नितांत अकेली बैठी नेहा के मन में सरिता द्वारा भरा भूचाल ठाठें मार रहा था।

सरिता का सुझाया जीवन दर्शन नितांत नया लगा था उसे। कंचन सी काया को लेकर यों अकेले अकेले इस जेल की काल कोठरी में जीना कौन अक्लमंदी थी जबकि उसकी बेल हो चुकी थी और जेल के बाहर भरा पूरा परिवार था – जीने के लिए! अरे भाई! सड़क पर चलते चलते मीत मिल जाते हैं – सरिता का कथन आज उसके पैरों में घुंघरू बांध कर नाचने को कह रहा था। मन था कि किसी भी अज्ञात प्रेमी को पुकार लेना चाहता था और चाहता था कि वो जोरों से हंसे, चीखे चिल्लाए और एक नए जीवन के आरम्भ का ऐलान कर दे!

उसके आज के इरादे अलग थे, इच्छाएं अलग थीं, भ्रमित करते आग्रह थे, नई नवेली भावनाएं थीं और था एक नया नवेला उजाला – एक प्रकाश जो नए नए रास्ते दिखा रहा था और उसे सुझा रहा था कि वो ..

स्वीकार में सर हिलाती नेहा ने महसूसा था कि उसने जीया था जीवन को, भोगा था हर सुख, हर आनंद और उसका परिचय भी प्रगाढ़ था – जब खुड़ैल ने उसे छूआ था, बहकाया था, बहलाया था और फिर ..

उन्हीं कच्चे कच्चे पलों में नेहा फिर से प्रवेश पा जाती है!

जिंदगी के खाली खाकों में खुड़ैल फिर से अजब गजब के रंग भरता है। कहीं से आरम्भ कर वो उसे बहका कर कहीं दूर बहुत दूर लेकर निकल जाता है। पहले उसे वह खोजता है और फिर सहलाता है। बड़ी ही चतुराई से वो उसके मन को मना लेता है। फिर आहिस्ता आहिस्ता उसके समीप आता चला जाता है ओर फिर छोटे छोटे दंश देता है जिनसे अनाम से सुखों की उत्पत्ति होती है और उसके मन प्राण कृतार्थ हुए लगते हैं। उसके बाद तो खुड़ैल के प्रहार और आघात चुटीले और कटीले हो जाते हैं और वह उसे घायल तक कर देता है। लेकिन तब भी उसे क्रोध नहीं आता है।

बाद में .. बहुत बाद में जब नेहा अपने पिराते कोमल और कमनीय अंगों को सहलाती है तब उसे एक मीठी मीठी पीढ़ा का एहसास होता है। तब भी क्रोध नहीं एक आनंदानुभूति होती है और वह हंस कर उसे सह लेती है!

और फिर जब खुड़ैल उसे छूता, चूमता, चाटता और चूसता ही चला जाता तो वो कोई प्रतिवाद न करती। वो संज्ञा विहीन सुख उसे अच्छा लगता और उन पलों में खुड़ैल भी उसका अति आत्मीय और कामना पुरुष बन जाता! अश्लील शब्द कहता खुड़ैल उसे नशीले सब्जबाग दिखाता और कहता – इसी को जीना कहते हैं नेहा! और कमाल ये था कि वो भी कोई कैसा भी विरोध जाहिर तक न करती!

करीब और करीब आते जाते थे वो दोनों और फिर एकाकार हुए भूल ही जाते थे कि ..

“कोरा मंडी के तीन गाने – सलीम के साथ ..” अचानक रमेश दत्त आदेश देने लगता है। “तुम इस फिल्म की जान हो मेरी जान!” वह बता रहा है। “एक बार तुम इस में जान फूंक दो नेहा!” उसने आग्रह किया है। “फिर देखना कि तुम ..”

शूटिंग का वो संसार, वो गहमागहमी और वो बोले सारगर्भित संवाद नेहा की जबान पर रेंगने लगते हैं! उसका शरीर एक नई स्फूर्ति से भर आता है। अब एक उमंग उसके पास आकर बैठ जाती है। मन भी लरज लरज आता है। नेहा भूल ही जाती है कि वो जेल में बंद है।

“आई लव यू नेहा!” साहबजादे सलीम ने कहा है तो नेहा की हंसी छूटने वाली है। वह हंस ही पड़ती है। “आई कांट लिव विदाउट यू नेहा!” मूंह एंठ एंठ कर अंग्रेजी बोलता सलीम उसे और भी हास्यास्पद लगता है। नेहा का मन हुआ है कि जूतों से पीटे सलीम को और उसके पैसे का नशा उतार दे!

