“हम लोग..”

“ये जो है! ये जो है!.. ज़िन्दगी”

“विक्रम! विक्रम ! बेताल!..ताल! ताल!”

पीछे वाले घर से जब हम बच्चे हुआ करते थे.. तो छुटपन में इन टेलीविज़न के नाटकों के टाइटल song की आवाज़ें हमारे कानों में गूंजा करतीं थीं..  अपने कमरे में पढ़ते वक्त इन गानों की आवाजों से ही हम अपना मनोरंजन किया करते थे.. अब क्या करते.. घर में टेलीविज़न तो था.. नहीं!

मन तो होता था.. काश! हमारे घर में भी टेलीविज़न आ जाए.. 

पिताजी से टेलीविज़न लाने के लिये कहने में थोड़ा डर सा महसूस जो करते थे..

खैर! फ़िलहाल तो पड़ोस के घर से आने वाली नाटकों की आवाज़ सुन अपना मनोरंजन करने में लगे हुए थे.. नॉकरी छोड़ नया settlement था.. पिताजी भी नया काम ढूँढ़ रहे थे।

ईश्वर की कुछ ऐसी करनी हुई.. परमात्मा को हमारा यूँ पड़ोस द्वारा मनोरंजन बिल्कुल भी न भाया था.. और पिताजी के दिमाग में फाइनेंस का काम करने की समझ दे डाली थी.. 

Finance का काम शुरू होने की ख़ुशी में सबसे पहले हमारे घर में पिताजी ने Bush का रंगीन T.V लाकर श्री गणेश किया था.. हमारी ख़ुशी का ठिकाना न रहा था.. मनोरंजन अब पड़ोस से हमारे घर ही जो आ गया था।

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