बोधन कौन था ….?

ये क्या हुआ …? मेरे हाथों में लगे हिन्दू राष्ट्र के धर्म-ध्वज को किस ने छीन लिया ?

“योगी जी हैं !” उत्तर आया है . “उत्तर प्रदेश के मुख्य -मंत्री हैं .” इन का परिचय मैंने सुना है . और मैंने सुना भी है कि योगी जी को जनता का प्यार-दुलार प्राप्त है . लोग इन की प्रशंसा करते हैं . ये धर्म परायण होने के साथ-साथ एक अच्छे व्यवस्थापक के रूप में भी उभर कर आ रहे हैं . ‘राम राज्य ‘ लाने की घोषणा की है , योगी जी ने ! जनता के साथ खुलासा हुआ है – उत्तर प्रदेश में राम रान्य लाएंगे !!

मेरी आँखें खुली  की खुली रह गई हैं . मेरा सोच थम गया है . मेरे हिन्दू-राष्ट्र के स्वप्न को एक सहारा-सा लगा है . मेरी धारणा को आज इतनी शताब्दियों के बाद पुष्टि मिली है . मुझे आज्ञा मिली है कि मैं अपने हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के संकल्प को अंतिम रूप दे दूं !

आने दो केसर को . हम अब पहला काम ‘हिन्दू राष्ट्र’ की घोषणा का ही करेंगे ! सोचने का वक्त तो कब का गया . अब तो कुछ कर दिखाने का शुभ अवसर है . कब से मांग रही है हमारी धरती कि उसे उस का हक़ मिले . कब से चाह रहे हैं हमारे लोग कि उन का भी कोई धीर धरे …रक्षा करे …! द्रष्टि घुमा कर देखता हूँ तो रोना ही आता है .

उत्तर प्रदेश …राम -कृष्ण का प्रदेश …मथुरा और काशी का प्रदेश …वह प्रदेश जिस ने गंगा -जमुनि सभ्यता दी ….वह प्रदेश जिस ने भक्ति -मार्ग दिखा कर …धर्म बचाया …वह प्रदेश जिस ने धन-माल दिया …एक संस्कृति को रोपा …और एक स्वतंत्र विचारधारा को छांह दी ! आज के युग में हमारे पास रोम के बाद मथुरा और काशी हैं -जो पूर्ण पुरातन हैं और जीवित हैं और आक्रमणकारियों के दिए अनेकानेक घावों को छुपाए बैठे हैं .

हाँ,हाँ ! मैंने तो इन्हें घाव खाते देखा है …उजड़ते देखा है ! लोगों को पिटते देखा है  ….अवलाओं की लाज लुटते भी देखा है ! मैंने जो-जो देखा है …शायद आप अगर उस की ठीक से कल्पना भी कर लें …तो बेहोश तो हो ही जाएंगे !!

मैं ननिहाल से अपने गाँव लौट आया था . मेरे मन-प्राण में केसर बसी थी . मैं उस के प्रेम-प्रसंगों के अलावा ..न कुछ सोच पा रहा था …और न कुछ कर ही पा रहा था . मैंने बड़े ही स्नेह पूर्वक माँ को सोने की पांच गिन्नियां भेंट कीं  थीं . …जो मुझे केसर के पिता जी से मिलीं थीं . मेरी सगाई की खबर तो माँ को मिल ही चुकी थी . माँ ने मुझे स्नेहाशीष दिया था . उन्होंने फिर हौले-से पूछा था .

“कैसी है , रे …? तूने तो देख ली है ….!” माँ का प्रश्न कम उल्हाना ज्यादा था .

मेरे दिमाग में तुरंत ही केसर के कहे संवाद डोल गए थे ! “गंवार ….!” वह कह रही थी . “ले आगए तेरे ऊंट …! जा ….!!” और उस दर्पण से स्वच्छ तालाब में तैरती हमारी परछाईयाँ मुझे रिंझाने लगीं थीं . मेरा चेहरा आरक्त हो आया था . मैं प्रेमाकुल था . केसर के प्यार में अभिभूत था ! लेकिन माँ की प्रश्नवाचक निगाहें अभी तक मुझ पर टिकीं थीं .

“लठ्ठ मार है ….!” मैंने माँ को सच-सच बताया था . “मेरी तो सोटा मार कर …टाँगे  …ही तोड़ दीं …!” मैंने केसर की शिकायत की थी .