“प्यार के लिए अभी फुरसत है कहां साहबजादे!” हंस कर नेहा सलीम को बहलाती है।

भूखी प्यासी निगाहों से निराश हुआ सलीम जब उसे घूरता रहता है तो उसे अजब सा एक आनंद आता है।

लेकिन तभी नेहा के स्मृति पटल पर कोई चुपके से विक्रांत का चित्र उकेर देता है। विक्रांत का दप दप दीपों सा जलता तेजोमय चेहरा नेहा के व्यामोह के अंधकार को चीरता ही चला जाता है! अब एक नया सवेरा हुआ लगा है! बहारों का आगमन जैसा हुआ लगा है। हवा है – जो बहने लगी है और नेहा को सुख बांट बांट कर निहाल कर रही है!

“ओ बाबू!” नेहा ने आह रिता कर विक्रांत को टेरा है। “ओ बाबू!” उसने दौड़ कर विक्रांत को अपनी बांहों में समेटा है। “कहां खो गये थे तुम?” वह पूछ रही है। “मैं .. मैं तो .. मरने मरने के लिए थी। मैं .. मैं तो बावली हो गई थी बाबू!” वह बहुत भावुक है।

विक्रांत का प्रदत्त निश्चल प्रेम, गंगा जल जैसे पवित्र भाव और भावनाएं और उसके मधुर प्रेम संवाद नेहा को विह्वल बनाते चले जाते हैं।

और फिर न जाने कैसे विक्रांत के तेजोमय स्वरूप के सामने खुड़ैल का काला स्याह शरीर आकर संग्राम छेड़ देता है।

“तुम तो मेरी हो नेहा!” खुड़ैल ने ललकार कर कहा है। “मर गया विक्रांत!” उसने जगा दिया है नेहा को। “लेकिन मैं जिंदा हूं, मैं एक सच्चाई हूँ और मैं ही एक ऐसा सहारा हूँ जो तुम्हें डूबने से बचा सकता है।” उसने एक सत्य को नेहा के सामने रख दिया है।

दो पक्ष हैं – एक काला तो दूसरा सफेद! नेहा ने उन दोनों को परखा है, पहचाना है ओर उनकी संगत भी की है। उसे दोनों के सहवास का अंतर याद है और ये भी याद है कि एक गंगा है तो दूसरा सरस्वती! दोनों के साथ सुख तो है पर समान नहीं है।

“कौन बड़ा और कौन छोटा?” नेहा का मन पूछ रहा है। “पहाड़ तो पहाड़ है – एक के सामने दूसरा पहाड़। दोनों दो दिशाओं जैसे होते हैं बाबू और रमेश दत्त की तरह। और फिर बाबू तो अब विगत है! सच्चाई तो रमेश दत्त ही है जो उसे जेल से बाहर निकाल कर फिर से उन आसमानों की बात कर सकता है जिन्हें वो आज भी छू लेना चाहती है!

“वही चला चली .. वही हलचल और वही ठाट बाट खुड़ैल खड़ा कर देगा जबकि बाबू तो अब एक खयाल मात्र है!”

“लेकिन .. लेकिन नेहा ये खुड़ैल बाबू की तरह किसी क्रांति को जन्म नहीं दे सकता!” कोई है जो बोल पड़ा है। “काल खंड को ही रिलीज कर लोगी तो तुम्हारे तो वारे के न्यारे हो जाएंगे!” एक सच सामने आ कर खड़ा हो जाता है। “तुम्हें ये अमरता तो बाबू ही दे सकता है! ये खुड़ैल तो अब तुम्हें कांटों में ही घसीटेगा और तुम्हें नोच नोच कर खाएगा और .. और ..” बनते बिगड़ते विचार और घरघराती उसकी इच्छाओं का संसार नेहा को पूरी तरह से बेचैन कर देता है। उसे एक सुख साम्राज्य तो अभी भी चाहिये – वह एक बात तय कर लेती है! लेकिन इसे हासिल करने के लिए बाबू और खुड़ैल में से किसको चुने – यह तय ही नहीं हो पा रहा है।

