चांदनी रात खिली खड़ी थी। केसर का महकता बदन उसके आस पास था। माथा सहलाती केसर की सुधड़ उंगलियां उसका संताप हरती लग रही थीं। चारों ओर खड़ी नीरवता बार बार उसे गिरे गिरे अहसासों से भरने लगती थीं!

“हिन्दू ..! हिन्दू ..! हिन्दू ..!” एक शोर था जो हेमू के कानों के पर्दे फाड़े दे रहा था।

हिन्दू होना जैसे हिन्दुस्तान में ही एक आरोप बन गया था। हिन्दू होना – एक खतरा होना था! हिन्दू होना – एक खाई थी, एक खंदक थी और कोई हिन्दू आगे जाता भी तो कैसे? राज अफगानों का था, पठानों का था और राज मुगलों का था! राजपूत हार चुके थे – हारते ही जा रहे थे और हिन्दू सरे शाम मिट रहे थे! डूबता हिन्दू धर्म, टूटते मंदिर, औरतों को उठा ले जाने का परिताप और माल असबाब की खुली लूट, चौपट हुए धंधे, थोपे गये कर-कर्जे और दुनिया भर की जुल्म जलालत जीने कहां दे रहे थे?

टीसें उठ रही थीं हेमू के हृदय में!

“क्यों सोच रहे हो ये सब साजन?” केसर ने आहिस्ता से पूछा था।

“अंधकार में अंधे की तरह हाथ पैर मार मार कर मंजिल खोज रहा हूँ, केसर!”

“और ..?” केसर ने हेमू को कुरेदा था।

“और जानना चाह रहा हूँ कि मेरी मौत कहां बैठी है?” जोरों से हंस पड़ा था हेमू। “केसर! मैंने महाराजा मान सिंह की मौत के बारे सुना है। मेरे सामने सिकंदर लोधी की मौत हुई और मेरी ही आंखों के सामने इब्राहिम लोधी मरा! कितना विचित्र खेल है – ये जीवन, ये मौत और मैं ..?”

“राणा सांगा हार कैसे गया साजन?” केसर ने बड़े विनम्र स्वर में पूछा था।

“दीपक की लौ पर झपटता पतंगा सोचता है कि वह उस लौ को सटक लेगा!” हंसा था हेमू। “लेकिन उस पागल को क्या पता कि वो आग है।” हेमू ने केसर की आंखों में देखा था। “तुम कैसे मारती हो – भेड़िये को?” उसने युद्ध का अर्थ समझाया था केसर को।

“क्या आप सा बाबर को परास्त कर सकते हैं?” एक अहम प्रश्न पूछ लिया था केसर ने।

“खाली हाथों तो नहीं केसर!” हेमू ने हाथ झाड़े थे। “लेकिन हां! बराबरी पर आकर तोपों के साथ लड़ाई हो तो बाबर बेचता क्या है?” उसने मुड़ कर केसर को देखा था। “उसी दिन .. उसी पल अगर इब्राहिम ने अपना हाथी न रोक दिया होता तो आज बाबर न होता!” टीस आया था हेमू।

केसर की आंखें भर आई थीं। वह उस रात सो नहीं पाई थी। उसने बार बार ईश्वर को पुकारा था, प्रार्थनाएं की थीं, देवी देवताओं को मनाया था, जगाया था और स्वयं भी जागती ही रही थी! और हेमू? चांद को चलते देखता रहा था .. भोर होने की आहट सुनता रहा था .. अकेला .. निपट अकेला!

महान सिंह आया था। महाराणा की हार की कहानियां लाया था और ये कि बाबर को भारत में कोई भी पसंद न करता था। लोग भयभीत थे। जानते थे कि बाबर ने तैमूर से भी बढ़ चढ़ कर जुल्म ढाने थे, मंदिर तोड़ने थे .. धर्म परिवर्तन कराना था और अब हिन्दू शायद ही ..

एक घोर निराशा के दोनों छोर पकड़े खड़ा था हेमू!

