“कोरा मंडी कब तक पूरी हो जाएगी?” प्रेस रमेश दत्त से पूछ रहा था।

“बहुत जल्दी पूरी हो जाएगी!” दत्त साहब की गुरु गंभीर आवाज गूंजी थी।

दत्त साहब आज बेहद प्रसन्न लग रहे थे। उनके चेहरे के हावभाव बता रहे थे कि उनका मनोबल आज बहुत ऊंचा था और उनके इरादे भी बुलंद थे। हालांकि लंबे अरसे से कोरा मंडी की शूटिंग बंद थी और दत्त साहब न जाने कहां खोए हुए थे। लेकिन आज वो ..

“इस बार आप क्या संदेश देंगे समाज को, दत्त साहब?” प्राण लाल ने पूछा था।

“यही कि मानव सभ्यता के लिए कोरा मंडी एक माइल स्टोन होगी।” दत्त साहब ने अपनी चिर परिचित मुस्कान के साथ कहा था। “ये कि – मानव मानव है! उसका गोरा काला होना, छोटा बड़ा होना या कि अमीर गरीब होना – महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है – उसका मन और मानस।” दत्त साहब ने आंख उठा कर पत्रकारों को देखा था। पत्रकार तन्मय होकर दत्त साहब का संदेश सुन रहे थे।

“बात समझ नहीं आई दत्त साहब!” लल्लन त्रिपाठी ने कठिनाई बताई थी।

“त्रिपाठी जी!” तनिक सहज हो आए थे दत्त साहब। “मन और मानस का मतलब सीधा है!” दत्त साहब मुसकुराए थे। “कि – पायजामे के भीतर हम सब नंगे होते हैं।”

सभी लोग हंस पड़े थे। बड़ी ही सटीक बात कह दी थी दत्त साहब ने।

“अगर कोई मुझे परिधियों में बांध कर जीने को कहता है तो मुझे कोफ्त होती है।” दत्त साहब फिर से बताने लगे थे। “मेरा मन है – मैं जैसे चाहूँ जिऊं!” बताने लगे थे दत्त साहब। “और यही कारण है कि हम सब मानव तो हैं और लगते भी एक जैसे ही हैं लेकिन हम हैं सब अलग अलग। जो मुझे पसंद है – वो हो सकता है आपको पसंद न हो। और अगर मैं अपनी पसंद का पानी भी आप को पिला दूं तो आप ..”

तालियां बज उठी थीं। दत्त साहब आज बड़े मनोयोग से बोल रहे थे।

“क्या नेहा जी शूटिंग के लिए आएंगी?” शरद् ने राम बाण छोड़ा था।

जमा लोगों के बीच फुस फुस की हंसी और धक्का-मुक्की चल पड़ी थी। मात्र नेहा के नाम से ही एक उमंग का जन्म हुआ था। बड़े दिन हुए थे जब से नेहा की कोई फिल्म रिलीज नहीं हुई थी। नेहा का नाम और काम अपना स्थान पा गया था। लोग लालायित रहते थे नेहा के बारे कुछ सुनने को और ..

“क्यों नहीं आएंगी नेहा जी?” बड़े ही आत्मविश्वास के साथ दत्त साहब बोले थे। “अरे भाई! नेहा जी एक कलाकार हैं! एक सशक्त कलाकार हैं जो मेरे और आपके मन की बात बखूबी पर्दे पर बयान कर देती हैं। सच मानिए मित्रों! मैंने अपने आज तक के कैरियर में नेहा जी जैसी अभिव्यक्ति नहीं देखी है।”

फिर से तालियां बजी थीं। इस बार की तालियां नेहा जी के लिए थीं और उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के लिए सम्मान और स्नेह था।

“आज के कलाकारों में कोई भी प्रेम प्रसंगों को नेहा जी से अच्छा व्यक्त नहीं कर सकता।” दत्त साहब फिर से कहने लगे थे। वो जानते थे कि उनका कहा एक एक शब्द नेहा के कानों तक जरूर पहुंचेगा। चाहे जैसे पहुंचे। और वो आज इस मौके को चूकना न चाहते थे। “कोरा मंडी का सारांश नेहा जी के सिवा और कोई बयान ही न कर पाएगा।” दत्त साहब ने एक सच को कह दिया था।

“काल खंड दीवाली पर रिलीज होने वाली है। आप क्या कहेंगे इस के बारे?” पवन बंसल ने बड़े ही शरारत पूर्ण ढंग में पूछा था।

भीड़ में एक हलचल भर गई थी। हर कोई जानता था कि दत्त साहब का इस बार विक्रांत की काल खंड के साथ मुकाबला था। दोनों फिल्में लंबे समय से चर्चा में थीं। दर्शकों को दोनों फिल्मों का ही इंतजार था।

“काल खंड कोई फिल्म नहीं है!” दत्त साहब का बेबाक उत्तर था। “ये एक ऐतिहासिक मसौदा है। किसी भी लाइब्रेरी में ये फिल्म आपको धरी मिलेगी। इसमें क्रियेटिव जैसा कुछ नहीं है।” दत्त साहब की अपनी राय थी।

“कन्हैया की बांसुरी और मिहिर माली का मांझी सॉंग ..?”

