“मैं बनाऊंगी और – तुम पीओगे? हूँ .. लंबू!”
सोफी ने मुझे डांट कर गरियाना शुरू किया है। लंबू – मुझे एक मोहक सर्वनाम लगा है। सोफी के मुंह से झरते केतकी के फूल और कांटे अंतर तक वेधते कामदेव के सायक हैं जो एक नाग पाश में मुझे बांध लेना चाहते हैं!
“साली नकटी – बनाएगी चाय?” मैंने लपक कर सोफी की नाक दबा दी है।
“चाय नहीं कॉफी साले लंबू!” सोफी ने मेरे पेट में हल्का सा घूंसा घुसा दिया है।
छोटी सी तकरार, मन से बहते ये मुक्त और अनियंत्रित बहाव बीच का पर्दा और लदे समाज के आव आदर के आडंबर बहा ले गए हैं। अब हम दोनों सिर्फ दो प्रेमी हैं – दो मानव हैं – दो प्रेम बिंदु जिनमें तमाम आकर्षण भरे हैं और जो एक दूसरे के लिए एक अदृश्य परिधि पर नाचते रहना चाहते हैं – पृथ्वी और चांद की तरह!
खिलते खिलाते हम दोनों बांहों में बांहें डाले, एक दूसरे के शरीर से रिसती ताजगी पीते, सहारा देते और लेते अपने निराधार ठिकाने पर पहुंचे हैं। सोफी ने कॉफी उबालने के लिए छोटा सा स्टोव निकाला है तो मैंने हाथ पकड़ लिया है।
“तरीका गलत है!”
“क्यों?”
“लकड़ी की आग जलाएंगे!”
“क्यों?”
“कॉफी के साथ-साथ बदन भी सिक जाएंगे और कैंप में कृत्रिम वस्तुओं का उपयोग निषेध है!”
“अच्छा! तो ले आओ जा कर लकड़ी!”
“चलते हैं साथ-साथ!” मैंने आग्रह किया है।
“चलो चलते हैं!” कह कर सोफी उठी है।
एक मग में कॉफी डालकर हम दोनों पीते रहे हैं। आज तक कभी भी इस तरह का पल नहीं जिआ हूँ। शायद बिस्तर में पड़े-पड़े जो चाय या कॉफी मैंने अनगिनत बार पी थी – वो बेजान थी। अलाभकारी थी और एक दम सड़ियल। मग से उठती भाप हमारे मनों को गरमा रही है। हाथ मग से गरमी छीन लेने को चिपट जाते हैं और लंबे लमहों तक प्याले को थामे रहना चाहते हैं। होंठों से गरम कॉफी चूंस कर जब अंदर बहती है तो अमृत पान लगती है। भूख और रुची से जो भी खाया पिया जाए अमृत तुल्य होता है और ये भूख और रुचि पैदा करने के लिए इसी तरह के कुछ पल छिन पकड़े जा सकते हैं। पैदा भी किए जा सकते हैं और हर स्थिति में उगाए भी जा सकते हैं!
“अब क्या होगा?” मैंने सोफी से पूछा है।
“एक बृहत सम्मेलन!”
“किस लिए?”
“विश्व की समस्या समाधान हेतु!”
“वाह-वाह! क्या हिन्दी बोली है!” मैंने मजाक किया है। फिर हंसते-हंसते मैंने ही कहा है। “तुम्हें तो गीता पढ़नी चाहिए!”
“मुझे नहीं तुम्हें!” कहकर उसने पैनी उंगली मेरे सीने में चुभो दी है।
ये उंगली ठीक जैसे मेरी कमजोरी पर जा लगी है। लगा है सोफी मुझमें सिमटी हर कमजोरी जानती है। मैं झेंपा सा उसकी आंखों से गायब वो पल भर पहले का दृश्य खोज रहा हूँ।
“मुझे ..?” मैंने फिर पूछा है जैसे कोई मन की चोर ग्रंथी उगलना नहीं चाहता हो।
“हां-हां तुम्हें। निकालूं?”
“निकालो!” मैंने उत्तर दिया है।
पल भर में सोफी ने अपने रकसैक से गीता का गुटका खींच लिया है। लाल जिल्द में बंधा मोटा ताजा गुटका मुझे बाबा की मेज पर रामायण के साथ रक्खे गुटके की याद दिला गया है जिसे एक दिन मैंने उलट पलट कर देखा था और बाबा हंसते रहे थे।
“पढ़ाऊं?” सोफी ने पूछा है।
“पढ़ाओ!” मैंने हार स्वीकारते हुए कहा है।
सोफी ने धर्म क्षेत्रे कुरुक्षेत्रे इस तरह उच्चारण किया है जिस तरह मां किया करती थीं। वह दोष रहित रफ्तार और चातुर्य से पढ़ती चली गई है। मैं टुकुर-टुकुर उसका मुंह ताक रहा हूँ। एक शर्म में डूब जाना चाहता हूँ, भाग जाना चाहता हूँ और सोफी – जो मुझे मेरे ही पैंतरे पर पीट गई है, को अर्जुन का गांडीव चुरा कर धमका देना चाहता हूँ। लेकिन असहाय सा मैं सोफी को सुनता रहा हूँ।
“ये एक महान ग्रंथ है जो .. बताता है, संकेत करता है .. जो आज भी सच है और ..”
शायद बाबा ये सब जानते थे, मां को सब जबानी याद था फिर भी मुझे वंचित रक्खा, मुझसे घात किया क्यों? मुझे क्यों कॉन्वेंट में भेजा, क्यों मैं दूसरे धर्म और भाषा का ज्ञान अर्जित करता रहा और क्यों मैं अपना सब भूल गया! किसकी भूल है ये?
“मैं तुम्हें पढ़ाऊंगी गीता!”
“मैं खुद पढ़ूंगा!” थोड़ा नाराज होकर मैं उठा हूँ।
“कहां चले?”
“टेंट में। शायद कोई काम हो!” कह कर मैं चल पड़ा हूँ।
“फिर कब आओगे?” सोफी ने करुण कंठ से पूछा है।
मैं जानता हूँ कि मेरी इस नाराजगी से सोफी को दुख पहुंचेगा पर मैं भी तो वही दुख झेल रहा हूँ। मुझे भी तो उसी ने आहत किया है फिर मैं क्यों चूकूं?
“समय मिला तो आऊंगा!” कह कर मैं बेलाग आगे बढ़ा हूँ।
कॉफी का झूठा मग जमीन पर पड़ा बिलखता छोड़ चला हूँ। हम के शब्द को मैंने पैरों तले रौंद दिया है। जिए मोहक पलों के मोह को भी काट गया हूँ और अमर प्यार जैसी भारी बात को दुराते नहीं हिचका हूँ। एक दंभ मुझे उछाले है। कोई याद दिला रहा है कि मैं मर्द हूँ, समर्थ पुरुष हूँ फिर अपमान क्यों सहूँ? अज्ञानी सही – अजान तो नहीं जो गिरावट भी न महसूस कर पाऊं? खेमे तक का अंतर मैं कड़े मन से पार कर आया हूँ। हजारों बंधे रस्से मुझे पीछे खींच रहे हैं पर मैं नहीं पलटा हूँ। सोफी की याचना, करुण स्वर, पूर्ण समर्पण और विस्तृत ज्ञान भी मुझे रोक नहीं पाए हैं। लेकिन क्यों?
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड