मेरा विश्वास वापस लौट रहा है और मुझे लग रहा है कि मैं नए आयाम खोज निकालूंगा। मैं एक योजना बना दूंगा जो पुष्ट और सार गर्भित सिद्धांतों पर टिकी अपने आप में श्रेष्ठ और श्रेयस्कर होगी।
पता नहीं कहां से बानी ने आ कर मुझे घेर लिया है।
मैं इस कॉफी हाउस की ख्याति और उप देयता पर रुष्ट सा बानी की कसैली मुस्कुराहटों से जूझ कर आहत लौटा हूँ तो श्याम को निराश पाया है। उसने बिना पूछे कागज पेंसिल बड़ी होशियारी से अंदर की जेब में खोंस लिए हैं। हमारा जैसे प्रथम अध्याय चुक गया है और चोरी का माल श्याम ने अंदर दबा लिया है और अब खुले आम मैं मुकाबला करने के लिए तैयार हूँ!
“हैलो प्रिंस!” बानी ने बन कर और अपने जिस्म को एंठ कर इस तरह कहा है जैसे अल्प शब्दों में किसी चुभने वाली अनी की पैनी धार मेरी बगल में कूच दी हो।
“हैलो बानी!” मैंने प्रति उत्तर में धीमे स्वर और अवरुद्ध कंठ से कहा है। बे मन और बेमौके बानी से बात करना इतना खला है कि मैं स्वयं अपने स्थान चयन पर कुंठित हूँ और अपने आप को हजारों हजार गालियां दे कर कोसना चाहता हूँ।
“सुना है इनके साथ कोई नया ठिकाना खोला है?” बानी ने पता करना चाहा है।
“हां! अभी पूर्ण रूप से विकसित नहीं हुआ!” मैंने उत्तर दिया है।
मैं खीज कर बानी को अनाप-शनाप बकने ही जा रहा था कि अंदर से आत्म नियंत्रण की हूक सी उठी है और मुझे चुप्पी में बांध गई है। मैं फिर बानी को आहत, लावण्य हीन और बनावटी सज्जा में उसके थुपे पाउडर के पुट से सने क्लांत भावों से भावित चेहरे को पढ़ता रहा हूँ। “मैंने इसे कितना रौंदा है?” यह मैं दोहरा कर एक विजय गर्व का उत्तुंग पहाड़ खड़ा कर रहा हूँ।
“और क्या क्या धंधा अपना रहे हो?” बानी टलना नहीं चाहती। अभी तक उसने अपने होंठों की प्रतिक्रिया का प्रतिफल मेरे शरीर पर नहीं देखा है। वह मुझे आहत करके एक राक्षसी आनंद का अनुमोदन करना चाहती है।
“सोच रहा हूँ एक कबाड़ी खाना खोल दूं!” मैंने मलिन और गिरी बात को पैरो तले रौंदते धरातल से उठा कर मेज पर रख दिया है। बानी मेरी आंखों में समा गई है। वह पल भर मुझे तौलती रही है और अपनी औकात जब उसे छोटी पड़ती दिखाई दी है तो उठ कर चली गई है।
“तुम्हारी जरूरत पड़ी तो बुला लूंगा!” मैंने उसे सुना कर शांत स्वर में कहा है।
एक ठंडक मन पर छा गई है। पिछला प्रतिकार आज चुका पाया हूँ तो संतोष उपजा है। शायद बानी अब सामने न पड़े। लेकिन अचानक वह लौटी है और एक दम सामने खड़ी हो कर उसने कहा है – जरूर आऊंगी मडुए! और सुन अनुराधा के लिए भी जगह खाली रखना। अच्छा माल है और पुराने घर अभी भी दिल्ली में बसे हैं। और ये भी सुन – उस अमेरिकी कुतिया को पाल कर रखना – बड़ा मुनाफा कमाएगी! बे शर्म .. अपनी मां के यार .. आज के लिए बहुत है – फिर सही!”
बानी की ये नागिन जैसी फुफकार मुझे काला कर गई है। एक पश्चाताप में डूबा मैं उसे ललकार कर जवाब नहीं दे पाया हूँ। मेरी अंतर आत्मा ने मुझे कोसा है – तुम्हीं गिरे थे और आज फिर गिर गए! इस सार गर्भित मर्म को मैं हमेशा के लिए लील जाना चाहता हूँ। ओछी बात करके जो आज अपना थूका चाटना पड़ा है वास्तव में ही डूब मरने की बात है! मैंने श्याम को घूरा है। चुप चाप उठ कर मैं चल पड़ा हूँ। श्याम मेरे पीछे पीछे घिसटता चला आ रहा है। पर आज मैं अकेला रहना चाहता हूँ। हर स्थिति और हर भाव से अलग कट कर मैं एक नई संज्ञा में व्याप्त होना चाहता हूँ। अनमने से मैं श्याम से कहता हूँ – वो कागज मुझे दे दो और तुम जाओ। और हां कल सुबह दस बजे ही ..?”