“ये गांधी जी की हत्या से मेल नहीं खाता भाई!” रमेश दत्त ने त्यौरियां चढ़ कर कहा था। “ये सब आर एस एस का प्रपंच है।” कहते हुए चल पड़े थे दत्त साहब।

प्रेस आज प्यासा रह गया था। काल खंड के बारे उन्हें बहुत कुछ खोजना था। रमेश दत्त का दिया उत्तर किसी दुश्मन का किया आक्रमण जैसा था। सभी पत्रकार मान गए थे कि जरूर ही काल खंड में कुछ न कुछ नया था – विचित्र था।

बहुत सारी खोज खबर के बाद भी जब विक्रांत और नेहा प्रेस को नहीं मिले थे तो वो लोग ऑफिस में आ कर सुधीर से भिड़ गए थे।

“कब रिलीज हो रही है काल खंड?” त्रिपाठी ने सीधा प्रश्न पूछा था।

“दीवाली पर!” सुधीर ने भी सीधा ही उत्तर पकड़ा दिया था।

“दत्त साहब तो कहते हैं कि कुछ नहीं है ये काल खंड! ये तो फिल्म नहीं दस्तावेज है। ओर कहते हैं कि जब जनता गांधी जी को गोली लगते देखेगी तो कन्हैया की बांसुरी ..”

“बिना जूते खाए मानेगा नहीं ये मुल्ला!” सुधीर क्रोधित हो उठा था। “फिल्म तो अभी रिलीज ही नहीं हुई और इसने अपनी राय भी दे दी?” सुधीर ने जमा पत्रकारों को सख्त निगाहों से घूरा था। “लिख लो! बता दो दुनिया को कि इसकी कोरा मंडी कभी पूरी नहीं होगी! ये जो गंद-संद बनाता है अब गए उसके जमाने!” सुधीर की आवाज बुलंद थी।

“सुधीर जी! दत्त साहब एक जाने माने ..”

“मुसलमान है!” सुधीर उसी अंदाज में बोला था। “नाम बदल कर दत्त साहब बना हुआ है। क्या आप लोग नहीं जानते कि ये कासिम बेग है? इसका बाप इसकी मां को छोड़ कर भाग गया था! ये आदमी ..”

बात बिगड़ गई थी। सुधीर आपा खो बैठा था। प्रेस वालों को क्या कुछ पता नहीं था। लेकिन वो लोग सुधीर की बताई कहानी लेना ही न चाहते थे। वो तो चाहते थे कि कुछ विक्रांत के बारे में अटपटा और चटपटा सा मिले या कि नेहा के बारे में कोई प्रेम प्रसंग हाथ लग जाए!

“नेहा जी आजकल कहां शूटिंग कर रही हैं?” लल्लन ने बात मोड़ी थी।

“मुझे क्या पता!” सुधीर का उत्तर था।

प्रेस निराश उदास हो कर विक्रांत के ऑफिस से लौट आया था।

बारी बारी सभी पत्रकारों ने दत्त साहब को हाईलाइट किया था ओर हर हर मायनों में उन्हें महा मानव की उपाधि दे डाली थी। कोरा मंडी फिल्म का सारांश सबने लिखा था ओर लिखा था कि नेहा जी इस बार कुछ अनूठा ही कर दिखाएंगी। साथ में नेहा का चित्र भी छपा था। रमेश दत्त ने जो भी एक कलाकार के बारे में कहा था, पत्रकारों ने उसे और भी ऊंची उपाधि दे दी थी। मानवता को – मन और मानस की संज्ञा देना – सभ्य समाज के लिए एक नया दृष्टिकोण था।

और – बिना जूते खाए मानेगा नहीं ये मुल्ला – सुधीर का संवाद उसके सांप्रदायिक सोच का प्रतीक बताया गया था और इसे संघ और आर एस एस द्वारा प्रचारित माना गया था ओर बताया गया था कि काल खंड भी इसी मानसिकता से प्रेरित थी।

रमेश दत्त बेहद प्रसन्न थे। उनका मनमाना जो हो गया था।

नेहा ने छपी इस प्रेस वार्ता को कई बार उलट पलट कर पढ़ा था।

नेहा का प्रकारांतर उत्साहित और उल्लसित हो उठा था। खुशी की उमंगें उठी थीं और बिखरती ही चली गई थीं। जो भी रमेश दत्त ने उसके बारे में कहा था – शायद सच था। रमेश दत्त झूठ तो बोलता था, बेहद झूठा था और बेईमान आदमी था। लेकिन इन मौकों पर और ऐसे साक्षात्कारों पर वह सच ही बोलता था। कुछ था तो – इस दत्त साहब में जो बेजोड़ था।

“तो क्या .. तो क्या .. कोरा मंडी ..?” सोचते सोचते सिहर उठी थी नेहा। उसकी समझ ही न आ रहा था कि रमेश दत्त उसे कैसे मना लेगा और कैसे बना लेगा कोरा मंडी? वह तो चली जाएगी और मोहन सिंह स्टेट में मां माधवी कांत के साथ उस अनूठे एकांत में पहुंच कर खरगोशों के साथ खेलेगी और मौली की आंखों में छपे संदेश पढ़ेगी और .. और हरी भरी गुलाब की उन क्यारियों को सींचेगी और ..! “धोखा देगा जरूर ये खुड़ैल!” नेहा के अंतःकरण ने स्पष्ट कर दिया था।

“बेहद चालाक है ये आदमी!” विक्रांत बता रहा था। “हमें होशियार रहना होगा।” उसने चेताया था। “मैंने सुधीर को कह दिया है! इस तरह की बेवकूफी हमें बर्बाद कर देगी!” गंभीर था विक्रांत।

“मैं घर चली जाती हूँ!” अचानक ही नेहा ने सुझाव दिया था। “न जाने कब से नहीं मिली हूं – परिवार से!” कुछ याद करते हुए नेहा बोली थी।

“ठीक रहेगा!” विक्रांत भी मान गया था।

अपने धर लौटने के मात्र विचार ने ही नेहा के पैर पंखों में बदल दिए थे!

मेजर कृपाल वर्मा

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