चढ़ाई करती सिकंदर की फौजों ने ग्वालियर को टिड्डी दल की तरह घेर लिया था। अंधकार छा गया था आसमान पर। आस-पास के किले हमारे कब्जे में थे। हमारे घोड़े हिनहिना रहे थे, हमारे हाथी चिंघाड़ रहे थे और हमारे सिपाही दहाड़ रहे थे। ग्वालियर में बैठे महाराजा मान सिंह थर-थर कांप रहे थे – हम जानते थे। और हम ये भी जानते थे कि शायद वो ग्वालियर छोड़ कर भाग लिए हों ..
तौमर, जाट, गूजर और राजपूतों के होंसले पस्त थे। ये इस्लाम की आंधी थी और ये जिहाद थी जिसमें हिन्दुओं को हराकर इस्लाम की स्थापना करना हमारा ध्येय था! और अब ग्वालियर हम से दूर न था!
हाथियों से पहले घोड़ों ने चंबल पार की थी।
“सच मानो हेमू! चंबल के जल को जब मैंने देखा था तो मेरा ही चेहरा मुझे दिखा था। पानी में पड़ा एक एक पत्थर मुझे दिखाई दिया था। शीशे सा साफ पानी था। मैंने पहली बार देखा था किसी दरिया को – इतना साफ, इतना पाक और इतना शांत! मन हुआ था कि मैं इस चंबल को सलाम मारूं। लेकिन इतना वक्त था कहां? हम छम छमा छम छम – हमारे घोड़े चंबल को पार कर गये थे!”
हाथियों ने दाईं ओर से ग्वालियर को घेरा था तो सामने से सिकंदर की सेनाएं जूझने को तैयार खड़ी थीं। बाए से हमने हमला करना था। हमने अपने घोड़ों को सरपट दौड़ाते हुए ग्वालियर के आर पार हो जाना था। घुड़ सवारों के होंसले बुलंद थे। क्यों कि अब हमें मौका मिला था – लोगों के साथ लूट पाट करने का, उनकी औरतें उठाने का और उन्हें लहू लुहान कर देने का। उनकी सरजमीन पर इस्लाम की दहशत फैलाने का और हिन्दुओं के कठोर कलेजे दहला देने का ध्येय था हमारा!
हेमू का कलेजा कांप उठा था।
“हाथियों के हुजूम ने महाराजा मान सिंह के महलों पर धावा बोलना था।” मुरीद अफगान बताने लगा था। “महाराजा और उनकी महारानी मृगनयनी को हिरासत में लेना सिकंदर लोधी का इरादा था! वह चाहता था कि मृगनयनी को देखे। बहुत सुना था सभी ने कि वह महाराजा के साथ लड़ाई लड़ती थी, बहुत नेक थी, सुंदर थी, सती थी और कहते थे कि ..”
“और ग्वालियर की फौजें ..?” हिचकते हुए हेमू ने प्रश्न पूछा था।
“कहीं कोई मुकाबले के लिए आता ही न लग रहा था!” मुरीद अफगान ने बताया था। “हमें तो उम्मीद थी कि रण होगा – जम कर होगा और मैं तो चाहता कि उस महान महाराजा के दर्शन तो करूं, उससे दो दो हाथ तो करूं – जिसे लोग पूजते थे!”
“सात घोड़े मर गये जनाब!” मुझे एक अटपटी सूचना मिली थी। मैं चौंका था। मैंने शकिया निगाहों से खबर लाए सैनिक को घूरा था।
“क्या बकता है ..?” मैं गर्जा था। “बेवकूफ बना रहा है?” मैंने उसे लताड़ा था।
“सच, जनाब! तड़प तड़प कर मर गये! पता नहीं क्या बीमारी लगी? खूब दौड़ भाग की लेकिन ..”