तभी दो अश्वारोही आते दिखाई दिये थे। हेमू जान गया था कि अब्दुल और माहिल ही थे। वह तनिक गमों से उबर सा आया था। वह अब अब्दुल की बगल में दबे किसी सामान को लगातार घूरे जा रहा था।

“सलाम सुलतान!” अब्दुल ने हंसते हुए कहा था। “ये संभालिए अपना खजाना!” उसने तुरंत ही बगल में दबाया सामान हेमू के हवाले कर दिया था। “टिका के कमाया है!” अब्दुल हंस रहा था। “और अब तो हम कामयाब होंगे सुलतान!” अब्दुल का चेहरा फूल सा खिला था।

“मेरा भी प्रणाम स्वीकारें सम्राट!” माहिल भी बोल पड़ा था। “मैं न कहता था कि आप को ..”

“पहेली क्या है?” हेमू ने प्रसन्न होते हुए पूछा था।

“ये सुलतान कि ..” अब्दुल रुका था। “आप के सारे दुख दूर!” उसने ऊंचे स्वर में कहा था। “हमें शोरे का ग्राहक भी मिल गया और तोपों का सौदा भी तय हो गया।” अब्दुल ने सूचना दी थी। “अब रास्ते में कोई रोड़ा नहीं!” उसने हेमू को घूरा था।

“और अब आप ना न कहेंगे!” माहिल की मांग थी। “मैंने अब फौजें खड़ी कर देनी हैं!” उसने कहा था।

“पर कैसे माहिल?”

“मेदनी राय का न्योता है – आप के लिए!” माहिल ने प्रसन्न होकर कहा था। “बाबर ने हमला करना है! अब आप संभालें किले को! बाबर को परास्त करने का मौका ..?” माहिल हेमू को देखने लगा था।

एक पल में हेमू ने चंदेरी और चंदेरी के किले को देख लिया था और नाप लिया था! वह मेदनी राय को भी जानता था। वह कोई लड़ाका न था। निरा व्यापारी था और उसके सैनिक भी किराये के टट्टू जैसे ही थे।

“नहीं माहिल!” साफ नाट गया था हेमू। “किला तोपों का क्या कर लेगा?” वह कह रहा था। “किलों की तो अब उम्र गई!” उसने साफ साफ कहा था। “तोपों का मुकाबला – माने कि तोप ..!”

माहिल का चेहरा उतर गया था। न जाने वो कैसी कैसी आशाएं लेकर हेमू के पास लौटा था।

“मैंने मेदनी राय से ..?” माहिल कठिनाई से कह रहा था।

“लेकिन वही होगा – जो इब्राहिम के साथ हुआ और जो राणा सांगा के साथ हुआ!” हेमू का स्वर संयत था। “किले में बैठ कर मौत का इंतजार करना या सामने खड़ी मौत के मुंह में चले जाना?” हेमू ने माहिल के कंधे थपथपाए थे। “माहिल! हर बार वही गलती करना ..?”

“आप ठीक कह रहे हैं सुलतान!” माहिल तनिक संभला था। “भरोसा तो मुझे भी नहीं है – मेदनी पर! पर मैं तो आप पर भरोसा लेकर आया था ..”

“भरोसे को तो कायम रक्खो!” हेमू ने हंस कर कहा था। “अब्दुल की सुनते हैं अब!” वह अब्दुल की ओर मुड़ा था।

अब्दुल चौकन्ना होकर हेमू के मुकाबले में आ गया था!

“मैं तो व्यापारी हूँ, जनाब!” हंसा था अब्दुल। “सो सारी साठ गांठ करके लौटा हूँ।” वह पूर्ण आत्मविश्वास के साथ बोल रहा था। “पुर्तगालियों से सब तय हो चुका है। उन्हें शोरा चाहिये – बहुत भारी तादाद में! उनके पास तोपें हैं। उन्होंने कैलीकट और दामन दीउ में कारखाने लगाए हैं! माल ले जाते हैं और वहां का माल यहां लाते हैं!” अब्दुल रुका था। उसने खिल गये हेमू के चेहरे को देखा था। “और अब ये अफगान और पठानों के मित्र नहीं रहे हैं।” सूचना दी थी अब्दुल ने। “उन्हें हमारी जरूरत है और हमें उनकी!” उसने तोड़ किया था।

“लेकिन अब्दुल ..?”

