जिस विध्वंसकारी तूफान को लेकर सम्राट विक्रमादित्य ने पानीपत में डटी मुगल सेना पर आक्रमण किया था और जो तूफान पल छिन में दुश्मन को पराजित कर सफलता के सोपान चढ़ने वाला था अनायास वही तूफान दिशाहीन हो गया था, बिगड़ गया था और अब उसे अपने पराए की सुध ही न रही थी।

शोर था – सम्राट मारे गए! बजते ढोल-ढमाके जीत का जश्न मनाने की सूचना दे रहे थे। दौड़ते भागते सैनिक दिशाहीन होकर अपने पराए सब पर वार कर रहे थे। लाशें थीं, और लहू से लाल हुई धरती कांप उठी थी। आसमान भी लरज आया था। नरसंहार की पराकाष्ठा थी। कौन मरा, किसने मारा, कौन हारा और कौन जीता – सब कुछ एक ताम-झाम की तरह हवा पर हिल रहा था।

लेकिन शाह कुली खान को अपना गंतव्य याद था और उसे ये भी याद था कि सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य को जिंदा पकड़ कर बादशाह अकबर के सामने पेश करने के मतलब क्या थे?

जैसे ही अकबर और बैरम खां ने शाह कुली शान के काफिले को दूर से आते देखा था तो वो दोनों घबरा गये थे। काबुल भागने के लिए तैयार खड़े वो दोनों युद्ध के मैदान से आठ कोस दूर पर थे लेकिन ..

“लगता है अपने सैनिक हैं।” बैरम खां हिम्मत बटोर कर बोला था। “जरूर .. शायद जरूर ..” वह कुछ कहना चाह रहा था लेकिन उसकी जबान बहक रही थी।

“शाह कुली खान आ रहा है!” बादशाह अकबर ने अनुमान लगा कर कहा था।

“तब तो .. तब तो ..!” बैरम खां अब प्रसन्न था। “तब तो हम युद्ध जीत गए। हेमू मारा गया!” खूब जोरों से चिल्ला कर कहा था बैरम खां ने।

और शाह कुली खान हेमू के हवाई हाथी को हेमू सहित लेकर अकबर बादशाह के सामने आ खड़ा हुआ था।

“इसका मतलब – वो छोकरा पागल नहीं है?” अकबर की पहली प्रतिक्रिया थी।

“पागल ही तो है!” हंस गया था बैरम खां। “उसे अब दिल्ली मैं दूंगा!” बैरम खां ने आंखें तरेर कर कहा था। “अभी जिंदा है!” बैरम खां ने हेमू के बदन को छूकर कहा था। “कलम कर दो इसका सर!” उसने बादशाह अकबर से आग्रह किया था। “आज आप घाजी बन जाएंगे जहांपनाह! आप का पहला दुश्मन – काफिर हेमू जब आपके हाथों जहन्नुम जाएगा तो ..”

“नहीं!” बादशाह अकबर साफ नाट गया था। “मैं .. मैं हेमू का सर नहीं काटूंगा!” उसने साफ कहा था। “ये .. ये उसूलों के खिलाफ होगा!” वह कह रहा था। “बशर्ते कि हम हेमू को बचा लें!” राय थी बादशाह अकबर की। “इस आदमी ने कौन सा करिश्मा नहीं करके दिखाया चचा जानी?” अकबर पूछ रहा था। “सूर सल्तनत का पूरा कर्ता-धर्ता हेमू ही तो है! और अगर हमें हेमू मिल जाता है तो हमें हमारे सपनों का हिन्दुस्तान अवश्य मिलेगा!”

हैरान परेशान बैरम खां बादशाह अकबर का मुंह देखता रहा था।

“कम उम्र है इसलिए आप जानते नहीं कि अगर आपके दादा जान बाबर आपकी जगह होते तो क्या करते? लेकिन मैं जानता हूँ!” वह मुसकुराया था। “मैं जानता हूँ कि हमें हिन्दुस्तान को अब कौन सा संदेश भेजना चाहिए!”

“लेकिन .. लेकिन ..” अकबर नाखुश था।

“आप अपनी तलवार की नोक से छू दें इस काफिर के शरीर को!” बैरम खां ने विनम्रता पूर्वक अकबर को मनाया था।

और फिर बैरम खां ने स्वयं ही हेमू के सर को धड़ से अलग कर दिया था। अब उसी ने आदेश दिए थे बाबर की एवज में कि हेमू के सर को काबुल भेज दिया जाए और वहां किसी भी तिराहे पर इसे टांग दिया जाए। धड़ को दिल्ली भेजा जाए और दिल्ली दरवाजे पर बारूद भर कर लटका दिया जाए। शहर में मुनादी करा दी जाए कि हिन्दू काफिरों खुली आंखों देख लो कि इस्लाम से गद्दारी का क्या हाल होता है।

बैरम खां को महसूस हुआ था कि उसके शरीर में बाबर की रूह प्रवेश पा गई थी और वह ठीक उसी की तरह कत्लेआम और नरसंहार करा रहा था।

लगातार हो रहे अपशकुनों का पीछा करती केसर महा सिंह के साथ दिल्ली की ओर दौड़ी चली आ रही थी। उसे सारी सूचनाएं मालूम थीं लेकिन युद्ध का परिणाम ..