“ठीक किया …!” हंसी थी , माँ . “तू है ही इसी लायक ….!! गया क्यों था , वहां …?” वह पूछ रही थीं . “अब्बू तो पागल होने को थे ….!” माँ ने मुझे घूरा था . “अगर ये ऊंट उन्हें लेकर वहां न पहुंचा होता तो ….तू ….?”

“कभी न लौटता ….” मैं कह देना चाहता था . “सच माँ …! वो जगा …माने कि केसर की ढाणी …वो …वहां का रम्य प्रदेश …हवा …और …” लेकिन मैं संभाल गया था . “माँ के पास उस का बेटा न लौटे – कैसे हो सकता है ….?” मैंने भी प्रश्न दागा था .

“झूठ ….!” माँ हंस पड़ी थी . “औरत का जादू ….ज़हर से भी बुरा होता है ! इस के काटे का तो कोई इलाज़ ही नहीं ….!!” माँ का कहना था . और शायद सच ही था . “लेकिन मैं नहीं चाहती थी कि तू आता ….!” अचानक ही माँ ने बात मोड़ दी थी .

“क्यों …?” मैंने पूछा था .

‘माहौल ….बिगड़ रहा है ! हिन्दूओं की तो क़ज़ा आई है . सिकंदर लोधी कहर ढा रहा है .” माँ ने मुझे बताया था . “वहां रहता तो …दूर तो था ! दिल्ली के आस-पास रहना तो दूभर हो गया है ….!” माँ की आवाज़ में दर्प था . एक टीस थी . ” न जाने इस सिकंदर लोधी का हिन्दूओं ने क्या बिगाड़ा है ….जो……?”

“हो क्या रहा है …?” मैंने पूछा था .

“लूट-पात ….मार-धाड़ …! मुसलमान बन जाओ तो ठीक ….वरना तो ….लाओ -जाजिया …लाओ नज़राना ….” माँ का स्वर अब काँप रहा था . “बहिन-बेटियां भी सुरक्षित नहीं ….! दरिन्दे घोड़ों पर सवार हो-हो चले आते हैं ….और ….” वह रोने लगीं थीं . “बच कर रहना , बेटे ! होश्यारी से …आना-जाना …”

मैं चुप था . मैं परेशान था . मैं सिकंदर लोधी का नाम सुन कर खबरदार-सा हो गया था . मैंने अभी तक न कुछ देखा था …और न ही कुछ सुना था …! मेरा लोधियों से ये प्रथम परिचय था . नाना के यहाँ तो अमन-चैन ही था ! लेकिन यहाँ …..?

“सुनो,सुनो …..!!” बाहर कोई मुनादी हो रही थी . “सुनो ….!!” ढोल पीटा जा रहा था . “बोधन को …चौराहे पर लटका कर …जिन्दा जलाया जाएगा …!!” एक मोटी -सी आवाज़ आ रही थी . “फरमाने -सिकंदर लोधी – कल अमल में लाया जाएगा ….!!”

‘फरमाने सिकंदर लोधी कल अमल में लाया जाएगा …! बोधन को चौराहे पर लटका कर ….जिन्दा ज़लाया जाएगा ….!! सुनो,सुनो ….! धाम …धाम …धप्प  ….धप्प !!’ लगातार ही मेरे ज़हन में गूंजने लगा था . लगातार एक अनाम से खौप की लहरें …मेरे भीतर भरती जा रही थीं . लगातार मेरा दिमाग सिकंदर लोधी के बारे में सोचे जा रहा था . ‘कैसा होगा वह सिकंदर लोधी …जिस के फरमान पर ….आदमियों को जिन्दा जला दिया जाता है ….? और …और ऐसा क्या अपराध होगा ‘बोधन’ का ….जो …उसे इतनी संगीन सज़ा मिल रही थी ….? ‘कौन था -बोधन …?’ मैं तो नहीं जानता था . ‘कैसा था -सिकंदर लोधी ‘ मैंने तो नहीं देखा था !

लेकिन होने वाली घटना और …होती मुनादी ने मुझे ….बुरी तरह से आंदोलित कर दिया था !

सच में …मैं उस दिन बुरी तरह से डर गया था ! लगा था – मेरा खून सूख गया है ….मेरा शारीर निर्जीव है …मैं मरणासन्न हूँ ….और और अब बस कुछ ही लम्हों में चल बसूँगा ! लगा था – ज़रूर,ज़रूर किसी न किसी दिन …सिकंदर लोधी मेरे भी जिन्दा ज़लाने के फरमान ज़ारी करेगा ….और मुझे बचाने वाला यहाँ कोई ढूंढें न मिलेगा ….! बोधन का भी तो कोई हिमायती कहीं नहीं था ….कहीं नहीं था ….!

