मैं उठा हूँ और एक ही सांस में, एक ही लंबी उछांट में सारी सीढ़ियां उतर गया हूँ। लंबी लंबी डगें मार कर मैं बाहर आ गया हूँ। कई जलते बुझते चेहरे देख कर भी मैं अपनी लगाम मोड़ नहीं पाया हूँ। मुझे कोई भय नहीं है। एक मन का विकार है और एक चाह सी है जो मुझे यहां खींच लाई है।
“मैं बताता हूँ कि आप लोगों को क्या मिलेगा!” भीड़ को संबोधित किया है मैंने।
बाबा मेरे पीछे आने वाले ही थे लेकिन त्यागी ने उन्हें रोक लिया है। मैनेजर एक कदम आगे लेकर फिर एक कदम वापस लेकर अपनी जगह जाकर खड़ा हो गया है। सभी मुझे आश्चर्य चकित निगाहों से तोल रहे हैं!
“पैसा जो मिलना था वो तय हो गया है। अब रहा काम – उसका आदेश भी तुम्हें दे दिया गया है।”
“क्या तय हुआ है?”
“वही जो होता आया है! आधा त्यागी का – जो आप लोगों का ही सेवक है और आधे में से दो टुकड़े इन छुटभैया कार्यकर्ताओं को जो यूनियन का कार्यभार संभालते हैं। इन्हें तो मिल गया अब तुम घर जाओ!”
“हम जान दे देंगे! यहां लाशें पड़ी रह जाएंगी! हम त्यागी से बदला लेंगे! मारो .. मारो साले को! मारो इस हरामजादे को!”
एक विध्वंस और उत्पात की आंधी सी उठ चली है। पत्थर, ईंट, मिट्टी और लाठियां सभी का प्रहार मिल की देह पर होने लगा है। सभी अधिकारी छुप छुपा गए हैं। त्यागी भी नजर नहीं आ रहा है। मैं शेर की तरह भीड़ के बीचो बीच खड़ा हूँ। दो चार हमउम्र छोकरे आकर मुझसे बतियाने लगे हैं।
“भाई साहब! आप तो सेठ जी के सुपुत्र हैं न?”
“हां भाई!”
“फिर आप क्यों खिलाफत कर रहे हैं?”
“आप लोगों के लिए!”
“ओह तो नई संतान की पहली निशानी हैं आप – हमारी तरह!”
“कुछ भी कह लो पर ..” मैं रुक गया हूँ। ज्यादा बात करना मैंने उचित नहीं समझा है। मैं जानता हूँ कि ये लोग भी मुझपर आसानी से विश्वास नहीं करेंगे।
वर्करों में उत्साह है। मिल को तोड़ कर अब ये अपनी दो जून की रोटी भी गंवा देंगे। सेठ जी के पास मिलों की कमी नहीं है। मैं एक विफल सा प्रयत्न कर रहा हूँ। मेरी चीख पुकार का कुछ असर हुआ है। हवा में धूल मिट्टी का एक गुब्बारा सा छा गया है। इस गुब्बारे के पीछे से वही हृष्ट-पुष्ट आदमी उभरा है और अब मेरी ओर बढ़ रहा है। मैं उससे मिलना भी चाहता था। मजदूरों तक पहुंचने के लिए मुझे कोई माध्यम जरूर चाहिए। यूं अकेला बीच का अंतर भेद कर मैं उनके मनों पर काबू नहीं पा सकता। वो शायद मुझ पर कभी भी विश्वास नहीं करेंगे क्यों कि आज हम सभी अविश्वास के दल दल में कमर तक धंस चुके हैं। आत्मीयता खो चुके हैं हम और स्वार्थपरता ही हमारा उद्देश्य बन चुकी है।
“गजब कर दिया तुमने दलीप साहब!” उस व्यक्ति ने मुझे मेरी गलती जताना चाहा है।
“और आप ने कुछ नहीं किया?”
“मैंने ..? ये बात आप सेठ जी से पूछते तो शायद ..”
“बहुत एहसान कर चुके हो उनके साथ?”
“जी ..! समझ लो कि ..”
“और इन अपनों के साथ जो गद्दारी करते हो वो?”
“इसमें गद्दारी-वद्दारी कुछ नहीं – ये तो राज नीति है!”
“इस राजनीति की शिक्षा तुमने त्यागी से ली है न?”
