मुझे एयरपोर्ट अनुराधा को लेने जाना है – ये कोई नई बात नहीं है। लेकिन एक नयापन है कि एक नई लड़की आ रही है। इसलिए मैंने आज खास तौर पर चुनकर कपड़े पहने हैं। हो सकता है वो मेरे ही जीवन में आ रही हो, मेरे लिए ही आ रही हो और .. मैं उसके लिए ही बना हूँ!
ये मैं मेरी और प्यार प्रलाप कुछ इस तरह की संज्ञाएं हैं कि मैं इनमें किसी भी तरह के कर्तव्य के औजार से छेद नहीं कर पाया हूँ। जुड़ा नहीं हूँ ओर न ही मैं पृथक हो कर जीना चाहता हूँ। मैं एक खोज में लगा हूँ। धुन बांध कर, कल्पना के आकार नाप और चित्र खींच कर उन्हें सजीव बना लेना चाहता हूँ। मैं इस धरोहर के लिए अत्यंत संघर्ष करूंगा – मेरी एक धारणा बन गई है। अब कौन जाने कि सोफी इसका उत्तर होगी भी या नहीं? पर मैं तो खुश हूँ।
“दाना डालना है न सरकार?” मजाक में ही श्याम काम की बात कर गया है।
“हां बे! देख! संभल कर अपनी ये पैनी जबान खोलना। वरना ..?
“पागल नहीं हूं, बे!”
“अबे पागल तो आदमी हो जाता है। रूह का तिलिस्म सबसे बड़ा जादू होता है, मेरे यार! एक बार जो बिंध गया – सो गया!”
“मैंने तो गुलामी का कवच पहले ही पहन लिया है। अब मुझ पर तो असर होगा नहीं!”
“बहुत अच्छे मेरे गुलाम!”
“धन्यवाद मेरे आका, मेरे अप्पा यानी कि मेरे मालिक!” श्याम ने सिनेमा के पात्र श्याम का ही अभिनय दोहराया है।
हम दोनों खूब हंसे हैं। यही खुशी और सुखद स्थितियां मुझे अब असह्य सी लगने लगी हैं और जब कभी मैं इन्हें पकड़ पाता हूँ तो छोड़ने को जी ही नहीं करता। मन कहता है – हंसता ही जा दलीप क्या पता कब पासा पलट जाए! इसीलिए मैं खूब हंसना चाहता हूँ क्योंकि सोफी को मैंने अभी तक नहीं देखा है। और देखने के बाद जो कुछ उपजेगा वो विपरीत भी तो हो सकता है।
हमारी घड़ियों की सूइयां सुस्त चल रही हैं और कड़ी धूप की सेक से अंतर में उगी भावनाएं भाप बन कर उड़ी जा रही हैं। पालम पर रौनक की कमी नहीं है। हवाई जहाजों की उड़ानों की संख्या जानना भी दुसाध्य है तथा किसी के सुंदर चेहरे को घूरना असभ्यता है। मेरी रीति रीति निगाहें दीवारों पर टंगी पेंटिंग, उनपर छपे कुछ खजुराहो के चित्र और सीलिंग के आकर्षक रंगों से भी न लिपट पाई है न टिक पाई है। कुछ लोग जल्दी में हैं तो कुछ इंतजार में और कुछ काम के व्यस्त पलों से गुजर रहे हैं। हम सब अब एक नहीं हैं। भिन्न भिन्न इकाइयों की तरह जुदा हैं और हम सब पर वाह्य शक्तियां खिंचाव डाल रही हैं जिसकी वजह से हम भाग रहे हैं। और अब हवाई जहाज भी रनवे पर भाग रहा है। मेरे अरमान भी उसके साथ भाग रहे हैं। मन में एक डर भर गया है। कल्पना पानी के चेहरे पर पड़ी छींट सी हिलकर घुल मिल गई है। आकाश पर अब भी एक धुआं सा घुटा है। मेरी आंखें अब और कुछ देखना नहीं चाहतीं। एक अज्ञात साक्षात में बदल जाना चाहता है। मेरी चाह मरेगी या जीएगी मैं नहीं जानता और इसी कारण मैं डर रहा हूँ। जहाज की गति में ह्रास हुआ है पर मेरे मन की गति थम नहीं पाई है। धड़कन तेज हो गई है और मेरी आशा निराशा के अश्व रनवे पर टपर टपर दौड़े चले जा रहे हैं। कितना लंबा है ये रनवे – मैं सोचे जा रहा हूँ।
हवाई जहाज अब चल कर समीप आ गया है। अब मुझे बुरा लग रहा है। श्याम ने मुझे घूरा है। मेरी बांह मसक कर उसने कहा है – दिल को संभालो दिल वालों!
ये शब्द मुझे अपने और सोफी के संदर्भ में भद्दे और अश्लील लगे हैं। मैं उससे क्या कहूंगा – मैं अभी तक निर्णय नहीं कर पाया हूँ। सोचता हूँ ये प्रणय की भाषा कभी जबान पर चढ़ती ही नहीं, शब्दों में ढलती ही नहीं और न ये गाई-बजाई जा सकती है। हां एक मूक धुन में हाव-भाव चेहरे से उठ कर आंखों में समा गए हैं और इस नयनाभिराम में वो शक्ति है जो सब कुछ लमहों में कह जाती है। तो फिर देखकर फैसला स्वयं हो जाएगा – मैंने अपने मन को पक्का कर लिया है और जबान पर ताला डाल दिया है ताकि शब्द कहीं फिसल न जाएं!
