हेमू ने महाराणा सांगा के दरबार में प्रवेश किया था।
आश्चर्य चकित हेमू समझ ही न पा रहा था कि पहले वो क्या देखे, किसे सराहे, किससे बतियाए या कि किसका हो जाए? वहां तो सब कुछ ही बेजोड़ था – दर्शनीय था और था सब गरिमामय और शाही आन बान शान में गर्क और सराहनीय! हेमू की आंखों में आज एक नया सा उजास सा कुछ समा गया था!
फिर उसने गजराज की भव्यता से सिंहासन पर बैठे महाराणा संग्राम सिंह को आंखों में भर कर देखा था। कैसा सजीला, छबीला और बांका वीर था राणा? हेमू का मन प्रसन्न हो गया था। पहली बार उसने जैसे एक महा मानव के दर्शन किये थे ऐसा अहसास हुआ था उसे।
महाराणा को प्रणाम करने के बाद हेमू ने आसन ग्रहण किया था।
दरबार में सन्नाटा भर था। गजब की शांति थी। हर आंख, हर कान और हर मन हेमू पर टिका था। हेमू – एक दर्शनीय युवक बड़े ही सौष्ठव के साथ दरबार में चलकर आया था और अब किसी अंजान घटना के इंतजार में बैठा था – शांत।
“मैं तो सोचता रहा था हेमू कि जंग में मिलेंगे हम?” हंस रहे थे महाराणा सांगा। उन्हें हेमू अचानक ही बहुत आकर्षक लगा था! लगा था – हेमू कोई साधारण सेनापति नहीं था।
“लेकिन ..?” हाथ झाड़े थे राणा सांगा ने और परम वीर हेमू को राणा देखते ही रहे थे।
“दुर्भाग्य ही रहा शायद ..” हेमू ने बड़े ही संयत स्वर में कहा था।
“नहीं!” महाराणा ने बात काटी थी। “शायद ये सौभाग्य रहा!” वह मुसकुराए थे। “वरना हम दोनों में से शायद एक ही जिंदा बचता!” एक कटु सत्य महाराणा ने भरी सभा के सामने रख दिया था।
हंसी थी, खुशी थी, एक चुहल चल पड़ी थी और हर आंख अब हेमू को मुड़ मुड़ कर देख रही थी। हर महावीर की आंखों के सामने महाराणा और हेमू जंग लड़ते नजर आ रहे थे। जहां महाराणा एक अनुभवी लड़ाके थे वहीं हेमू कोई दुधमुंहा बच्चा न था। और वो बच्चा .. जंग करता वो बच्चा .. वार पर वार करता बच्चा कोई अद्भुत बच्चा था जो अब जंग जीतने को ही था।
“क्या फरमाइश है, सुलतान की?” महाराणा सांगा का सीधा प्रश्न था।
“जी .. वो .. शहजादे की बंद से रिहाई?” हेमू ने बड़ी ही विनम्रता से उत्तर दिया था।
“तो ..?” अबकी बार हंसे थे महाराणा। “सांपों का तो सौदा होता है, हेमू!” उन्होंने विनोद पूर्वक कहा था। “लगाओ बोली ..?” वह पूछ रहे थे।
“जो .. आप कहें ..!” हेमू तनिक सा मुसकराया था।
न जाने क्यों और कैसे हेमू ने महाराणा का दिल जीत लिया था। अगर दिल्ली से कोई अफगान शहजादे की बंद छुड़ाने आया होता तो उनके अलग ही मंसूबे होते और अलग अलग शर्तें होतीं तथा मोटा सौदा होता! वह चाहते थे कि इब्राहिम लोधी को एहसास कराएं उसकी औकात का और ..
हेमू डरा हुआ था। वह जानता था कि महाराणा ने कठोर दंड देने के लिहाज से ही कोई निर्णय लेना था। वह जानता था कि इब्राहिम लोधी जैसे शासक के साथ हर कोई गोटें खेलना ही बेहतर समझता था। लेकिन कहीं किसी दूर के स्थान पर हेमू को एक आशा किरण नजर आ रही थी।
“ले जाओ!” महाराणा एक लंबी सोच के बाद बोले थे। उनका आदेश एक दम बेबाक था। “जो लाए हो वही दे जाओ!” हंस पड़े थे महाराणा।
आज दरबारियों को भी न्याय करते राणा बहुत भले लगे थे। न जाने क्यों हेमू के साथ सभी सहृदय थे। सब को हेमू का व्यक्तित्व भा गया था। हर कोई अब हेमू का हो गया था और ..
