“तुझे ढूंढ ढूंढ कर मैं पागल हो गई नेहा!” मेरे सामने खड़ी अचला लम्बी लम्बी सांसें ले रही है। “तू यहां छुप कर बैठी है री!” उसने हाथ फेंके हैं। “ऑफिस में बुला रहे हैं!” अचला कह रही है। “कोई है – मिलने आया है।” कहते कहते अचला हंस गई है। “जल्दी जा!” उसने मुझे आदेश जैसा दिया है।
मैं और अचला अब एक ही चक्की में रहती हैं। हम दोनों अब गाढ़ी दोस्त हैं। अचला कहती है – मैंने हमीद को मारा था तो उम्र कैद मिली है। तूने बाबू को मारा है – तुझे भी उम्र कैद मिलेगी। हमारा यही रिश्ता है – पक्का रिश्ता।
“कौन आया होगा मिलने?” मैंने एक पल सोचा है।
“खुड़ैल!” तुरंत उत्तर आया है। “तूने खुड़ैल का खून क्यों नहीं किया नेहा?” अचला ने ही तो एक दिन पूछा था – मुझे याद है!
“पागल थी मैं!” मेरा उत्तर था। “मुझे खुड़ैल ने पागल बना दिया था।” मैंने अचला को बताया था।
और आज फिर से खुड़ैल आया है। फिर से पागल बनाएगा मैं जानती हूँ। इत्ते दिन के बाद लौटा है तो जरूर कोई संगीन कारण होगा।
“नहीं जाती मैं!” मैंने अचला से कह दिया है। “तू ऑफिस में जाकर बता दे कि मैं किसी से भी मिलना नहीं चाहती!” मैंने अचला से अनुरोध किया है। अचला ऑफिस में काम करती है। उसे सब जानते हैं।
“तू जाकर तो देख!” तनिक हंस गई है अचला। “उठ उठ! जा जा!” वह कह रही है। “है कोई नएला!” उसने सूचना दी है।
अचला चली गई है। मैंने मुड़कर कल्प वृक्ष को देखा है। न जाने क्यों मैंने आज फिर से प्रणाम किया है। पूछा भी है – कौन सा वरदान दोगे? न जाने क्यों जीने की एक इच्छा अभी भी मुझसे लिपटी रहती है।
ऑफिस में घुसते ही मेरा उस आगंतुक से आमना सामना हो जाता है।
“नमस्कार!” उसने खड़े होकर मेरा अभिवादन किया है। उसके चेहरे पर चिंता रेखाएं खिची हैं। उसकी आंखों में अवसाद भरा है। शायद उसे मुझ पर दया हो आई है।
मैंने उसकी नमस्कार का उत्तर नहीं दिया है।
“खुड़ैल ने भेजा है!” मेरे मन ने मुझे बताया है। “धोखा है! जाल फेंका है – खुड़ैल ने। वह मुझे भूला नहीं है। वह मुझे पाकर रहेगा। मैं सोचती चली जा रही हूँ। “ये युवक कौन होगा?” मैं तो अंदाजा भी नहीं लगा पा रही हूँ।
“मैं तो तुम्हें नहीं जानती!” मैंने तुनक कर कहा है। जेल में रहते रहते मैं अब बहुत बहादुर बन गई हूँ। मैंने डरना छोड़ दिया है।
“म .. म .. मैं शेखर हूँ!” युवक बोला है। वह अभी भी घबराया हुआ है। “मैं .. भइया – मतलब कि विक्रांत भइया का ..”
“बाबू का तो कोई नहीं था! बाबू तो अकेला ..”
“हां हां! वो तो थे अकेले लेकिन मैं उनका ..” वह कहते कहते रुक गया है। “बैठिए तो ..” उसने विनम्र आग्रह किया है ओर स्वयं भी पड़ी कुर्सी पर बैठ गया है।
लेकिन मैं एक जिद्दी और अड़ियल कैदी की तरह उसके सामने खड़ी ही रहती हूँ।
“देखिए! मेरे पास ये फाइल है!” वह कह रहा है। “इसमें मेरे और भइया के पत्र हैं! हम एक दूसरे को लिखते रहते थे।” वह बता रहा है। “आप बैठिए! इस फाइल को पढ़ कर आप ..”
“मुझे नहीं पढ़नी ये फाइल!” मैं नाट गई हूँ! “खुड़ैल ने भेजा है न तुम्हें?” मैंने सीधा प्रश्न दागा है। “कहना उससे कि ..” मैं तनिक रुकी हूँ। मुझे सहसा ही अचला का संवाद याद आ गया है। “मैं .. मैं उसका खून पी लूंगी!” मैं रोष में तिलमिला उठी हूँ। “मुगालते में न रहे! मैंने तो अब ताउम्र जेल में ही रहना है। क्या फर्क पड़ता है मुझे कि ..” वह घबरा गया है। उसकी समझ में नहीं आ रहा है कि मुझे कैसे मनाए।
“मैं आपको याद दिलाता हूँ!” वह संभल कर बोला है। “याद तो होगा आपको जब लंदन में आप और भइया काल खंड को यूरोप में रिलीज करने गए थे?”