मैं पलटा था। मैंने स्वयं जा कर मरे घोड़ों को देखना चाहा था।
“जनाब! सोलह सैनिक मर गये! तड़प तड़प कर जान दे दी! पता नहीं क्या बीमारी लगी? बचा ही न पाए!” एक और नई शिकायत आ गई थी।
और फिर तो हो हल्ला सा मच गया था। ये मरा वो मरा – का एक शोर उठ बैठा था। हमले के लिए तैयार फौजों पर न जाने कौन सी बला ने वार किया था? कुछ समझ में ही न आ रहा था। हाकिम हुक्काम सब दौड़ पड़े थे। लेकिन वहां मरने वाले मौका ही न दे रहे थे। लाशें बिछने लगी थीं। घोड़े, हाथी और सिपाही सब मरने लगे थे!
“क्या है ये?” मैंने हकीम से गुस्से में आ कर पूछा था। “सर कलम कर दूंगा तेरा!” मैं नंगी तलवार लेकर हकीम पर दौड़ा था।
“महामारी है – जनाब!” हकीम गिड़गिड़ाया था। “ये नहीं रुकेगी!” उसने साफ साफ कहा था।
अब क्या हो? मेरे तो होंसले उड़ गये थे। मैं कांप रहा था। मैं डर गया था। मेरा मन कह रहा था – जरूर जरूर यह चंबल पार करने का कहर था! ये कोई महामारी नहीं – इस पवित्र दरिया ने हम पर तोहमत छोड़ दी थी और अब हम ..
“महाराजा मान सिंह ने जादू छुड़वाया है जनाब!” लोग मुझे बताने लग रहे थे। “यही तो इन हिन्दुओं का जादू टोना है! इनके तो देवी देवता भी लड़ते हैं, जनाब!”
हैरान परेशान सिकंदर लोधी ने अपनी सेना के मरते सैनिक, घोड़े और हाथियों को नजर भर देख कर अनुमान लगा लिया था कि अब तो ग्वालियर हाथ से गया! हमला करना तो दूर जान सलामती के लिए भी दुआ करने के अलावा और कोई उपाय न बचा था!
हो तो क्या हो? प्रश्न सामने खड़ा था। यूं दिल्ली लौट लेना – खाली हाथ और बिना किसी सूचना, सुलह सफाई या कि ..? अचानक एक विचार उन्हें सूझा था। ‘कोई चाल चली जाए’ उनका मन हुआ था। ऐसी कोई चाल – जिसमें न सांप मरे न लाठी टूटे!
“जाओ, ग्वालियर पैगाम लेकर और सीधे महाराजा मान सिंह से मिलो!” बादशाह अपने बेटे इब्राहिम लोधी को समझा रहे थे। “होशियारी के साथ खेल खेलना बेटे!” उन्होंने चेताया था – बेटे को। “महाराजा मान सिंह ..”
“फिकर न करे अब्बा हुजूर!” इब्राहिम लोधी ने उन्हें आश्वासन दिया था। “निराश नहीं करूंगा आपको!” उसने वायदा किया था।
अचानक ही ग्वालियर की ओर दौड़ते इब्राहिम लोधी के घोड़ों को देख कर हर किसी ने हिसाब लगा लिया था कि आक्रमण नहीं होगा!
“सिकंदर लोधी के फरजंद – इब्राहिम लोधी फरियाद लेकर पधारे हैं!” महाराजा मान सिंह को सूचित किया गया था। “आपका आदेश हो तो ..?”
“हां हां बुलाइए उन्हें!” विहंस कर कहा था महाराजा ने। “क्यों नहीं सुनेंगे उनकी फरियाद?” उनका कहना था।
ग्वालियर में जोरों से खबर उड़ी थी कि सिकंदर लोधी ने हार मान ली थी और अब वह दिल्ली लौटना चाहता था!
“हमारी व्यूह रचना का इसे पता कैसे चला?” ग्वालियर के रण बांकुरे प्रश्न पूछ रहे थे। “जासूसी?” एक प्रश्न पैदा हुआ था। “नहीं नहीं! शायद हमारी चुप्पी को भांप लिया है सिकंदर लोधी ने? तभी उसने ..”
