“अमेरिका में इस तरह नहीं चलता!” सोफी ने गंभीर स्वर में मुझे एक सफलता की चोटी पर पहुंचे राष्ट्र के जैसे गुप्त भेद बताए हैं।

“हिन्दुस्तान ने अमेरिका की तरह नहीं चलना!” मैंने बात काटी है।

“समृद्धिशाली बनने के लिए हर राष्ट्र को ..”

“एक लक्ष्य के लिए रास्ते भिन्न भी हो सकते हैं!”

“ये प्रजातंत्र ज्यादा नहीं चलेगा!”

“अगर कोई टिकाऊ और आशातीत सुख शांति का मार्ग है तो प्रजातंत्र ही है। सिर्फ एक बार लोगों में पूर्ण जाग्रति आ जाए तो बस ..”

“यही कम्यूनिज्म में बदल जाएगा!”

“नहीं। प्रजातंत्र में जो स्वतंत्रता का सम्मोहन है वो उसे रोक लेगा। जन कल्याण का इससे सुलभ तरीका और कोई नहीं है सोफी!”

“लेकिन मुझे तो असंभव लगता है कि लोग स्वयं अपने ऐश्वर्य का त्याग कर दें और जनता के साथ कतारों में आ खड़े हों!”

“मैं इसे संभव बनाने की चेष्टा में पहला कदम उठाऊंगा!”

“तो कोई ओर समेट कर बैठ जाएगा!”

“तो इसका भी कोई विकल्प सोचेंगे!”

“इस सोच ले में ही तो सब गड़बड़ हो जाती है दलीप!” वही लंबी निश्वास, वही परिताप और वही कटी कटी सी मन: स्थिति फिर आज सोफी को तड़पता छोड़ गई है।

“एक बार असफल होना किसी भी बात को सिद्ध नहीं करता!”

“एक बार विश्वास उठने के बाद दोबारा नहीं जमता!”

“पर कोशिश, हमारी प्रयत्न रत बुद्धि और अदम्य साहस आड़े आ जाएं तो ..”

“कहां से आएगा ये सब? ये असाधारण गुणवत्ता और ये अदम्य साहस ..”

“आखिर तुम कहना क्या चाहती हो?”

“मैं तुम्हें वर्जना चाहती हूँ, दलीप! भावुकता और विनयशीलता व्यापारियों के लिए घातक सिद्ध होती है। लोग धन दौलत पर जल्दी गिर जाते हैं। उनके वायदे और वास्ते वासना की आग में जल्दी सूख जाते हैं। चेहरे बदलते देर नहीं लगती दलीप!” एक आह जैसी निकली है सोफी के मन से। आज घुटन का अजस्र स्रोत किसी अदृश्य स्रोतास्विनी से बह कर गंदे और मनहूस कगार खा जाना चाहता है ताकि दूसरों को वही बाधाएं न खा जाएं!

सोफी ने जिस आत्मीयता से दलीप कहा है, इस लगाव और तादात्म्य से बातें कही हैं मेरे लिए सुखद अनुभूति बन गई हैं – मैं जानता हूँ। मैं नहीं चाहता कि हमारी विचारधाराएं टूट जाएं, यह महफिल उठ जाए और हम फिर अंजान और बेजान बन जाएं! ऊपर चढ़ते सूरज की तपती धूप की कोफ्त और खिंचते समय की लंबाई हमें एक किल्लत का आभास करा रही है। मैं सोफी के गम बांट लेने के लिए तत्पर हूँ, उसके अनुभव से लाभ उठाने के लिए राजी हूँ तथा एक ऐसा खुला खुला रिश्ता स्थापित कर लेना चाहता हूँ जिसमें घुटन छंट जाए, फसाद मिट जाए और मैं बहुत करीब से सोफी के मन में उतर जाऊं। अबूझे भाव हम दोनों के बीच बहते रहे हैं। सोफी ने चुप्पी को तराशा है।

“चलो! साए में चलते हैं!”