“साजन को – मेरे सुजान साजन को युद्ध में कोई नहीं हरा सकता!” केसर स्वयं से कह रही थी। लेकिन .. लेकिन था तो कुछ अनहोनी जैसा जिसे वो समझ नहीं पा रही थी। केवल उसका अनुमान था। “मेरे ईश्वर – रक्षा करना मेरे साजन की! गलती हुई मुझसे जो मैं अपने साजन को अकेला छोड़ कर ..” आंसू डबडबाने लगे थे केसर की आंखों में।

दिल्ली की सरहदें पार करते ही फिर से केसर को लगा था कि दिल्ली फिर एक बार विधवा बन चुकी है। उजड़ चुकी है दिल्ली और लुट गया है उसका सुहाग!

“नहीं नहीं! ये झूठ है!” केसर तड़पने लगी थी। “मेरे साजन को तो ताती बयार भी न लगेगी! मेरा तप है .. मेरी तपस्या है .. मेरा सतीत्व है!” वह बड़बड़ाती जा रही थी।

कादिर अब दिल्ली से ज्यादा दूर नहीं था। अपनी घुड़सवारों की टुकड़ी के साथ वो पवन वेग से उम्मीदों के पंखों पर बैठा दिल्ली की ओर उड़ता ही जा रहा था। आज कादिर बेहद खुश था। दिल्ली का सम्राट बनना और केसर को अपनी महारानी बनाना – उसका चिर इच्छित ख्वाब आज पूरा होने को था।

अचानक ही कादिर केसर की खनकती हंसी सुनने लगा था। वह केसर के नयनाभिराम में जा डूबा था। केसर का सौंदर्य और केसर का आकर्षण उसे दिल्ली की ओर खींचता ही चला जा रहा था। पतंगा शमा की ओर सरपट भाग रहा था।

“जीता है मैंने दिल्ली को!” गर्व के साथ कादिर ने भागते भागते ऐलान जैसा किया था। “और अब मैं केसर को हासिल करूंगा। हाहाहा! आखिरकार ..” एक तरंग थी जो कादिर को उठाए ले जा रही थी – दिल्ली की ओर!

केसर को आया देख केसर महल में दौड़ भाग आरम्भ हो गई थी।

केसर ने खूब कान लगाए थे पर वहां कोई सूचना न थी। महान सिंह भी अनुमान ही लगा रहा था लेकिन आस पास सब चुप था – शांत था। तभी अचानक अश्वारोहियों के आने की सूचना हवा पर तैर आई थी और देखते देखते कादिर के घुड़सवारों ने केसर महल को चारों ओर से घेर लिया था।

महान सिंह को सब समझ आ गया था। वह दौड़ा था ओर उन आताताइयों के मुकाबले में जा डटा था। केसर ने भी सब भांप लिया था। वह अभी तक अपने सैनिक के लिबास में ही थी।

“के-स-र!” कादिर ने उल्लास में केसर को पुकारा था। वह घोड़े से कूद अब केसर महल में प्रवेश पा गया था। केसर को सामने देख तनिक चौंका था कादिर लेकिन उसके कदम रुके नहीं थे। “मैं आ गया केसर! दिल्ली का बादशाह, तुम्हारे कदमों में गिर कर भीख मांगता है, मेरी मलिका-ए-आलिया कि ..” कादिर ने अपनी बांहें पसार कर केसर को अपने आगोश में लेना चाहा था।

तभी केसर ने अपनी कटार कादिर के सीने में सीधी उतार दी थी।

“मार कर आया है तू मेरे साजन को, बेईमान!” रो रही थी केसर। “तेरा तो खून पी लूंगी मैं!” वह शपथ ले रही थी। फिर उसने कादिर को जमीन पर धर पटका था और उसकी छाती पर घुटने गढ़ा कर उसका कत्ल कर रही थी। कादिर की गर्दन को धड़ से अलग कर ही केसर उठी थी।

महान सिंह ने कादिर के सिपाहियों को ठिकाने लगा कर मैदान साफ कर दिया था।

“ओ मेरी बहना!” महान सिंह की आंखों में उल्लास के आंसू थे। केसर का खून में लथपथ स्वरूप उसे मां चंडी का स्वरूप लगा था। अपनी वीरांगना बहन का करतब देख वह दंग था। “मार दिया मुरदार को?” तनिक हंसा था महान सिंह।

केसर अपने भाई महान सिंह की बांहों में झूल गई थी। फुग्गा फाड़ कर रोई थी केसर! “सा-ज-न!” वह दहाड़ें मार रही थी और पछाड़ें खा रही थी।

“भइया ..! मेरा साजन ..?” पूछ रही थी केसर।

क्या बताता महान सिंह?

केसर महल में एक अनोखा मातम मना था। सब को ज्ञात हो गया था कि उनके सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य नहीं रहे। दिल्ली फिर से उजड़ गई और हिन्दू राष्ट्र फिर बन कर बिगड़ गया!

“चलते हैं भइया!” होश आते ही केसर ने आदेश दिए थे। “मुगल सैनिक हमारी तलाश में आते ही होंगे!” उसने कहा था।

दिल्ली पर अंधेरी रात घिर आई थी।

मेजर कृपाल वर्मा

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