घर पहुंच कर मैंने अपने आप को कमरे में बंद कर लिया है। मुझे जेल की वो कोठरी याद हो आई है जहां मैं दुनियादारी से कट गया था और एक अपार सुख वहां मेरे पास पहुंचा था। कोई भी विरोधी भाव वहां फटक न पाता था और मेरी आत्मा एक शुद्ध संज्ञा सी अगर बत्ती की खुशबू में सनी मुझे पूज्य वस्तु लगती थी। मैं आज उसी परिवेश को फिर से पा जाना चाहता हूँ।
मैंने अपना अध्ययन आरंभ किया है। कागजों का चिट्ठा ले कर और पेंसिल को हाथ में थाम मैं इस तरह संभल कर बैठा हूँ कि आज अपने जीवन का उद्देश्य निर्धारित करके ही रहूँगा! अब यों हर दिन दिशा हीन हो कर जीना अखरने लगा है।
मैंने कितना ही लिखा है, कितना ही फाड़कर फेंका है, न जाने कितना अंतर विरोध सहा है और कितने दुर्दमनीय और नीच विचारों का दमन किया है – ये मेरे चेहरे पर छपता जा रहा है। मैं एक प्रतिशोध की आग में पड़ा तिलमिला रहा हूँ, जल रहा हूँ, विफल होता जा रहा हूँ और मेरी कमियां मुझे प्रज्वलित आग से उठते फूलों की तरह चटक चटक कर छोड़ती जा रही हैं। आज लग रहा है कि मुझमें अपना बहुत कुछ है, जीने के लिए वह स्वयं भू प्रतिभा का सृजन करने के लिए मेरे पास अपार गुणों का खजाना है। मेरे विचारों में गरिमा है और एक महत्वाकांक्षा है जो मुझे गगन चुंबी चोटियों के उस पार खींच कर ही रहेगी।
रात के तीन बजे तक मैं अपनी योजना लिख पाया हूँ। एक बार पढ़ कर, एक दो बार काट कर नई घुसेड़ दी हैं जैसे कि मैं अभी भी अपूर्ण हूँ। सृष्टि अपूर्व है और परिवर्तन भी स्वाभाविक है! एक ठंडी सांस लेकर मैं कमरे की दीवारें नापता रहा हूँ।
“अब सो जाओ!” किसी ने कहा है। शायद इन्हीं आज्ञाओं को आज से मुझे मानना होगा – यही सोच कर मैं सोने का उपक्रम करने लगा हूँ।
सूरज की नुकीली किरणें परदों के सायों को भेद कर मुझे छू गई हैं। देह को हलकी सी गरमाहट देकर वो स्वर्णिम विहान का संदेश मुझे हर पल दे रही हैं ताकि मैं अपना ये दिन पूर्व निर्धारित विधि से जी जाऊं। सहसा मैं उछल कर बिस्तर में बैठ गया हूँ। मैंने चाय का इंतजार नहीं किया है। किसी नौकर को भी नहीं पुकारा है। अपनी चप्पलें खुद तलाश करके पहन ली हैं और फिर समय का मूल्य याद करके मैं झटपट तैयार होने लगा हूँ।
बाबा बाहर लॉन में बैठे हैं। उन्हें अखबार की प्रतीक्षा है और शायद शांत मन से कुदकती चिड़िया का क्रियाकलाप देखे जा रहे हैं। उन्होंने तो जैसे बहुत कुछ देखा है, जाना है, महसूसा है और अब ज्ञान के इस पारा वार में आकर खुश हैं और संतुष्ट हैं। मैं अब बाबा बन जाने की आकांक्षा से आहत हुआ हूँ।
“शुभ प्रभात बाबा!” कहकर मैंने बाबा के चरण स्पर्श किए हैं।
ये बात जो मां हर दिन जोर देकर मुझे सिखाती रही थीं उनके जाने के बाद मैं भूल गया था। बाबा ने कभी आपत्ति न की थी। वो तो कहते रहते – इनके मन में इज्जत होगी तभी तो इज्जत करेंगे! लेकिन मां लड़ जाती कहतीं आचरण सिखाना मां बाप का जिम्मा है! तब बाबा भी हंस जाते। आज भी वो तनिक हंस कर शांत हो गए हैं। मैं जानता हूँ कि उन्हें भी मेरी पूज्य मां याद आ गई हैं! उन्हीं की वजह से आज ये सब ठाट-बाट है। बाबा शायद मुझे सही सब पढ़ने को कह रहे हैं क्योंकि उन्हें आज मेरे बदलाव को समझते देर नहीं लगी है।
“बाबा! मैं आपके साथ अपनी योजना रख कर राय लेना चाहता हूँ!” मैंने अपनी झिझक की बेधक तकलीफ को सहते हुए कहा है।
“बोलो बोलो!” खुश होकर बाबा ने कुर्सी पर अपना पैंतरा बदला है ताकि मैं उन्हें अनभोर में परास्त न कर जाऊँ। ऐसे मौकों पर बाबा अपने अनुमान का इस्तेमाल करना नहीं भूलते!
“मैं सोचता हूँ कि एक मिल बेच कर कई मिलें खड़ी कर दूं। यानी बजाए चीनी के कॉसमैटिक्स की मिलें?” मैं फिर से अपनी झिझक से लड़ा हूँ और एक संघर्ष के साथ कह पाया हूँ!
मेजर कृपाल वर्मा