“अरे सुलतान! ऐसा ग्राहक हमें कभी नहीं मिलेगा .. कभी नहीं मिलेगा!” अब्दुल ने अपनी बात को जोर देकर समझाया था। “ईमानदार लोग हैं! बात के धनी हैं!” अब्दुल रुका था। “गुजरात है कितना दूर हमसे?” अब्दुल ने खास मुद्दा सामने धरा था। “आना जाना, माल ले जाना लाना सब आसान है! रातों में रेगिस्तान में कौन क्या करता है ये तो अल्लाह भी नहीं जानता सुलतान! किसी को कानों कान खबर भी न लगेगी और हमारा काम चल पड़ेगा!” अब्दुल रुका था।

“और यहां से आगे का काम मेरा रहा!” माहिल भी बोल पड़ा था। “कितने ही अफगान पठान राजपूत और रोहिले हैं जो काम की तलाश में भटकते रहते हैं! आप का नाम तो सब जानते हैं। आप का काम भी कोई नहीं भूला है! बादलगढ़ की लड़ाई सब को याद है!” उसने हेमू की आंखों में झांका था। “हॉं कह दें आप!” उसने विनम्र निवेदन किया था।

“उन्होंने कहा है – वो हमारा तोपों का कारखाना लगवा देंगे! अपने तोपची देंगे और सब कुछ मुकम्मल और तैयार कर के देंगे!”

“लेंगे क्या?” हेमू ने पूछा था।

“शोरा!” अब्दुल ने हंस कर उत्तर दिया था। “उनकी मांग बहुत ऊँची है सुलतान! हमारा गन बैठ जाएगा।” अब्दुल आश्वस्त था। “व्यापारी हैं! और भी छत्तीस चीजें खरीदेंगे! आप का खजाना मैं खाली नहीं होने दूंगा!” अब्दुल ने जिम्मा ओट लिया था।

तीनों आदमियों ने अब एक दूसरे को उलट पलट कर देखा था और अब तीनों प्रसन्न थे। तीनों को अपने अपने प्रश्नों के उत्तर मिल गये थे। तीनों की मंजिल एक थी। और तीनों के मन भी मिल गये थे।

“तोपों का कारखाना कहां लगेगा?” अब्दुल का प्रश्न आया था। “ऐसा कोई ठिकाना जो एकदम गुप्त, आम आंख से दूर और सुविधाओं से भरपूर!” हंस गया था अब्दुल।

“आज से ही खोज आरम्भ!” हेमू ने बात मान ली थी। “महान सिंह!” उसने आवाज लगाई थी। “मेरा घोड़ा जाने के लिए तैयार करो!” उसने कहा था। “और सुनो! तुम भी अपना घोड़ा मंगवा लो!” हेमू का आदेश था।

वो चारों उस चांदनी रात में चोरों की तरह चुपचाप एक सल्तनत ढूंढने के लिए निकल पड़े थे। चारों मौन थे पर उस मौन में भरे मुखर में लगातार एक वार्तालाप चल रहा था – नया साम्राज्य .. नया सम्राट .. नया सवेरा .. मुगलों का अंत और हिन्दुओं का उदय!

हेमू महसूस रहा था कि वह अपने साम्राज्य की खैर खबर लेने निकला था – चुपचाप! और अब वह हर रात इसी तरह निकला करेगा और देखा करेगा कि उसका काम काज कैसा चल रहा था। वह लोगों के दुख दर्द बांटेगा .. वह मुगलिया आतंक का अंत ला देगा .. वह हिन्दुस्तान की बंद छुड़ाएगा और वह ..

“हमारा और आपका दुश्मन एक है – दो नहीं!” पुर्तगाली बता रहे थे। “हमने अरब सागर में इन लोगों की दादागीरी समाप्त कर दी है। अगर आप साथ आते हैं तो हम मिल कर इन्हें ..”

हेमू को उस चांदनी रात में घोड़े की पीठ पर बैठे बैठे महसूस हो रहा था कि उसने अभी अभी विश्व विजय कर ली है! उसने देख लिया था कि इस्लाम का गढ़ अब टूटेगा! अब उस्मानिया और खुरासान का भी अंत आयेगा, उनका प्रभाव खत्म होगा और हिन्दुओं का एक बड़ा मार्ग प्रशस्त होगा! पुर्तगाल के साथ साथ तो वह पूरे पश्चिम से जुड़ जाएगा और तब हिन्दू अकेले न रह जाएंगे और फिर ये मुसलमान मनमानी न कर पाएंगे!

उस दिन हेमू का हिन्दू राष्ट्र का स्वप्न हरा हो अचानक ही पूरे भारत में लहलहा उठा था!

मेजर कृपाल वर्मा

मेजर कृपाल वर्मा

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