घर में एक खुशी की लहर दौड़ गई है। बाबा ने अनुराधा से भी ज्यादा रॉनी और टॉनी को दुलारा है, चूमा है, ऊपर से नीचे तक बार बार निरखा परखा है और दोनों को आगोश में लेकर खूब कलेजा ठंडा किया है। दोनों बच्चे थोड़े से आश्चर्य चकित होकर अपने बूढ़े नाना को परखते रहे हैं और फिर उनके प्यार और दुलार के सामने जबान तक नहीं खोल पाए हैं!
बाबा आराम कुर्सी पर आराम से पड़ गए हैं ओर अनुराधा उनके पास बैठ कर मुनक मुनक बातों के मूंगे पिरोए जा रही है। मैं जानता हूं कि वह बाबा से कुछ भी नहीं छिपाती – ठीक उसी तरह जिस तरह मैं मां से कुछ भी नहीं छिपा पाता था। सहसा वही अभाव मुझ पर हावी हो गया है। अनुराधा से हुई वही बचपन की ईर्ष्या फिर जाग उठी है। मैं अब बिलकुल अकेला हूँ लेकिन अनुराधा के विभक्त हुए अंग और आत्माएं उसके गिर्द घूम रहे हैं और वह एक स्वार्थी की तरह सब कुछ समेटे बैठी है जबकि मैं गंवारों की तरह सब कुछ गंवा बैठा हूँ।
सोफी अभी भी अपने कमरे में है। अभी तक हम अजनबी हैं और मेरी पस्त हिम्मत मुझे आगे बढ़ने नहीं दे रही है। अपाहज सा मैं अपना ही घर दुबारा देखने लगा हूं, परखने लगा हूँ और अब विश्लेषण कर रहा हूँ कि इतना बड़ा ये प्रासाद और बाबा के सिर्फ दो बच्चे? कुल मिला कर इक्कीस कमरे, गार्डन और स्वीमिंग पूल। फिर साथ में बैडमिंटन कोर्ट, टैनिस कोर्ट और पता नहीं और क्या क्या साज सामान भरा पड़ा है। बाबा ने ये गढ़ क्यों खड़ा किया है – मैं अब जानने की चेष्टा कर रहा हूँ।
आज मन गहन विषयों से ऊब कर रंगरलियों के पीछे दौड़ने लगा है। आगे आगे सोफी है और पीछे पीछे मैं एक दौड़ में शामिल हैं, जिसमें सोफी को पकड़ पाना संभव नहीं हो पा रहा है। हिम्मत करके और अपने सारे अभिमान और गरिमा को जोड़े मैं सोफी के कमरे की ओर चल पड़ा हूँ। एक झिझक है जो अभी भी मुझे पीछे धकेल देना चाहती है। लेकिन मैंने हिम्मत बटोर कर कॉल बैल बजा दी है।
“यस! कम इन!” अंदर से सोफी ने अनुमति दे दी है।
मैं बेधड़क कमरे के अंदर चला गया हूँ। सोफी नहा कर बिस्तर पर आराम कर रही है और साथ में एक मैगजीन पढ़ती जा रही है। मुझे आया देख कर उसने कोई भी और कैसी भी प्रतिक्रिया नहीं दिखाई है और एक सूखा सा आग्रह किया है – बैठिए!
मैं उस पड़ी आराम कुर्सी पर बैठ गया हूँ। मैंने कमरे को चारों ओर से घूरा है। वहां की हर वस्तु जानी मानी लगी है और निगाहें लौट कर सोफी पर आ टिकी हैं। मैं एक पल के लिए देखता ही रहा हूँ। अभी अभी ये बदन सोफी ने भिगोया होगा, तौलिए से घिसा होगा और मसला भी होगा! तो ..? बदन पर न कोई खरोंच न कोई अंग घिस कर छोटा बड़ा हुआ है। एक उमंग सी में लिपटी सोफी शांत है। अगर कोई भाव और भंगिमा तारी भी होगी तो सोफी उसे छुपा रही है। सोफी अपनी भावनाएं दबाने में प्रवीण लगती है। मुझे अपनी ओर घूरते देख कर अपनी आंखें मैगजीन में गढ़ा दी हैं।
“क्या पढ़ रही हैं?” मैंने हिम्मत करके पूछ ही लिया है।
“एक आर्टिकल है!”
“क्या लिखा है?”
“लिखा है – अमेरिका अपने चरमोत्कर्ष पर है और अब आगे ..”
“ये तो सच है!”
“क्या सच है? क्या सबूत है ..?”
