उद्विग्न मन ने उसी समय नाश्ता को मेज पर ही पूछ लिया है – कब तक उधार का खाओगे प्रिंस?

सच भी है। आज नाश्ता में कोई स्वाद नहीं, कोई गंध नहीं, कोई अधिकार नहीं और न वो झटपट नाश्ता निगल जाने की उत्सुकता मुझमें बची है। खानसामा मेरा सूना सूना मुंह ताके जा रहा है कि अब मैं उसकी तारीफ करूंगा – क्या गजब का ऑमलेट बनाते हो काका। पर मैं कुछ भी नहीं बोला हूँ। पहली बार मैं बगावत करने पर उतर आया हूँ।

“बाबा से कहना कि मैं चला गया हूँ।”

मैंने खानसामा को टूक सा एक वाक्य पकड़ा दिया है। वह खड़ा खड़ा मेरा मुंह ताकता रहा है। मेरे कदम आगे बढ़ रहे हैं। कुछ विश्वास है, कुछ तेजी है ओर कुछ करने की उमंग है जो मुझे लेकर उड़ जाना चाहती है। मैंने खड़ी कार की ओर देखा तक नहीं है। ड्राइवर की आंखों में अनदेखी उत्सुकता और आते जाते प्रश्नों की परवाह न करके मैं आगे बढ़ गया हूँ। मेरी अपनी कमजोरी – जो थी भी और नहीं भी आज घर में सब को बता गई है कि वास्तव में मैं कमजोर नहीं हूँ, डरपोक नहीं हूँ, बाबा के इशारों पर नाचने वाला दलीप न होकर एक बिगड़ा और आवारा छोकरा हूँ। यही तो आजकल के सभी बुजुर्गों का मत है।

टैक्सी लेकर मैं श्याम के पास पहुंच गया हूँ। श्याम ने देखते ही मेरे चेहरे पर कुछ पढ़ा है। उसे तनिक शंका हुई है कि मैं इतना जल्दी क्यों चला आया हूँ।

“आजा बे! बस मैं तेरे बारे में ही सोच रहा था।”

“क्या?” मैंने तनिक गंभीर स्वर में पूछा है।

“पहले तो तेरी उम्र सौ साल से ज्यादा होनी चाहिए!”

“अब दूसरी बात भी बको!” खिन्न हो कर मैं बोला हूँ। शायद लंबी उम्र की दी हुई दुआ मुझे चिढ़ा गई है। सोच रहा हूँ – क्यों जिया जाए? किसके लिए जिया जाए?

“दूसरी बात से पहले पहली बात का विस्तार – जीना क्यों नहीं चाहते?”

“बंधनों में जीना, धन कमाने के लिए जीना, रोटी खाने के लिए जीना और जीने के बहाने जीना – ये कोई जीना है क्या?” मेरी आवाज में अजीब सा तीखापन है। मेरे कान कह रहे हैं कि मैं अपने मन के सच्चे उद्गार बहने दे रहा हूँ।

“नशा अभी तक नहीं उतरा?”

“वो तो करने के बाद ही उतर गया था।”

“देखो दलीप! ये नशा पत्ता बुरी बला है!”

“जानता हूँ बे! मैं तेरे कैपसूल खाने नहीं आया!”

“तो .. फिर ..?”

“तेरे साथ रहने चला आया हूँ।”

“तू बक क्या रहा है? मैं रात भर तुझमें सहारा खोजता रहा हूँ और सुबह होते तू मुझ पर आ लदा? ये क्या मजाक है बे!”

“मजाक नहीं श्याम सच्चाई है। अब मैं भी स्वयं जीना सीखूंगा!”

“सीख ले। भुखमरी का पहला सबक तो अभी से आरम्भ समझ। ले ले जा दस का नोट ओर खोज ला मिट्टी का तेल। प्यारे पैसे से जहर भी नहीं मिल रहा है।”

“और ये जो नशेड़ियों का धंधा चल रहा है?”

“ये .. ये ..? ये तो दूसरी कहानी है।”

“मिट्टी के तेल की भी सोर्स है। ला बोतल। लाता हूँ मिट्टी का तेल!”