“आजमगढ़ में मुमताज बेगम होगी तुम नेहा!” खुड़ैल फिर से बतियाने लगा है। “तुमने तो देखा है मेरा रुबाब – रुतबा और मेरा वैभव! सब तुम्हारे नाम लिख दूंगा – रानी! मैं और तुम जम कर लड़ेंगे – गजवा-ए-हिंद के लिए और हिन्दुस्तान में अपनी सल्तनत कायम करेंगे! तुम होगी हिन्दुस्तान की मलिका और हम होंगे शहंशाह-ए-आजम!” हंस रहा है खुड़ैल।

अचानक नेहा की आंखों के सामने आजमगढ़ आ कर ठहर जाता है।

नेहा को याद आता है आजमगढ़ का दृश्य जहां रमेश दत्त उर्फ कासिम की दो बीवियां अपने दर्जनों बच्चों के साथ रह सह रही हैं! दोनों हिन्दू हैं। दोनों को ही रमेश दत्त बम्बई से पटा कर आजमगढ़ ले गया है। दोनों को ही वही सपने दिखाए हैं जो अब नेहा को बता रहा है! दोनों का ही धर्म परिवर्तन हुआ है और दोनों को ही ..

और .. और नेहा को याद हो आता है वो दृश्य जब वह जान बचा कर आजमगढ़ से भागी थी और बम्बई में आकर शरण ली थी। तब .. तब वो प्रेग्नेंट थी। और तब इसी खुड़ैल का अंश उसके पेट में पलने लगा था। तब बड़ी ही चालाकी से नेहा के साथ निकाह पढ़ाने की फिराक में था। और अगर उस वक्त में ये अपनी चाल में कामयाब हो गया होता तो अब तक तो नेहा भी मुमताज बेगम बन बन गई होती! उसके भी दो चार बच्चे पैदा हो गये होते और उसे भी इस खुड1ैल ने अब तक फाड़कर फेंक चलाया होता और आजमगढ़ के इस डस्टबिन में उसे भी दफ्न कर दिया होता!

लौटी थी हाल बेहाल तो बाबू ने ही बिना किसी शर्त के उसे पैसे दिये थे – मुंह मांगे पैसे! और अगर प्रभा ने साथ न दिया होता तो वह तो कब की बर्बाद हो गई होती।

बाबू ने उस घटना की बाबत कभी कोई प्रश्न आज तक नहीं पूछा!

नेहा को लगता है कि वह अकेली है और मऊ मोहनपुर के गंगा घाट पर आ बैठी है! सामने पसरे गंगा के विस्तारों में वह फिर से अपने सपने तलाश रही है। वह महसूस रही है कि माधवी कांत का प्यार और सौहार्द उसकी टीसों को झेल रहा है। उसके पिराते अरमानों को सहज में सहेजती माधवी कांत मरहम लगा रही है नेहा के टूट गये मन प्राण पर।

और फिर न जाने कैसे गंगा के उस घाट से उसने बांसुरी के वही बोल सुने हैं!

“बाबू ने पुकारा है!” नेहा का स्वर फूटा है। “हॉं हॉं! बाबू ही तो है जो उसे आवाज दे रहा है!” उसने दोहराया है। “मैं .. मैं यहां हूँ .. नेहा!” वह बुलाते बाबू को सुन रही है।

“मैं .. आई!” अचानक नेहा ने बाबू को आवाज दी है। “मैं आई बाबू!” वह उत्तर दे रही है। “मेरे प्रिय बाबू .. मेरे मन प्राण बाबू .. मेरे महान बाबू, मैं .. मैं आती हूँ!” नेहा कहती जा रही है। “जाना मत .. बिछुड़ मत जाना बाबू – तुम्हें मेरी सौगंध है बाबू!” नेहा ने आज शर्त रख दी है।

सॉरी बाबू – नेहा टूट कर बिखर गई है लेकिन सरिता ने उसे छूआ तक नहीं हैं!

मेजर कृपाल वर्मा

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