर नहीं पाती तभी इंसानियत का खून हो जाता है। और आज ये दब चुकी है।”

एक शीत लहर सी सारी भीड़ को सटक गई है। सब के मस्तिष्क अवसन्न हो गए हैं। सभी अपने-अपने जुर्मों का इकरार कर हैं। और सभी आत्मा जैसी कोई संज्ञा खोज लेना चाहते हैं।

“इसकी खोज, सच्चा ज्ञान, अपने अंदर छुपे राक्षस अंशों पर विजय और निरंतर आत्म चिंतन ही एक मात्र उपाय है।”

मैंने भगवान द्रुम लता को एक बार फिर घूरा है। कोई दिव्य मूर्ति सी, ज्ञान उगलता कोई संगमरमर का पुतला, एक बहती संदल की महक, कंचन देह या दिव्य ज्योति सी लहलहाती द्रुम लता कोई मन की हवस खाए जा रही है। उस शरीर को नंगी आंखों से देखने के बाद की सर्द या गर्म स्थितियां नहीं बन पाई हैं। कोई मलिन भाव नहीं आया है और न उस शरीर को चुरा कर ले जाने की कोई चाह हुई है। द्रुम लता बला की खूब सूरत लग रही है पर हाथ में शंकर का त्रिशूल नीच भावों का दमन करता चला जा रहा है।

“शीर्ष आसन, पद्मासन, चौरासी आसनों का ज्ञान मोक्ष साधना में प्राणायाम का महत्व और इस साधना की निरंतरता ही कुछ सीखने वाली बातें हैं।”

उत्सुकता से मैं सुन रहा हूँ। द्रुम लता ने आसनों को कहने के साथ करके दिखाया है। प्राणायाम अंदर फेफड़ों में भर कर वो ध्यान मग्न हो कर बैठ गई है। बड़ी ही मोहक लगी है मुझे।

समय ठीक बारह बज गए हैं। मैं भूखा हूँ पर हटने को मन ही नहीं हुआ है। मुझे द्रुम लता के अदृश्य साहस और साधना पर आश्चर्य हो रहा है। किस तरह उसने अपने मन की कमजोरियां जीत ली होंगी, किस तरह वो अपने आवरण फेंक कर नंगी हो गई होगी और किस तरह वो लोगों के कुचेले आघात सहती होगी? अगर मास्टर श्याम लाल आज देख पाता तो? शायद कल लाठियों से सर लाल रंग जाते और ..? क्या ये अनैतिकता है? क्या इसमें कुछ अश्लील है? जाना माना ये मानव शरीर ही तो है!

“भोले .. शंकर ..!”

एक जय घोष परिप्रेक्ष्य से गूंजा है। सभी के कान सजग हुए हैं। कुछ लोग अब तक अपनी खुराकें – राता, आलसी और भांग के गोले, सुल्फे के दम और अन्य मादक वस्तुएं खा पी चुके हैं और प्रसन्न मन से इस जय घोष पर उछल पड़े हैं। एक प्रतिध्वनि में – भोले शंकर का स्वर गूंजा है। जो गंभीर चिंतन के पल थे वो कट गए हैं और अब इनकी फूल सी हल्की स्थितियां पैदा हो गई हैं। पार्श्व में एक कड़क संगीत फूटा है और कोई नशीली धुन रात के अंधेरे में गिलास भर-भर कर मदिरा पिला रही है।

“शंकर .. ओ .. शंकर!”

“कांटा लगे ना कंकर!”

एक नृत्य, एक वीभत्स सी भूमिका, एक प्रमाद और किसी अजेय उल्लास की लहर उठ चुकी है। भीड़ अपने-अपने ढंग में नाचने लगी है। गुटों में, कतारों में, इक्का दुक्का और कुछ दर्शकों के रूप में भाग ल रही है। एक स्वतंत्र भाव फूट रहा है। द्रुम लता भी आकर भीड़ में विलीन हो गई है। लेकिन मैं अब भी अकेला खड़ा हूँ। ज्ञान की जगह अब आक्रोश भर गया है। लाख कोशिश करने पर भी सोफी को तलाश नहीं कर पाया हूँ। शायद वो चली न गई हो – का भय मुझे डरा रहा है!

“कैसा लग रहा है?” प्रदीप – जो एक अर्ध नग्न लड़की को बांहों में भरे है, पूछ रहा है।

“अच्छा!” कह कर मैंने मुंह फेर लिया है।

“नया पंछी है!” उस चलते पुर्जे जैसी लड़की ने मुझे आहत छोड़ दिया है।

नया पंछी हूँ। लगा है – सोफी मेरे पर काट कर बेरहमी से मुझे छटपटाने को छोड़ गई है। अगर उड़ान भरूंगा तो बिना पंखों के संभव कहां है?

“हे – हो हो हो!” एक परछाईं ने एक दुर्निवार सा संबोधन किया है।

ऐवरेस्ट है। मुझसे लिपट गई है। एक मादक गंध उससे रिस रही है। नशा करके आई है। अंधेरे में मैं उसकी नथनियां नहीं देख पा रहा हूँ।

“कम ऑन .. दलीप!” उसने मुझे घसीटा है। मैं भी उस भयंकर भीड़ में मिल गया हूँ।

बेतहाशा उछल कूद, धक्के-मुक्की, हास परिहास, पागल पन और पड़े – हंसते धत्ती-अमली किसी परिकल्पना के सिवा और कुछ नहीं लग रहे हैं। मैं – भटका एक नायक इस माहौल में अपनी नायिका से बिछड़ जाने का गम प्रदर्शित कर रहा हूँ।

“किस मी ..?” ऐवरेस्ट ने मेरे समीप चिपक कर फुसफुसाया है।

मैं अनसुनी कर गया हूँ। सोफी के बर्फीले विस्तार याद कर ही अपने आप को बचा पाया हूँ। द्रुम लता के उभरे उभार अब ऐवरेस्ट में समाते लगे हैं। एक पल पहले और अब की स्थितियां कहीं मेल नहीं खा रही हैं। जीवन एक होता है – पल हजार और सभी जीने पड़ते हैं – मैं सोच रहा हूँ।

“कम ऑन हीरो! किस मी!” ऐवरेस्ट ने फिर कहा है।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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