मैं और श्याम चल पड़े हैं। पैदल चलने में मजा आ रहा है। स्वयं काम करने में मेरा उत्साह बढ़ रहा है। मैं और श्याम बाजार की भीड़ में मिल गए हैं। आज मैं दलीप दी ग्रेट नहीं हूँ। प्रिंस भी नहीं हूँ ओर न मैं अब हीरो हूँ। ये अनाम विश्लेषण मुझे अचानक छोड़ कर भाग गए हैं। मन तो कर रहा है कि आज ही सारे काम अपने हाथों करके अनुभव पा लूँ। तांगे वाले के चोले में घुस कर मैं देखना चाहता हूँ कि वो कैसे जीता है। धकेल वाला काले मैले-कुचैले कपड़े पहने किस तरह जीने के संकल्प को दोहराता रहता है और आत्मघात क्यों नहीं कर लेता? चलते चलते मैं पता नहीं कितने चोलों में घुसा हूँ, कितनी छान बीन करने की कोशिश की है पर समझा कुछ भी नहीं हूँ। सभी तो खुश दिखाई दे रहे हैं। सभी भिन्न हैं, एक दूसरे से अंतर रखते हैं और हर दूसरे को बेगाना समझते हैं।

“एक तो ये है दुकान!” श्याम ने मुझे इशारे से बताया है।

मैंने ध्यान से देखा है तो हंसी आ गई है। लंबी कतार में खड़े बूढ़े, बच्चे, जवान और औरतें राशन की कतार में लग कर समय नष्ट कर रहे हैं। इतना भी जीने का क्या मोह? और अगर है तो ये मूक यातना सहने की क्षमता इनमें कहां से आई? इनका स्वाभिमान, स्वाबलंबन और बड़प्पन कहां चला गया है?

“लाला! मिट्टी का तेल देना!” मैंने गरज कर दुकानदार की ओर बोतल बढ़ा दी है।

“सामने लगा बोर्ड पढ़ लो भइया जी!” लाला ने मधुर स्वर में मजाक भी किया है और इशारा भी।

कतार में से कोई नहीं बचा जो हंसा न हो। मुझे लगा है कि ये बेशर्म लोग मुझे भी अपनी कतार में न पा कर मेरा मजाक उड़ाना चाहते हैं। हर आदमी जो अकेला पड़ जाता है, उघड़ जाता है ओर हर आघात उसे सीधा आ कर लगता है। श्याम के चेहरे पर भय के भाव बिखर गए हैं। वो जानता है कि मेरा इरादा किसी चट्टान से भी ज्यादा कठोर होता है।

“तेरे मुंह पर लगा साइन बोर्ड मैंने पढ़ लिया है। साले चोर! तू ये बोर्ड लगा कर ब्लैक कमा रहा है!” कड़क कर मैंने लाला का गला पकड़ लिया है।

“आई! भइया जी! भइया जी! ईमान धर्म से .. धर्म से भइया जी! अरे बचाओ! मुझे बचाओ!”

सच्चाई उगलते उगलते कमीना उसे सटक गया है। मैंने भी उसका गला छोड़ दिया है। लाला का एक हिमायती अंदर से निकला है। लेकिन कतार में से कोई बोला तक नहीं है।

“दादागीरी दिखाता है बे छोकरे?” हिमायती ने मुझे ललकारा है।

“हां हां मालिक! नीचे आ जाओ!” मैंने संभलते हुए कहा है।

श्याम भी अब मेरे साथ पैंतरे बदल कर खड़ा हो गया है। दो तीन पड़ौस के अधेड़ छोकरे हमारे साथ आकर खड़े हो गए हैं।

“ये कॉलेज के छोकरे ..!” एक बूढ़े बाबा ने आह छोड़ी है। शायद उसे दंगे फसाद अच्छे नहीं लगते। शायद उसके खून में मिलावट है तभी तो गर्मी में भी नहीं पिघलता!

“सुनो भाइयों! इस चोर के पास मिट्टी का तेल है। कल ही कोटा मिला है और आज इसने साइन बोर्ड लगा दिया है – तेल नहीं है!”

“मारो साले को ..!” कतार तोड़ कर दो तीन प्रौढ़ निकल आए हैं और हमारे साथ आकर मिल गए हैं। किसी ने दूर से एक ईंट का रोड़ा मारा है तो लाला के तराजू को सलाम कर निकल गया है। मुझे ये रोड़ा अर्जुन के गांडीव से निकला पहला सायक लगा है जो सिर्फ प्रणाम करने हेतु पहुंचा था।

Major krapal verma

मेजर कृपाल वर्मा

Discover more from Praneta Publications Pvt. Ltd.

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading