14 साल की जद्दोजहद के बाद आज 15 नवंबर 1954 में बादशाह हुमायू ने फिर एक बार अपने अब्बा जहीरुद्दीन बाबर के सपने को आंखें भर भर कर देखा था। हिन्दुस्तान फिर उसे एक बार पुकार बैठा था।
जहां हुमायू अपने ही मुगलों से लड़ लड़ कर थक गया था वहीं अफगान भी आपस में लड़ लड़ कर चुक लिये थे। दिल्ली की गद्दी पर बैठा सिकंदर शाह सूरी कोई सूरमा न था, एक लालची गीदड़ था। आदिल शाह सूरी कालपी में बैठा था और हेमू बंगाल में लड़ रहा था। यह एक मुबारक मौका था जब वह अपनी दिल्ली और खास कर अपने ख्वाब दीने पनाह में पहुंच सकता था।
मैदान खाली पड़ा था – यह सोच कर बादशाह हुमायू खूब हंसा था।
“शेर शाह सूरी होता तो दो दो हाथ करने में जान खपती!” हुमायू सोच रहा था। “और उसके साथ ये हेमू उर्फ पंडित हेम चंद्र और अब सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य भी अवश्य लड़ता!” उसे याद आने लगा था। “इस पंडित ने ही चढ़ाया था सूरी को। वह तो कोरा शठ था। लेकिन .. ये .. हेम चंद्र?” ठहर कर सोचने लगा था हुमायू। “चतुर है .. चालाक है और चीते सा ..” हुमायू को पूरा विगत याद आता ही चला गया था।
बैरम खान को आया देख हुमायू डर गया था।
“रोहतास नगर ..?” डरते डरते हुमायू ने पूछा था।
“फतह ..!” बैरम खां ने हंसते हुए सूचना दी थी। “सिकंदर शाह सूरी के शेरों ने हथियार डाल दिये।” उसने व्यंग किया था। “मैं तो सोच रहा था कि डटकर जंग होगी। लेकिन ये गढ़ – जिसे मैं भी लोहागढ़ मानता था – फूंक से गिर गया।” आश्चर्य था बैरम खां की आंखों में।
“किले नहीं लड़ा करते बैरम।” हुमायू ने एक दार्शनिक की तरह कहा था। “लड़ती तो आदमी की चाह है।” तनिक मुसकुराया था हुमायू। “हम क्यों लड़ रहे हैं?” उसने प्रश्न पूछा था। “मुझे याद है जब अब्बा ने मुझे पहली बार कालपी फतह करने भेजा था।” उसने बैरम खां को गौर से देखा था। “और आज लड़ते लड़ते 28 साल गुजर गये ..”
“अब तो आपके नाम का खौफ बन गया है सुलतान! अब पेशावर, लाहौर, जलंधर और दीपालपुर तक हमारे कब्जे में है।” बैरम खां ने प्रसन्न हो कर बताया था।
“तो हमारे खौफ को लेकर भागो और सरहिंद पहुंचो।” हुमायू का अगला हुक्म था।
और बैरम खां के मुकाबले के लिए सिकंदर शाह सूरी एक लाख लश्कर ले कर सरहिंद पहुंच गया था।
पहला मुकाबला सतलज के किनारे माछीबारा में हुआ था। बैरम खान ने बारूदी गोले फेंक कर माछीबारा गांव में आग लगा दी थी। छुपकर घात लगा कर बैठे अफगान सैनिक उजागर हो गये थे और भाग निकले थे। बैरम खां ने उन्हें बंदी बनाया था और फिर मुकाबला हुआ था सिकंदर शाह सूरी से।
एक महीने तक पड़े रह कर हुमायू ने अगली जंग की मुकम्मल तैयारियां की थीं। और जब सिकंदर शाह सूरी से मुकाबला हुआ था तो वह टिक न पाया था। और मैदान छोड़ कर हिमालय की ओर भाग गया था – सिकंदर शाह सूरी!
22 जून 1955 में सरहिंद फतह कर हुमायू की फौजों ने 23 जुलाई 1555 को दिल्ली पर धावा बोल दिया था।
कोई घमासान युद्ध नहीं हुआ था। दिल्ली तो खाली थी। सारे अफगान भाग निकले थे। हुमायू ने बड़ी ही आसानी और आजादी के साथ दिल्ली पर कब्जा कर लिया था।
दीने पनाह को जब हुमायू ने नजरें उठा कर देखा था तो उसे रोना आ गया था। एक बार फिर से शेर शाह सूरी की याद लौट आई थी। सारा शहर तबाह कर दिया गया था। शेर शाह सूरी ने अपना नाम देकर उसे शेर शाह नगर बना दिया था। लेकिन आज तो वह लौट आया था।
दीने पनाह में तीन मंजिल मीनार पर दूसरी मंजिल में हुमायू ने अपना निवास बनाया था। पहली बार एक पुस्तकालय का निर्माण भी कराया था जहां रह कर वह अब इस्लाम की बहबूदी के लिए लिखना पढ़ना चाहता था।
“बड़े आराम से आ बैठे हैं शहंशाह हुमायू दिल्ली में!” अंगद सूचना दे रहा था। “सिकंदर शाह सूरी तो हिमालय में न जाने कहां जा छुपा है?” अंगद तनिक मुसकुराया था। “लड़ा ही नहीं।” उसने आश्चर्य जताया था। “आगरा तक तो ..” अंगद ने मुड़ कर सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य को देखा था।
“चुनार में आदिल शाह सूरी भी कहां लड़ेगा?” सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य भी हंस पड़े थे। “ये हिमालय तो नहीं जाएगा पर बंगाल की ओर अवश्य भागेगा।” उनका अनुमान था। “भाग्यशाली है हुमायू कि उसे शेर शाह जिंदा नहीं मिला वरना तो ..?”
“तरह साल का बेटा अकबर भी हुमायू के साथ आया है।” अंगद ने एक और सूचना भी दी थी। “फारस की छत्र छाया में लौटे हैं। राजकुमार फरीद भी साथ आया है। अब दीने पनाह में इस्लाम का अड्डा फिर से बनेगा।” अंगद ने महत्वपूर्ण सूचना दी थी।
सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य एक गहरे सोच में जा डूबे थे।
बालक अकबर के गुम होने की सूचना और अब तेरह साल के अकबर के हिन्दुस्तान लौटने की सूचना खास थी – ऐसा कुछ एहसास हुआ था सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य को। बाकी हुमायू कोई नया न था। भिश्ती की मुश्क पर बैठ कर गंगा पार कर भागता हुमायू आगरा पहुंच कर ही होश में आया था। लेकिन शेर शाह सूरी का भूत उसे हिन्दुस्तान से भगा कर ही माना था। आज फिर हुमायू दिल्ली के तख्त पर आकर आसीन हो गया था और ..
“गीदड़ की मौत उसे बुला लाई है गांव।” अंगद ने अचानक ही एक मर्म की बात कह दी थी। “इसे अभी पता नहीं है कि अब हिन्दुस्तान हिन्दू राष्ट्र है।” अंगद तनिक हंस गया था।
“इन गीदड़ों के मुकाबले राजा महेश दास – शेर को सासाराम भेज देते हैं।” सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य का सुझाव था। “सेना लेकर जाएगा ताकि चुनार की मदद कर सके और मेरा तो विचार है कि सासाराम में जाकर सेना की भर्ती खोल दे। जंग के लिए हिन्दू हो या मुसलमान हो सब के लिए छावनियों में युद्धाभ्यास आरंभ करा दे।”
“बहुत बेहतर रहेगा सम्राट!” अंगद ने भी हामी भरी थी। “मुगलों से तो मुकाबला होगा!” उसने भी मान लिया था। “और हुमायू को आप कम नहीं तोल सकते।” उसने चेतावनी भी दी थी।
सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य ने सभा बुलाई थी। हुमायू के आगमन की सूचना सब को दी थी। मुगलों के नापाक इरादों का जिक्र हुआ था और फिर राजा महेश दास को सासाराम जाने के ब्योरेवार आदेश मिले थे। राजा टोडरमल को भविष्य में होने वाले संग्रामों की सूचना दी गई थी और राजकीय कोष में धन की पूर्ण व्यवस्था के आदेश थे।
“पुर्तगालियों के साथ मिल कर सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य ने चीन तक अपने व्यापार को बढ़ाने की योजना ईजाद कर दी थी।
“सासाराम को भी गौर की तरह ही स्थापित करना होगा राजा साहब!” सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य राजा टोडरमल को बता रहे थे। “दिल्ली को फतह करने के लिए जरूरी है कि हम बंगाल और बिहार में मजबूत हो जाएं और अब हमारी सेनाएं भी ..”
“शुभ सूचना ये है सम्राट कि अब हमारे पास हर तरह के लोग भर्ती के लिए आ रहे हैं। आप के द्वारा सैनिकों को दिया सम्मान और सुविधाएं इस का मुख्य कारण हैं। आपकी प्रणाली और प्रेरणा बहुत कारगर सिद्ध हो रही है।”
“इसमें हम सबका श्रम शामिल है, राजा साहब!” हंस कर कहा था सम्राट ने। “हिन्दू राष्ट्र की स्थापना में हर हिन्दू और मुसलमान का हाथ होगा – मेरा ये मानना है।” सम्राट ने अपने मन की बात कही थी। “नवंबर तक हम लोग भी सासाराम पहुंच लेंगे।” सम्राट ने अगली योजना बताई थी। “सासाराम को छावनी की बजाए हमने गढ़ बना देना है। मैं नहीं चाहूंगा कि हुमायू आगरा से आगे बढ़े।” सम्राट का इरादा था। “हम आगरा के चारों ओर होंगे और हम ..”
अचानक ही सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य की आंखों के सामने पूरा विगत आ खड़ा हुआ था।
कितनी लालसा थी शेर शाह सूरी की हुमायू को पकड़ कर कैद में डालने की और मुगलों का अंततः अंत ला देने की। और कितनी जी तोड़ कोशिश की थी उसने भी कि कहीं हुमायू किसी तरह भी हाथ आ जाए। तब तो वह भाग रहा था। उसके पास था क्या? यहां तक कि अकबर का जन्म भी अमरकोट के हिन्दू राजा के घर में हुआ था। कोई भी मुसलमान हुमायू को पनाह न दे रहा था। और इसका भाई कैमरान तो इसकी जान का ग्राहक था। भूखा नंगा और फटे हाल तब ये फारस भाग गया था।
कम उम्मीद थी हुमायू के लौटने की। लेकिन आज हुमायू फिर से दिल्ली का बादशाह था और उसके मुकाबले में आ खड़ा हुआ था।
कच्ची गोलियां न खेली थीं हुमायू ने – सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य ये जानते थे।