“खुद भी एक बड़ा जासूस है ये! इसे तो हर खबर पता होती है!” ग्वालियर के सैनिकों में चर्चा थी।
“बादशाह का हुक्म हुआ है तो मैं आया हूँ!” इब्राहिम लोधी ने सर झुका कर महाराजा मान सिंह के सामने विनय की थी।
“स्वागत है आपका शहजादे!” महाराजा मान सिंह ने मुसकुराकर इब्राहिम लोधी को देखा था।
शहजादा इब्राहिम लोधी भी पहली बार ही महाराजा मान सिंह को देख रहा था!
अचानक ही उसके दिमाग में अपने अब्बा सिकंदर लोधी और महाराजा मान सिंह का मुकाबला उठ खड़ा हुआ था। उसे लगा था – महाराजा मान सिंह – महान थे, मानवीय थे और एक अलग से भव्यता लिए थे। जबकि उसके अब्बा हुजूर ..
“फरमाइए शहजादे!” महाराजा मान सिंह का मंत्र पूत स्वर गूँजा था। “हम से क्या चाहते हैं?”
“अब्बा हुजूर ने फरमाया है कि ..” अटक गया था इब्राहिम। “हमारी आप से कोई दुश्मनी नहीं है! हम दोनों दोस्त हैं!” इब्राहिम तनिक सहज हुआ था। “लेकिन आप ने हमारे दुश्मनों को पनाह दी है .. सदमा लगा है बादशाह को ..”
“मानते हैं शहजादे!” राजा मान सिंह ने सहज स्वीकार किया था। “लेकिन शरणागत को शरण देना हमारी संस्कृति है – शहजादे!” वो हंसे थे। “हमारा आशय भी आपसे वैर साधना नहीं है। हम तो आप दोनों के बीच कोई सुलह सफाई हो जाए इसका इंतजार कर रहे थे। हमें कोई एतराज नहीं कि ..”
“तो आप इन षड्यंत्रकारियों को हमारे हवाले कर दें?” सीधी मांग की थी – इब्राहिम ने।
“आप हमें धौलपुर लौटा दें?” महाराजा साहब की भी मांग थी।
“हमें मंजूर है!” इब्राहिम ने तुरंत मांग मान ली थी।
“हम सुलहनामा बनवा कर कुंवर विक्रमादित्य के हाथ भिजवा देते हैं! बादशाह उसपर मंजूरी दे दें .. और ..”
“बेहतर जनाब!” इब्राहिम ने बिना किसी विलम्ब के सब तय कर डाला था।
कुंवर विक्रमादित्य ग्वालियर की शाही शान के साथ बादशाह सिकंदर लोधी से मिलने आये थे। उनके साथ एक बहुत बड़ा काफिला चलकर आया था। उस काफिले में सिकंदर लोधी और उनके मनसबदारों के लिए तोहफे थे, अशरफियां थीं और दवा दारू थी और वो सब सामान था जो अतिथि सत्कार के लिए दरकार था। महामारी के मारों को उन्होंने मारा नहीं था और हर संभव मदद की थी उनकी।
“बच गये इस बार विक्रमादित्य?” बादशाह सिकंदर लोधी ने तंज कसा था और फिर से हमला करने की जिद की थी।
“अल्लाह ने आपको सब कुछ बख्शा है बादशाह सलामत!” विक्रमादित्य हंस कर बोला था। “महाराजा मान सिंह को आप जानते नहीं! शायद इस बार आपका दिल्ली लौटना ही न होता!” मैंने सुना था विक्रमादित्य को कहते हुए!
और मेरी बद किस्मती कि मैं चाह कर भी महान महाराजा मान सिंह का दीदार न कर पाया, हेमू!
मेजर कृपाल वर्मा