धारावाहिक -7

‘नई फसल’ के उद्घाटन पर विक्रांत ने मेरा मुंह मीठा कराया था । उस के हाथ से लड्डू खा मुझे बहुत अच्छा लगा था । जब विक्रांत ने मुझे चाहत पूर्ण निगाहों से देखा था तो मैं बावली हो गई थी ।

फिल्म की शूटिंग के दौरान अब हम मिलने-जुलने लगे थे । कुछ बेहद अंतरंग दृश्य थे हमारे जिन में हम दोनों को एकाकार होते दिखाया गया था । उन दृश्यों को मैं बड़े ही एहतियात के साथ करती थी । लेकिन विक्रांत किसी न किसी बहाने मुझ से टकरा ही जाता था ।

‘आंखें मत दिखा , मुझे ।’ एक गुंडइ के दृश्य में मैं विक्रांत से कहती हूँ । ‘आंखें निकाल लेते हैं , अपुन ।’ मैंने मजे स्टाइल में बोला था , संवाद ।

रमेश दत्त को बड़ा पसंद आया था । उसे शायद पहली बार पता लगा था कि मैं गुंडइ में कभी से अपना दखल रखती थी । जिंदगी थी भी – मार-धाड़ …धुआंधार …गाली-गलौज …और छीना-झपटी । मेरे लिये ये कुछ नया न था । पर , हां । विक्रांत तनिक अचंभित अवश्य हुआ था ।

‘ये क्या पिक्चर बना रहे हैं , सर ?’ मैंने ही एक दिन रमेश दत्त से पूछा था । ‘कौन देखने आयेगा ? इस में क्या है …जो …?’ मेरा प्रश्न था ।

‘सर, इस का थीम क्या है ?’ विक्रांत ने भी पूछा था ।

रमेश दत्त हम दोनों को देखता रहा था …घूरता रहा था…समझता रहा था ।

‘नई फसल का अर्थ ताे एक ही है – हम और तुम । माने कि सड़क पर सोते ये लोग …झुग्गी-झौंपड़ियों में दिन काटते लोग …वो लोग जिनकी समाज को परवाह नहीं …जिन की देश को कोई चिंता नहीं ….।’ उस ने पलट कर हम दोनों को देखा था । ‘आने तो दे पर्दे पर ….। जमीन फटेगी , नेहा । समाज की नींद खुलेगी ….। सरकारें हिलेंगी …..’

लेकिन मेरी समझ में ये न आया था कि मुझे नाइटी की ओट से नंगा नहाता देख विक्रांत समाज को क्या संदेश दे रहा था ? कि झुग्गी में मुझे धीरे-धीरे समेटता …और निर्वसन करता विक्रांत – संसार को कैसे जगा रहा था ? फिर भी हम अनाड़ियों की तरह रमेश दत्त के इशारों पर फिल्म की शूटिंग करते रहे थे । ‘शादी करोगी?’ का ये संवाद विक्रांत ने जब बोला था – तो रमेश उछल पड़ा था । विक्रांत का भोला चेहरा और …उस की आग्रही आंखों का जादू …कमाल का था । मुझे भी तो विक्रांत का किया ये आग्रह भा गया था । मैंने भी जब आंखें झुकाई थीं ….और शर्मा कर सर हिलाया था …तो …खूब तालियां बजीं थीं ।

और फिर था – हमारी शादी का सीन …?

ये ‘नई फसल ‘ का क्लाईमैक्स था । शादी का सैट लगा था । मैं दुल्हन और विक्रांत दूल्हा बना खड़ा था । लोकेशन झुग्गी-झौंपड़ियों के बीच थी । शहनाई बजने लगीं थीं । मेरे हाथ में जयमाला थी । विक्रांत दरवाजे पर आ रहा था ।

तभी गली के गुंडों का हमला हुआ था ।

विक्रांत जान पर खेलकर लड़ा था । उस ने गुंडों का मुकाबला खाली हाथों किया था । लेकिन गुंडों के पास चाकू थे ….लाठियां थीं और वो लोग दस-बीस थे …। अकेले विक्रांत को उन्होंने मार गिराया था ….चाकुओं से गोदा था….और उस की लहू-लुहान लाश को छोड़ कर भाग गये थे .. और मैं विक्रांत की उस लाश के पास बेसहारा बैठी रोती रही थी ।

‘साॅरी, बाबू । मेरी तकदीर में तुम्हारी लाश देखना बदा ही था ?’ नेहा रोने लगी थी ।

वह बेहोश हो गई थी ।

क्रमशः …..

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