श्याम ठीक बारह बजे पहुंचा है। मैं खूब आक्रोश से भरा हूँ। दिल में निश्चय कर लिया है कि आज उसे खूब लताड़ूंगा। सोफी की बात अब भी मन में अवगुंजित हो रही है – चेहरे बदलते देर नहीं लगती दलीप! मैं श्याम के चेहरे को घूरता रहा हूँ। और फिर एक घिसा पिटा सवाल कर बैठा हूँ जो मुझे अब तक की पाई गरिमा से दूर हटा कर ले गया है।

“इत्ती देर क्यों की बे .. नमक ..”

“हॉल्ट! हॉल्ट! यही गलती मत कर देना!” श्याम ने मुझे रोक दिया है।

“अच्छा चल रोक दिया है। अब आगे बोल ..”

“देख यार! वो बानी और उसके दस यारों ने आज फिर घेर लिया था!”

“क्या ..?”

“हां! जबरदस्ती मुझे उस सड़ियल राज रेस्टोरेंट में खींच ले गए। उसके मन में तो मुझे दुम्मा बनाने की थी पर बानी ने कहा इसका क्या कसूर! सो छोड़ दिया!”

“फिर क्या हुआ?” मैं मारे रोष के कांपने लगा हूँ।

“फिर ये हुआ – उससे कह देना – झंडे उठा कर, जेल में जाकर और झुग्गियों में सड़ांध सूंघ कर अगर वो प्राइमिनिस्टर भी बन गया तब भी रहेगा तो साला भडुआ ही!”

“और ..?” मैं और भी उत्तेजित स्वर में बोला हूँ।

“और कहा है – तू उसे सचेत कर देना! साले के किसी दिन हाथ पांव तोड़ दिए जाएंगे!”

“और ..?”

“अपना बदला मैं स्वयं चुकाऊंगी – बानी ने कहा था!”

“चल! राज रेस्टोरेंट बोला ना? अभी चल। आज जो होना है सो हो जाए!”

“हां! अभी चलेंगे। पहले ठंडा पानी पिलवा यार।” श्याम हंस रहा है।

“नहीं बे! पानी बाद में ..”

“छोड़ यार! तू भी कोरा ..”

“मजाक छोड़ श्याम। तू डर रहा है क्या?”

“बे कौन डरता है इन गीदड़ों की औलादों से। मुझे तो तरस आता है कि साले अपना जीवन बर्बाद कर रहे हैं। आते आते बता आया हूँ कि नागपाल इन सब को समझ लेगा!”

“पर श्याम इसमें तो ..”

“कोई तौहीन नहीं मालिक! अब आप के पास इन सालों के लिए समय नहीं है। हां तो निकालो वो कागज ..” मांग की है श्याम ने और वो हंस पड़ा है।

मैं श्याम का बदला चेहरा देखता रहा हूँ। सोफी ठीक कहती है। मैं डर सा गया हूँ। एक झिझक भरने लगी है पर मैंने झटका कार कर कमजोर भावों से विरक्ति पा ली है।

“वो फाइल उठा ले!” मैंने गंभीर भाव में मेज पर रक्खी फाइल की ओर इशारा किया है। श्याम फाइल उठा लाया है।

“पढ़ ले!” कह कर मैं पास में पड़ी एक मैगजीन में ध्यान निमग्न हुआ कुछ तस्वीरें देख रहा हूँ। एक अजीब सा परितोष मुझे खाता रहा है। लेकिन आक्रोश शनै शनै उतरता रहा है। श्याम का गंभीर चेहरा जैसे फिर बदल गया हो। लगा है मैं स्वयं भी बदल रहा हूँ। ये बदलाव मुझे अच्छा लगने लगा है।

मेजर कृपाल वर्मा

Discover more from Praneta Publications Pvt. Ltd.

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading