हेमू हिन्दू संस्कृति के प्रतीक जैसे ग्वालियर के वैभव को ऑंखें भर भर कर देख रहा था। क्यों हारा ग्वालियर – वह इस प्रश्न का उत्तर खोज रहा था। जैसे साथ साथ चलते महाराजा विक्रम जीत, हारे थके विक्रम जीत और परास्त हुए विक्रम जीत हेमू को अच्छे न लग रहे थे! एक अपराध बोध था जो उसके मन में समाता चला जा रहा था!
“कैसा लग रहा है?” विक्रम जीत सिंह ने ठहर कर हेमू से पूछा था।
“अच्छा नहीं लग रहा है!” हेमू ने गंभीर स्वर में कहा था। “मुझे अपनी जीत की खुशी नहीं है पर हॉं, आपकी हार का गम अवश्य है!” हेमू जैसे रो ही पड़ना चाहता था। “ग्वालियर को परास्त नहीं होना चाहिये था!” उसने टीस कर कहा था।
निराशा भरी परास्त ऑंखों से विक्रम जीत सिंह हेमू को लम्बे पलों तक देखते रहे थे!
“जो सुना था – तुम वही निकले!” महाराजा साहब बोले थे। “तुम्हें देख कर मुझे महाराजा मान सिंह याद हो आये हैं!” तनिक हंसे थे विक्रम जीत सिंह। “सच मानो हेमू! सब कुछ वैसा ही है – तुम में!” उन्होंने कहीं दूर देखा था।
“मुझे एक ही शिकायत है – उनसे!” हेमू कह रहा था। “सब सामर्थ्य होने के बाद कभी उन्होंने दिल्ली पर आक्रमण क्यों नहीं किया? आगरा ही ले लेते?”
“ग्रह कलह में बुरी तरह से उलझ गये थे!” विक्रम जीत ने स्पष्ट कहा था। “ये देख रहे हो – गुजरी महल! ये उन्होंने गुजरी रानी मृगनयनी के लिये बनवाया था। चूंकि राजपूत रानियों ने उनका स्वागत नहीं किया था और मृगनयनी उनकी प्रेमिका थी! शिकार पर गये थे तो मुलाकात हो गई थी। दो लड़ते सांडों के सींग पकड़ कर जब महाराजा साहब ने एक गूजर लड़की को देखा था तो दंग रह गये थे! फिर जब ..”
“कहते हैं – अच्छा गाती भी थीं?” हेमू ने पूछा था।
“हॉं! आइये – उनका संगीत सभागार दिखाता हूँ। आप मानेंगे नहीं कि जब वो दोनों ध्रुपद साथ साथ गाते थे तो पुष्प वर्षा होने लगती थी।” रुके थे विक्रम जीत। “और इसी तरह की एक सभा देर रात तक चल रही थी, तभी राजपूत हमलावरों ने उनकी हत्या कर दी थी।” विक्रम जीत सिंह की ऑंखें नम थीं।
“इतना छोटा क्यों सोचते हैं हम लोग?” हेमू का सामूहिक प्रश्न था जिसका किसी को कोई उत्तर न देना था। “न जाने क्यों .. हम हारते ही चले जा रहे हैं?” हेमू की आवाज विवश थी, बेबस थी।
“तुम्हें देख कर तो मेरी आस जागी है हेमू!” महाराजा विक्रम जीत ने प्रसन्न होकर कहा था।
“वो देखिये! सुलतान इब्राहिम लोधी पहुंच रहे हैं!” हेमू बता रहा था। “अब आप ..?” उसने महाराजा विक्रम जीत सिंह को अपांग देखा था। “कहॉं रहेंगे?”
“विक्रम महल में ..”
“रहिये!” कह कर हेमू चला गया था।
कादिर को मरने तक की फुरसत नहीं थी!
इब्राहिम लोधी का स्वागत हेमू ने किया था। हेमू को देखते ही सुलतान इब्राहिम लोधी मुसकुराए थे। जो हेमू ने कर दिखाया था – वह तो बेजोड़ ही था। अब वह ग्वालियर के मालिक थे। लेकिन अभी उन्हें सांस भी नहीं आई थी कि उनके चचेरे भाई – आजम खान शेरवानी फुंकारते फुंकारते उनसे आ भिड़े थे!