“ब्रिटेन को ले लो, अब कहां है?” मैंने भी चोट पर चोट दे मारी है।
सोफी मुझे घूरती रही है। उसकी आंखों में एक आग है जिसे मैं पहली बाद देख पा रहा हूं। लगा है, मैं ही कोई आर्य पुत्र हूँ और अमेरिका जैसे संपन्न राष्ट्र की जड़ें खोदता पकड़ा गया हूँ। अब सोफी को दुख पहुंचा कर मुझे भी दुख हो रहा है। मैं बात चीत बदल देने की मंशा से बोला हूं।
“पिक्चर चलना है?”
“मुझे ज्यादा पिक्चर देखने का शौक नहीं है!”
“तो किसका शौक है?”
“पढ़ाई लिखाई का!”
“घूमने-घामने में मन नहीं लगता?”
“लगता तो है – पर घूमने भी हमेशा किसी उद्देश्य को लेकर निकलती हूं।”
“मतलब ..?”
“मतलब ये – माई डियर कि बिना काम के समय नष्ट करना मुझे बुरा लगता है!”
लगा है सोफी ने मेरे नाकारा इतिहास को दुत्कारा है। और यहां काम वो करे जिसके पास पैसा न हो, घर न हो, जायदाद न हो और जो करोड़ों का मालिक होकर काम करे उसे तो लोग क्रेक या सनकी ही कहते हैं। सहसा मुझे अपने ही व्यंग पर झेंप चढ़ने लगती है – कि अमेरिका में लोग रात दिन काम करते हैं। अगर वो काम न करते तो शायद उनका देश भी उन्नतिशील न होता, समृद्ध न बन पाता और न हम लोग उन से पीछे छूट पाते!
“हिन्दुस्तान आने का भी कोई ..”
“हां! मैं यहां रिसर्च करने आई हूँ!”
“यहां! यहां कौन सी रिसर्च? यहां क्या धरा है?” आश्चर्य चकित हुआ मैं पूछ बैठा हूँ।
“यहां तो बहुत कुछ है!” कहकर सोफी मुसकुरा गई है। एक अबोध बालक की तरह मैं भी उसके साथ दांत दिखा कर हंस पड़ा हूं। लगा है – सोफी मुझसे बहुत आगे है।
“कहीं तेल की रिसर्च तो नहीं करनी?” मैंने स्वभावतः मजाक किया है।
“नहीं नहीं! मैं और तेल की रिसर्च?”
“क्यों ..? अमेरिका तो ..”
“मिस्टर दलीप! आप वास्तव में ही बड़े दिलचस्प हैं!”
“और आप भी! न कोई शौक .. न कोई व्यसन! केवल काम का ही पीछा कर रही हैं!”
“तो और किसका पीछा करूं?”
सोफी ने बड़े ही सरल स्वभाव में प्रश्न पूछ लिया है। अब मेरी जबान भी अटक जाती है। मैं सोच कर भी सोफी से नहीं कह पा रहा हूँ कि – मेरा पीछा करो!
“सुख, शांति, आनंद, तफरी और घूमना फिरना – कितनी ही तो बातें हैं जिनका पीछा किया जा सकता है।”
“ये सब काम के ही तो हिस्से पुर्जे हैं!”
सोफी के इस उत्तर पर मैं निरुत्तर हो गया हूँ। मुझे सोफी सफेद सफेद पत्थरों से बना एक गढ़ लगी है जिसके चारों ओर कोई दरवाजा खुलता ही नहीं है! किसी शिल्पी को इसे तराशते वक्त नींद आ गई होगी और भूल से एक दरवाजा न छेक पाया होगा! ज्ञान और विज्ञान में लिपटी बातों में सुलझी हुई और खुली खुली सोफी एक खुला सा पन्ना है जिसे हर कोई पढ़ नहीं सकता। मेरा समूचा व्यक्तित्व उसके इस भूरे गढ़ पर चोटें मार मार कर विफल हुआ है और अब अपनी कमजोरियां गिन रहा है। मेरा छिन्न भिन्न होता दंभ मुझे अब नंगा छोड़ देना चाहता है। एक अनजान सी वितृष्णा मेरे मन में भरती आ रही है। आज तक के किए इन उपायों का मूल्यांकन मैं नहीं करना चाहता। तभी इसी पसोपेश में सोफी ने मुझे रंगे हाथों पकड़ लिया है।
“आप क्या काम करते हैं?” नजरें मुझ पर गढ़ाए गढ़ाए उसने लेटे लेटे ही मुझसे पूछ लिया है। सोफी की आंखों की गहराई मुझे कोई अंध कूप लगी है। मेरा शरीर सुन्न सा पड़ गया है और मेरा गला रुंध गया है।
शर्म ने मुझ पर चढ़ कर सोफी के सामने शर्मसार कर दिया है।
मेजर कृपाल वर्मा