“जी .. शिक्षा-विक्षा क्या अपुन तो अनपढ़ हैं और ..”
“और त्यागी जी भी अनपढ़ हैं?”
“अजी साहब! पढ़ाई लिखाई का आज क्या उठता है? आज तो बहुमत चाहिए – बहुमत!”
“हूँ ..!” मैं उसे अब गौर से परख रहा हूँ।
“राज नीति के इस परिवेश में क्या क्या नहीं पनप रहा है आज!” मैं विचारे जा रहा हूँ। “नैतिकता, चरित्र और परित्याग की भावनाएं एक दम मर गई हैं।”
“आप कौन सी पार्टी के हैं?” उसी व्यक्ति ने हंस कर पूछा है।
“क्यों ..?”
“आप के साथ मैं भी जोइन कर लूंगा!”
“लेकिन .. जो पार्टी ..”
“ये सब अस्थाई वस्तुएं हैं। मेरा तो सिद्धांत एक है – जहां जीत है वहीं जीत है!”
“ओह तो आपका नाम जीत है?”
“जी हां!” जीत तनिक और खुला है।
“तो सुनो जीत! मेरी पार्टी का नाम है – सर्वहारा! यानि कि परित्याग करने वालों की पार्टी!”
“तो मैं आज से आपका नौकर रहा!”
“क्या हार कर?”
“हार कर .. मतलब ..?”
“ईमान हारना अयोग्यता सिद्ध होता है मिस्टर जीत!” मैंने उसपर सीधा वार किया है।
“तो और मेरे पास हारने को है क्या?”
“लेकिन जीत जी जीने के लिए तो होगा कुछ?”
“हां है तो लेकिन ..”
“अपने आप को जीतिए पहले! अपनी कमजोरियों से लड़ जाइए और अपना ईमान संभाल लो! समझे कुछ?”
“हां! समझा ..? कहता हुआ जीत चला जा रहा है। जाते जाते वह एक चुनौती जैसा कुछ मेरे लिए छोड़ गया है।
“किस किस को बताओगे ये सारी बातें दलीप? आज तुम्हारी इस भाषा के अर्थ कोई नहीं समझता! सभी आपा-धापी में निर्लिप्त से चारित्रिक संज्ञाएं भुला बैठे हैं!”
“आप लोगों को भत्ता मिलेगा, बोनस मिलेगा और जो कुछ ज्यादा से ज्यादा बन पड़ेगा मिलेगा – ये मेरा वायदा रहा! लेकिन मेरी एक मांग है बस ..”
“पहले हमारी शर्तें पूरी होनी चाहिए!” किसी ने मांग की है।
“होंगी, जरूर होंगी! मेरे भाई, गम खाना भी कोई चीज होती है! आप लोग शांति रखिए। काम पर आइए। और मुझे दो दिन का समय दे दीजिए!”
“मंजूर है!” एक स्वर में समूची भीड़ ने वायदा किया है जिसके लिए अगर जरूरत पड़ी तो मैं किसी को भी जिम्मेदार नहीं ठहरा सकता। पर ये वायदा मुझे उस अकेले जीत के आश्वासनों से भला लगा है। हजारों मनों की गरम भाप निकल कर खुली हवा में मिल गई है – मैंने महसूसा है!
कहते हैं – शांति अविभाज्य है! रहने के लिए आवश्यक परिवेश और जीने के लिए अमरौती चाहिए। फिर भी ये अशांति की लहरें क्यों उठती हैं? एक दूसरे का खून चूंस कर जो क्षणिक सुख मिलता है क्या वो स्थाई है? अगर नहीं तो हम इस नकली परिधान से बाहर आ कर खड़े क्यों नहीं हो जाते? सब एक साथ मिल कर अपनी कमजोरियां महसूस लें और कंधे से कंधा मिला कर उन्नत पथों पर अग्रसर हो जाएं – तो क्या मुश्किल है? शायद मंजिल न मिले क्योंकि आज का समाज वर्गीकृत है! श्रम शक्तियां बंटी हुई भटक रही हैं और हम सामंजस्य तथा एकात्मता का वातावरण पैदा करने में विफल हो रहे हैं। नहीं तो ये हड़ताल ओर उपद्रव होते ही नहीं! समाज में अगर विषमता कम हो जाए और शिक्षा का स्तर बढ़ जाए तो समस्या हल हो जाएगी!

मेजर कृपाल वर्मा