“ग्वालियर मेरा है!” उन्होंने दहाड़ते हुए कहा था। मैं लड़ा हूँ! मेरी सेना का खून बहा है! मैं .. मैं मरते मरते बचा हूँ!” उसने सीधा इब्राहिम लोधी की ऑंखों में देखा था।
लेकिन तभी इब्राहिम लोधी ने हेमू को प्रश्न वाचक निगाहों से देखा था। शायद पूछा था कि ये शेरवानी मरा क्यों नहीं? ये बचा कैसे? और उसी तरह हेमू ने भी मूक उत्तर दिया था – आपका चचेरा है, जनाब!
“गलती मेरी है भाई जान!” हंस कर कहा था इब्राहिम ने। “और जब मरे नहीं हो तो जिंदा रहने की खुशी तो मना लो!”
“मुझे तो ग्वालियर चाहिये सुलतान!” फिर से गर्जा था शेरवानी। “ये हक मेरा है! मैं इसे लेकर रहूंगा!” उसने अब पलटकर हेमू को देखा था।
“इन्हें नजरबंद कर लो!” इब्राहिम लोधी ने हुक्म दागा था। “कैद में डाल दो!” अब उसकी आवाज में रोष था।
अब हेमू ने कादिर को देखा था। कादिर ने बिना किसी विलम्ब के आजम खान शेरवानी को गले से पकड़ कर उठा लिया था और ले जाकर कैद में डाल दिया था!
अब सल्तनत इब्राहिम लोधी की थी – इस बात की जैसे मुनादी हो गई थी! और समूची रात लगा कर सुबह उनके होने वाले दरबार की तैयारियां होती रही थीं।
लेकिन हेमू आजम खान शेरवानी की ऑंखों में उसके लिए उगी नफरत को भूल न पाया था!
ग्वालियर में आज एक नई रौनक लगी थी।
पंद्रह साल के सतत प्रयत्न के बाद आज लोधियों ने ग्वालियर पर अपना झंडा फहरा दिया था! आम जनता को दिल्ली की हुई फतह का पता था और ये भी पता था कि ये जीत हेमू की वजह से हुई थी! हेमू का नाम और काम अनजाने में ही लोगों तक पहुंच गया था।
“महाराजा विक्रम जीत सिंह!” सुलतान इब्राहिम लोधी ने गुहार जैसी लगाई थी। “कहिये क्या सलूक करें आप के साथ ..?” वह हंसा था। “ग्वालियर तो हार गये आप!” उसने ऐलान जैसा किया था।
महाराजा विक्रम जीत सिंह मौन की मूर्ति बने एक मुजरिम की तरह दरबार में खड़े खड़े अपने आ गये दुर्दिन को कोस रहे थे!
“क्या चाहिये?” सुलतान इब्राहिम लोधी ने फिर से पूछा था।
“ग्वालियर! कीमत देने को तैयार हूँ। एक बार ..” महाराजा विक्रम जीत सिंह ने मांग की थी।
“नहीं मिलेगा ग्वालियर आपको!” सुलतान ने घोषणा जैसी की थी। “तीन तीन बार की गद्दारी की सजा क्या होती है महाराज? फिर भी हम आपको माफ करते हैं!” सुलतान इब्राहिम लोधी ने हेमू की ऑंखों में देख कर कहा था – दिया प्राण दान! आपको हम शाहाबाद की जागीर देते हैं! आप अब दिल्ली के वफादारों में गिने जाएंगे!” हंसा था इब्राहिम लोधी। “और तेज पाल तौमर को हम अपना सिपहसालार बनाते हैं!” इब्राहिम लोधी ने घोषणा की थी।
कहीं एक प्रसन्नता की लहर दौड़ गई थी। किसी को भी सुलतान इब्राहिम लोधी से इस तरह के ऐलानों की आशा न थी। सब जानते थे कि अब लोधियों ने जुल्म ढाने थे और बेढ़ब जुल्म ढाने थे! लेकिन आज तो ये कोई नया ही सूरज उदय हुआ था!
हेमू ने बैठे बैठे ही अनुमान लगा लिया था कि इब्राहिम लोधी ने सिकंदर लोधी की रीति नीति को ही अपनाने का निर्णय ले लिया है। हिन्दुओं को बगल में लेकर अब वह अपने बागी हुए अफगानों को संभाल देगा और भविष्य में भी सल्तनत का विस्तार करने के लिए उसने हिन्दुओं को साथ लेकर चलने का ध्येय बना लिया था!
कादिर के इशारे पर आजम खान शेरवानी को लाकर दरबार में खड़ा कर दिया था। वह भी अब एक मुजरिम की तरह खड़ा था। उसका चेहरा बिगड़ा हुआ था। ग्वालियर लेने का सपना ऑंखों में से पुछ गया था। घोर निराशा में डूबा था वह और अपने प्राणों की खैर मना रहा था। उसे सुलतान इब्राहिम लोधी का रुख-मुख साफ साफ दिखाई देने लगा था।
“क्या चाहिये ..?” सुलतान इब्राहिम लोधी ने आजम खान शेरवानी से सीधा प्रश्न पूछा था।
आजम खान शेरवानी कुछ निर्णय न कर पा रहा था। उसे अब अपने सितारे डूबते नजर आ रहे थे। फिर भी वह चाहता था कि वह अपना हक अवश्य मांगे!
“ग्वालियर मेरा है! मैं लड़ा हूँ! मैंने घाव खाए हैं .. मैंने ..” वह भावुक हो आया था।
“गद्दारी की बू आ रही है – हमें!” सुलतान इब्राहिम लोधी ने कठोर स्वर में कहा था। “हमें पता था आजम कि तुम्हारे इरादे नेक न थे!” सुलतान ने खुलासा किया था। “हम तुम्हें इस बार सजा-ए-मौत नहीं सुनाते! एक मौका और देते हैं। लेकिन अब तुम्हारे अधीन केवल पांच हजार रिसाला, दस हाथी और केवल दो हजार सैनिक रखने की इजाजत होगी। दीपालपुर अब दोगुना खर्चा दिल्ली भेजेगा!” सुलतान लोधी ने कड़ी निगाह से आजम खान शेरवानी को घूरा था। “कुछ कहना है ..?”
चुप ही खड़ा रहा था आजम खान शेरवानी!
अब उसकी समझ में सारा खेल आ गया था। वह समझ गया था कि अब इब्राहिम लोधी ने अफगानों को कुछ भी नहीं देना! कोई बंटवारा वह नहीं करेगा। ग्वालियर हाथ आने के बाद अब वह दिल्ली, आगरा और ग्वालियर को लेकर एक बड़ा साम्राज्य बनाएगा जिसमें हम अफगानों का कोई सरोकार न होगा! और न ही इब्राहिम लोधी जलाल को उसका हक बांटेगा! जलाल कभी भी बादशाह न बनेगा!
“जो तुम सोच रहे हो इब्राहिम वो होगा नहीं!” आजम खान शेरवानी पर क्रोध चढ़ आया था। घोर निराशा के बाद उसने अपने मन के भाव कह डाले थे। “हेमू को साथ लेकर तुम गलती कर रहे हो!” उसने हेमू को भरपूर निगाहों से देखा था। “यही हेमू एक दिन हिन्दुओं को लेकर खड़ा हो जाएगा और हम सब अफगानों को हिन्दुस्तान से कान पकड़ कर बाहर निकाल देगा!” एक तरह की चेतावनी जैसी दी थी आजम खान शेरवानी ने।
सुलतान इब्राहिम लोधी ने भरपूर निगाहों से शेर जैसी भव्यता के साथ बैठे हेमू को देखा था! हेमू गद्दार नहीं था वह जानता था। हेमू बांका वीर था वह मानता था। हेमू हिन्दू था – ये भी सर्व विदित था! लेकिन हेमू कितना महत्वाकांक्षी था – यह अभी तक कोई नहीं जानता था!
हेमू के चेहरे पर भी इब्राहिम लोधी को कोई प्रतिक्रिया दिखाई न दी थी!
ग्वालियर फतह करने की उम्मीद के साथ आये आजम खान शेरवानी को कुछ भी हाथ न लगा था! और जो लाए थे उसे भी देकर वह दीपालपुर लौट गये थे!