“तो ..?” मैंने तुनक कर तुरप लगा दी है।
“अ .. आप प्लीज बैठिए तो?” उसने फिर से विनम्र निवेदन किया है।
मुझे न जाने क्यों उसपर दया आ गई है। मैं सामने पड़ी कुर्सी पर बैठ गई हूँ। मैंने इस बार बड़े ही ध्यान से उसके चेहरे को पढ़ा है। अचानक ही मुझे बाबू की याद हो आई है और न जाने क्यों मुझे ..
“फिर फंसोगी?” मेरे मन ने मुझे खबरदार किया है। “यही तो कैच है – खुड़ैल की इस नई कहानी का!” मैं हंस पड़ना चाहती हूँ।
“मैं भी तब लंदन में ही था।” वह मुझे बताने लगा है। “एल एल एम कर रहा था। मेरा फाइनल टर्म था। मैंने ही आपकी शादी को दीवाली के बाद काल खंड के रिलीज होने पर करने को कहा था। मां भी मान गई थी।” वह रुका था। उसने जैसे मुझमें कुछ तलाश किया था। “याद हो तो .. आप का फोन था ..” वह फिर से गड़बड़ाने लगा था। “भइया ने तब कहा था – करेगा बात नेहा से? और मैं नाट गया था। मैं .. मैं चाहता था कि शादी के अवसर पर आप से एक सरप्राइज की तरह मिलूं!” कहते कहते उसने निगाहें नीची कर ली हैं। “लेकिन .. लेकिन ..” वह गमगीन हो आया है।
“अब क्या बचा है?” मैंने कुछ सोच कर प्रश्न पूछा है।
“म.. मैं वकील हूँ। इलाहाबाद हाईकोर्ट में मेरी प्रैक्टिस है।” वह बता रहा है। “मैं .. मैं आप को बचा सकता हूँ!” उसने सीधा मुझे आंखों में देखा है।
“लेकिन क्यों?” मैंने भी सीधा ही प्रश्न दागा है।
वह चुप है। वह किसी गहरे सोच में डूबा है। वह समझ ही नहीं पा रहा है कि अब और कौन सी कहानी सुनाए मुझे।
“सब खुड़ैल का ही खेल है!” मैं हंस पड़ना चाहती हूँ। “वही नहीं चाहता कि मैं ..” मेरा मन बताने लगा है। “उस जिंदगी से जो मुझे खुड़ैल देगा – उम्र कैद ही क्या बुरी है?” मुझे मेरे मन ने प्रश्न पूछा है। “सभी तो रह रही हैं! अचला को कौन मौत आ रही है। और भी मोटी हो गई है!” मैं हंस पड़ना चाहती हूँ।
“मैं चलती हूँ!” मैं उठ कर खड़ी हो गई हूँ।
“प्लीज ..! प्लीज ..!” वह भी उठ खड़ा हुआ है। “प्लीज! तनिक बैठिए तो!” वह फिर से आग्रह कर रहा है। “ये .. ये .. लीजिए – बात कीजिए! बैठिए!” उसने मुझे अपना फोन पकड़ा दिया है।
“हेलो, नेहा!” एक सुमधुर आवाज मेरे कानों में गूंजी है। म .. माधवी कांत – मैंने फौरन पहचान लिया है। “बेटी! मैं बहुत बीमार हूँ!” वह बता रही हैं। “मैं .. मैं .. भी मर ही जाती लेकिन इसने – इस शेखर ने आकर मुझे बचा लिया।” उनकी सांस उखड़ रही है। “ये .. ये तुझे भी बचा लेगा!” वह कह रही हैं। उनकी खांसने की आवाज फिर आई है। फोन कट गया है।
फोन मेरे हाथों से छूट जमीन पर जा गिरा है। मैं भी धम्म से कुर्सी पर जा गिरी हूँ। मैंने अपने चेहरे को दोनों हाथों में भर लिया है। मैं दहाड़ें मार मार कर रोई हूँ। मां – मां – मां का स्वर एक तार की तरह मेरे अंतर से खिचा चला आ रहा है। मैं .. मैं रोए ही जा रही हूँ। मैं चुप होने का नाम ही नहीं ले रही हूं!
“प्लीज ..!” उसने मुझे छूकर कहा है। “आई एम सॉरी! मैंने आप का दिल दुखा दिया!” वह विनम्र स्वरों में बोल रहा है। “मैं चाहता तो नहीं था लेकिन ..”
मैं उठी हूँ और चल पड़ी हूँ।
“प्लीज, प्लीज! नेहा जी प्लीज!” वह मेरा रास्ता रोके खड़ा है। “वकालत नामे पर साइन कर दीजिए! इसके बिना तो मैं ..”
मैंने साइन कर दिए हैं! मैंने शेखर को चोरी चोरी आंखों से देखा है। बहुत भला लगा है मुझे – शेखर।
और .. और वो मां – माधवी कांत और वो मोहनपुर स्टेट? और वो मौली और मेरे मित्र खरगोश? और हां वो गुलाबों की क्यारियां? क्या करूं? कैद में बंद हूँ वरना तो मैं ..
“मैं मिलता रहूँगा आप से!” कहकर शेखर चला गया है।
लेकिन मेरा वो सुखद विगत आज बड़े दिनों के बाद मेरे पास आ बैठा है।
ओ बाबू! मेरे मन ने आज फिर टेरा है अपने बाबू को – अपने प्रेमी को!
मेजर कृपाल वर्मा