तटस्थ रहने के प्रयास में मैंने हर बार उमड़ते अल्हाद को दबोच दिया है। मन ही मन एक गायत्री मंत्र जैसे उच्चारणों को दोहराता इन उपजती संगीन परिस्थितियों को परिवर्तित कर निष्प्रह रह सकने की इच्छा अभी भी मरी नहीं है। मैं अब कुछ बनने जा रहा हूँ। मेरा बचपन छंट गया है और अब मुझे एक प्रबुद्ध प्रौढ़ बन कर रहना होगा – और भी अन्य कितने ही वायदे हैं जो बार बार दोहराने पर भी कोई अर्थ संप्रेषित नहीं कर पा रहे हैं।
हम आज कॉफी हाउस से कट कर रंगीला में आ बैठे हैं। ये एक नया ठिकाना है। नए आदमी का है और एक नए आइडिए का आजन्म है। मेरी हर नए पन में आ मिलने की धारणा कुछ इस तरह प्रसन्न हो गई है कि मैं हर पुराने से चिढ़ने लगा हूँ। अकबर शाही पुरानी दीवारों से और दकियानूसी सड़ियल सी खंडहरों की कतारें, लंबे लंबे छपे मीनू कार्डस और घुटा घुटा सा बंद वातावरण मुझे लगता है जैसे परिस्थितियों से काट कर रख देता है। रंगीला तो रंगीला है। खुला है और यहां बाहर की हवा अंदर तक पहुंच कर बाहर निकल जाती है। यहां कोई घुटन नहीं होती।
“हैलो मिस्टर दलीप!” एक स्वर पतला और लयबद्ध मेरे कानों में उतरा है। जाना पहचाना है। मैं श्याम के चेहरे पर बिखर गई अरुण आभा देख पाया हूँ। श्याम आगंतुक के आगमन से कुछ तिलमिला कर रह गया है।
“आइए!” उसने स्वागत में अजीब सा अभिनय किया है।
“मुझे शीतल कहते हैं। मैं जानती हूँ – तुम मेरा नाम नहीं जानते!” उसने मुझे संबोधित किया है। मैं श्याम के चेहरे पर निराशाजनक भाव पढ़ गया हूँ। एक कालिमा सी उसके मन पर पुत गई है। मैं डर गया हूँ।
“जी .. आपको ..”
“हवाई जहाज में मिले थे न?”
“जी हां! जी हां!” मैं गिड़गिड़ाने की एक्टिंग करता रहा हूँ लेकिन मन में चिढ़ गया हूँ कि ये बला कहां से आ टपकी।
“बुरा तो नहीं लगा?”
“जी नहीं!” श्याम ने लपक कर जवाब दिया है।
मैंने श्याम को घूरा है। शीतल ने मुझे अजीब से कटाक्ष से देखा है तथा कहा है – बैड मैनर्स! पर श्याम अभी भी ढिठाई पर उतर आया है।
“प्लेन से उतरते वक्त आप का पता पूछना ही भूल गए।” श्याम ने असफल हंसने का प्रयत्न किया है। शीतल कट सी गई है।
शीतल शिफॉन की पार दर्शना साड़ी में सजी वजी मोहक लग रही है। भीनी सेंट की खुशबू आस पास में मादकता बखेर रही है। उसका ब्लाउज लो कट है और गला काफी से ज्यादा चौड़ा लगता है। उसके ऊपर वाला एक हुक खुला है और दूजा रंग के वक्ष उचक कर उसके गाल छू लेना चाहते हैं। मैं इस अशालीनता को कुछ अनैतिक सी निगाहों से घूरता रहा हूँ। एक कसैला सा भाव सीधा हो कर तन गया है। शरीर में एक अजीब सी गरमाहट भरने लगी है। शीतल ने मुझे पकड़ लिया है।
“आई एम सॉरी!” कहते हुए उसने ब्लाउज को संभाला है और लजा गई है।
“ये सारा एक रचना चक्र है, दलीप!” मन ने मुझे सचेत कर दिया है। यूं तो ये स्थिति मेरे लिए कोई नई नहीं है।
पता नहीं श्याम को क्या हो गया है। शीतल को इस तरह घूर रहा है जैसे कभी लड़की देखी ही न हो। मैं एक अजीबोगरीब ससोपंज में डूबा हूँ। शीतल मुझसे बात करने को लालायित है लेकिन श्याम शीतल को नहीं छोड़ना चाहता!
“शीतल – नाम है पर है तू निरी आग!” मैंने मन में सोच कर निश्वास छोड़ा है। शीतल की प्रतिक्रिया भी भिन्न नहीं है। उसने भी सोच लिया है कि मैं पछाड़ दिया गया हूँ।
“क्या मैं तुमसे अकेले में बात कर सकती हूँ?” उसने पूछा है। साथ में श्याम को कड़ी और दंडनीय निगाहों से घूरा है। श्याम फिर पिट गया है। बेचारा श्याम – मेरे मर्माहत मन ने सोचा है!
श्याम हमें अकेले में छोड़ कर बौखलाए ढंग से उठकर चला गया है। आज का उसका व्यवहार मुझे खल रहा है।
“मैं आपसे कुछ मांगने आई हूँ!” शीतल ने बिना किसी हिचक और गिड़गिड़ाहट के कहा है।
“याचना और इस तरह?”
कुछ खोट सा लगने लगा है मुझे इस सारी स्थिति में। शीतल ने मुझे परखा है। उसे शायद उम्मीद थी कि मैं उसकी मदद के लिए तत्परता से राजी हो जाऊंगा। जब उसे अपनी बात निरर्थक सी लगी तो खुद नाटकीय ढंग में गंभीर हो कर मुझे अपने अंदर भरे विषाद से जोड़ने लगी। मैं किसी जड़ वस्तु की तरह अक्रिय बैठा बैठा शीतल के सुडौल बदन की सराहना करता रहा और बार बार मेरा मन उसमें जा अटकता!
“दलीप! मैं एक विकट परिस्थिति में पड़ गई हूँ!” शीतल ने इस प्रकार कहा है जैसे मैं ही इस संकट का कारण हूँ।
मैं शीतल के इन तुम और दलीप के उच्चारणों से खुश नहीं हूँ और मन ही मन आज के समाज में व्याप्त निःसंकोच मान्यताएं नाप लेना चाहता हूँ। एकाएक मुझे लगता है कि मैं भी बाबा की तरह बूढ़ा हो गया हूँ। मैं अब भी निष्प्राण से भाव से शीतल को घूर रहा हूँ। अब भी किसी अज्ञात ऊब जिसका मुझे इंतजार है दृष्टिगोचर नहीं हो रही है।
“पिता जी का आपरेशन कराना है .. और ..”
मेजर कृपाल वर्मा