“सब सहज में निपट गया सुलतान!” मुरीद अफगान ने प्रसन्नता पूर्वक कहा था। “आप न होते तो ये यों न निपटता!” वह बता रहा था। “न जाने आप पर क्यों इतने मेहरबान हैं महाराणा?” वह प्रफुल्लित था। “लेकिन लोधी सुलतान से खुश नहीं हैं – राणा!” उसने चुपके से हेमू को बताया था।
फिर एक भिन्न प्रकार की गहमागहमी से दरबार भर गया था।
दरबार में आये वीर, महावीर, राणा और महाराणा सब अब हेमू से मिल भेंट रहे थे। सब दिल्ली का हाल पूछ रहे थे। सब हेमू के बारे में जान पूछ कर रहे थे। और सबने समवेत स्वर में हेमू की धौलपुर विजय और बादलगढ़ में किये पराक्रम की प्रशंसा की थी! हेमू के शौर्य का सूरज अब चमकने लगा था।
आज कोई उत्सव था चित्तौड़गढ़ में ऐसा लग रहा था।
रनिवासों में धूम मची थी। केसर को पदमावत का पुनर्जन्म कह कर उन सब ने मान लिया था कि वह अपने देस को देखने लौटी थी। केसर को सब ने मिल जुल कर हूबहू पदमावत की पोशाक पहना कर सजाया वजाया था। अब शाही काफिला चित्तौड़गढ़ की सैर पर निकला था।
हेमू भी एक दामाद की हैसियत से उस मजमे के साथ थे और एक शाही विदूषक मेहमानों को चित्तौड़गढ़ के इतिहास से अवगत कराता जा रहा था।
“बप्पा रावल को चित्तौड़गढ़ सोलंकी राजपूतों ने दहेज में दिया था।” विदूषक ने कहा था और हेमू को देख कर हंस गया था। “चित्तौड़गढ़ बेजोड़ है, अजेय है और इसका निर्माण चित्रांगदा मोरी ने कराया था। दो नदियों – वरच और गंभीरी के बीच स्थित इस दुर्ग का कोई सानी नहीं!” उसने निगाहें उठा कर पूरी जमात को देखा था।
हेमू और केसर अब आंखें भर भर कर चित्तौड़गढ़ को देख रहे थे!
“तेरह सौ तीन में इस धवल चंद्रमा जैसे दुर्ग को अलाउद्दीन खिलजी ने राहू केतु बन काटा था। विध्वंस किया था .. तीस हजार हिन्दुओं को हाथियों से कुचल कर मारा था .. सब नष्ट कर दिया था .. जला दिया था और ..”
“क्यों .. क्यों .. किया था – नरसंहार?” केसर से रहा न गया था तो पूछा था।
“इसलिए रानी सा कि उसे पदमावत न मिली थी!” विदूषक का स्वर गंभीर था। “वह आठ महीनों तक उस चित्तौड़ी पहाड़ी पर पड़ा रहा था और उसकी सेना ने पूरे चित्तौड़गढ़ को घेरा हुआ था। दो बार उसने हमला किया था लेकिन महाराजा रतन सिंह ने उसे परास्त किया था।
“पदमावत ..?” केसर ही फिर बोली थी। उसे हर कोई घूर रहा था जैसे पदमावत आज अपने पुरातन का जायजा लेने आई थी – ऐसा लग रहा था।
“राजा रतन सिंह के एक दरबारी दुश्मन ने दिल्ली जाकर खिलजी को रानी पद्मिनी के सौंदर्य के बारे बताया था। इस राघव ने जो खिलजी के भीतर इश्क की आग जलाई थी उसी के वशीभूत हुआ वो दिल्ली से चित्तौड़ चला आया था। उसने पदमावत को देखा था और ईमान हार बैठा था।” विदूषक चुप हो गया था।
एक सन्नाटा फैल गया था। लोग फिर से केसर को देखने लगे थे। केसर को अजीब सा लगा था। उसे लग रहा था जैसे वह वास्तव में ही पदमावत थी और अब ..
“मिली उसे पदमावत?” केसर ने प्रश्न पूछा था।
“नहीं!” विदूषक ने गंभीर स्वर में कहा था। “खिलजी ने किले पर वार किया था। हर ओर से हल्ला बोला था। किले के भीतर पत्थर फेंके थे और आग लगा दी थी। पूरा का पूरा चित्तौड़गढ़ धू धू कर जल उठा था और खिलजी को अब उम्मीद थी कि महाराजा रतन सिंह स्वयं पदमावत को लेकर हाजिर होगा ..”
“हुआ?” केसर ने फिर पूछा था। अब उसे हैरानी हो रही थी।
“नहीं!” विदूषक ने सर हिलाया था। “रानी ने अपनी सखी सहेलियों को साथ लेकर जौहर की जंग लड़ी थी। पदमावत ने अग्निकुंड में पहली छलांग लगाई थी और उसके बाद तो एक के बाद एक और तमाम जल मरीं ..” विदूषक गंभीर था। उसकी आंखें सजल थीं। सन्नाटा था चारों ओर!
लग रहा था – वो सब होते जौहर के दृश्य को सजल आंखों से देख रहे थे। और .. और केसर रो रही थी .. जारो कतार हो हो कर वो रोए जा रही थी!
“पदमावत तो जल मरी थी और महाराजा रतन सिंह ..” विदूषक ने आसमान की ओर देखा था।
उस रोती पदमावत को रनिवास की रानियों ने अंक में भर लिया था।
“भाग का लिखा मिटता कब है केसर!” महारानी ने दुलार से समझाया था उसे। “बुरा वक्त किसी को माफ नहीं करता मेरी बहिन!”
और हेमू खड़ा खड़ा उस आलीशान दुर्ग के बार बार दर्शन करने के बाद भी प्यासा सा रह जाता था।
“बड़ा फर्क है चित्तौड़गढ़ और बादलगढ़ में, कुंवर सा!” विदूषक ही बता रहा था। “आप चाहें भी तो ..?”
“अरे नहीं भाई!” हेमू भारी कंठ से बोला था। “मेरी आंखें तो शर्म के आंसू भी नहीं समेट पा रहीं दोस्त!” हेमू ने कठिनाई से रोका था उठती रुलाई को!
और दिवंगत महाराजा रतन सिंह ने हेमू की दी श्रद्धांजलि कबूल कर ली थी।
मेजर कृपाल वर्मा