भीड़ को चीरता मैं आगे बढ़ा हूँ। श्याम मेरे पीछे पीछे घिसटता चला आ रहा है। अनुराधा, उसके दोनों बच्चे और सोफी सामने से चले आ रहे हैं। अनुराधा मुझे पहचान गई है और उसने कंधे से टहोक कर सोफी को भी जताया है। श्याम सारी स्थिति समझ गया है।
“हैलो अनु!” कहकर मैंने अनुराधा को बांहों में भर लिया है।
मात्र एक पल के लिए भाई बहन का प्यार उबल कर शांत हो गया है और मेरी निगाहें सोफी के कोरे रूप से फूटते उजास में जा भिड़ी हैं। अनुराधा के कंधे से मैं सोफी को बहुत निकट से देख पा रहा हूँ। ये सामीप्य अब भी बीच में अनाम दूरियां बखेरे है और अलगाव का कसाव मन में मरोड़े मार रहा है।
मोम से बना स्निग्ध शरीर और सुंदर शिल्प पर चढ़े नए नए तेवर मुझे अंदर तक तराश गए हैं। आंखों में जो तारल्य है, अंगों में भरे लावण्य से कभी भी लड़ पड़ेगा और घर्षण से जो विद्युत ज्योति उपजेगी वो किसी भी पुरुष के दंभ को दंश कर देगी। हवा में फर फर करती केश राशि एक मोह पाश लग रहा है जिसका विस्तार देखने में जितना छोटा है, प्रभावित करने में उसका कई गुना ज्यादा है। चेहरा एक सहज मुसकान से और भी खिल उठा है। कलाई पर बंधी छोटी सी घड़ी किसी की दी हुई शपथ जैसी लग रही है और साधारण से कपड़ों में लिपटी सोफी मुझे तप करती कोई साध्वी लगी है। कोई कैसा भी बनाव श्रंगार या होंठों पर गहरे रचाव आदि का नाम निशान तक नहीं है। हर अंग स्वाभाविक रूप से विस्तार पा गया है। हां अक्षत यौवना सोफी के उभार एक अजीब सम्मोहन का निमंत्रण तो अवश्य दे जाते हैं पर साथ में उन्हें जीत कर पा लेने की शर्त हर किसी को अनुत्तरित कर देती है। उसकी चितवन से लेकर आत्मा तक फैले प्रसारों में जो निशब्दता भरी है किसी व्यर्थता से आहत न होकर नए आयाम खोजने का उपक्रम लगती है। सोफी की खोज में निकली मेरी निगाह जब मुझसे ही टकराई है तो अनुराधा बीच में आ गई है।
“ये है दलीप और दलीप ये है सोफी!”
बीच की रिक्तता एक पल के लिए भर सी गई है और स्थिति का कुँवारपन जाता रहा है। मुझे उम्मीद हुई है कि सोफी का तन मन अब परछाइयां खोल कर ओस चाटने के लिए अपनी जीभ पसार देगा। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है। सोफी ने मोहक उष्णता के साथ ही हाथ आगे बढ़ा कर कहा है – हैलो दलीप!
इस वाक्य से कुछ भी जाहिर नहीं हो पाया है। एक औपचारिकता ने मुझे घेर लिया है। पता नहीं कहां से एक सभ्यता का टुकड़ा टूट कर मुझसे आ जुड़ा है। अब मैं एक परिधि में बंध गया हूँ। मैं पीछे हट गया हूँ और मेरी बेरोकटोक आगे बढ़ने की उमंग एक झिजक में बदल गई है। वह वर्तमान जिसे में एक पल पहले जी रहा था अब भविष्य में बिखर गई आशा जैसा लगने लगा है। मैं और सोफी दूर दूर खिंच कर एक शून्य पर जा बैठे हैं। मन में जो आद्रता थी, जो छटपटाती उमस थी और जो आत्मीयता अनभोर में ही उपज आई थी अब भाप बन कर कुहासे से जा मिली है। मैं अब तक सोफी के औपचारिक प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाया हूँ क्योंकि मैं कोई अतिरिक्त विकल्प सोच लेना चाहता हूँ ताकि सोफी की चलाई चोट बचा जाऊं। प्यार और प्रणय की बात तो चटक सी गई है।
“हैलो सोफी!” मैंने भी बेबाक ढंग से कहा है और सोफी से हाथ मिला लिया है।
यों हाथ मिलाने की इस प्रथा पर मैं आज मुग्ध हो गया हूँ।
मैं खुश हूं कि सोफी के अंग का स्पर्श तो मैं कर ही पाया हूँ। मुझे सोफी का हाथ सुखद लगने के साथ साथ एक अधिकार सा भी लगा है जिसे पाकर मैं कभी छोड़ने को राजी न हूंगा। शायद सोफी हमारी इस प्रथा से अवगत नहीं है। मैंने एक संकल्प दोहराया है – गर्वोन्नत सोफी तुझे एक दिन मेरे सामने नतमस्तक होना ही पड़ेगा!
रॉनी और टॉनी अभी तक मेरे इंतजार में खड़े मुझे घूर रहे हैं। लगा है – सोफी के साथ में एक पूरा कल्प जी गया हूँ और रॉनी और टॉनी खड़े खड़े वयोवृद्ध होकर मेरी मूर्खता पर हंस रहे हैं।
“ऐ! हैलो बोथ ऑफ यू!” कहकर मैंने दोनों को एक साथ आगोश में भर लिया है। मेरा अब तक का सिमटता प्यार और दुलार रास्ता पा कर बह चला है!
अनुराधा के दोनों बेटे बहुत सुंदर तथा बातून हैं।
हमें देख कर सोफी हंस पड़ी है!
मेजर कृपाल वर्मा