“भाग, हेमूं …भाग !!” मेरे मन ने कहा था . “चल , केसर की ढाणी ….!!” मन का सुझाव था . “अमन-चैन से वही रहेंगे . वो तो स्वर्ग है , रे ! केसर तो …..” मेरा सोच रुका था .

“केसर ….?” मैंने पलट कर सोचा था . “केसर सोटा  चलाएगी ….गालिओं की बौछार करेगी ….और कहेगी – ‘कायर ! तू मर्द नहीं ….भागा कैसे ….तू …….?”  और ये सच ही था .

मेरा अंतिम सहारा भी काफूर हो गया था . मेरा आखिरी किनारा भी मुझे दिखाई नहीं दे रहा था . मैं भयभीत था . मैं भ्रमित था . सिकंदर लोधी ….भेड़िया बना सिकंदर  लोधी …बे-सहारा लोगों को फाड़ -फाड़ कर खा रहा था ….और …..

“भेड़िए का इलाज़ तो है , न ….?’ शायद केसर ने , हाँ,हाँ केसर ने ही तो मेरे कान में कहा था . “तुमने देखा तो था …भेड़िए को मरते …..?” वह पूछ रही थी .

अचानक ही मेरा मरा मन जी उठा था . अचानक ही मुझ में जान लौट आई थी . अचानक ही केसर की ढाणी का पूरा द्रश्य मेरी आँखों के सामने पसर गया था . ‘भेड़िए को रोकने के लिए …जंगी कुत्ते थे ….पहरे पर तैनात गडरिए थे ….और थी – केसर !! एक समर्थ सेना नायक थी – वह !! उस का वार खाली नहीं जाता था . मुझे अब मरे पड़े भेड़िए की लाश नज़र आई थी . मैंने देखा था कि भेड़िया नहीं ….वह तो मरा पड़ा सिकंदर लोधी था ! होती पीड़ा से कराह रहा था ….मर रहा था …..

अपार आनंद की आवृति एक साथ मेरे ज़हन में हुई थी …..!!

अब मेरी निगाहें कुछ तलाशने लगीं थीं . मेरा मन अपने आस-पास को ही टटोल रहा था . मुझे लग रहा था जैसे मैं अपनी मंजिल के आरंभ पर आ खड़ा हुआ था . अब कुछ होना था ….कुछ न कुछ रचा जाने वाला था ! उठ कर मैं अपने संगी-साथियों से मिलने-जुलने निकल पड़ा था . मैंने हंस-हंस कर उन से बातें की  थीं . सब ने मेरी सगाई के बारे पूछा था . लेकिन मैं चाह कर भी ‘बोधन कौन था ‘ उन्हें पूछ ही न पाया था . कारण – कोई भी ‘बोधन’ के बारे कुछ कहना या सुनना न चाहता था . कोई भी जान कर भी सिकंदर लोधी के फरमान के बारे चर्चा न करना चाहता था . कोई भी ……

सिकंदर लोधी का खौप ….भेड़िए के खौप से भी कहीं ज्यादा था ! जान सब को प्यारी थी ….जीना सब चाहते थे ! किसी और की आई में ….अपना सर कोई क्यों दे ….? यह सहज उपाय लोगों ने खोज लिया था . ‘बच कर रहना , बेटे !’ मुझे भी अब अपनी माँ के संवाद समझ आ गए थे . वैसे भी ‘बोधन’ से मेरा भी क्या बंटता था ?

लेकिन मेरा मन था …कि बिदक गया था ! मेरा हिया फट जाना चाहता था . मैं चाहता था कि जिस तरह ….केसर ने भेड़िए का तोड़ निकाला था ………..उसी तरह मैं भी इस सिकंदर लोधी का कोई तोड़ खोज लूं ….! मैं भी कुछ इस तरह का कारनामा करू …कि …

अचानक ही मुझे अपने गुरु ‘गुरु लाल का चेहरा कौंध गया था .

ननिहाल जाने से पहले मुझे यही पढ़ाते थे . उन की ‘गुरु लाल गाढ़ी’ स्थिति पाठशाला में पढ़े लोग आज भी उन के गुण गाते थे . मैं भी उन का प्रिय शिष्य था . मुझे वो बेहद प्यार करते थे . गुरु जी …..? अचानक ही मेरी हंसी छूट गई थी . गुरु जी के साथ हुई अपनी नन्ही झड़प मुझे याद हो आई थी .

“इतना विस्तार क्यों ….?” गुरु जी ने मेरा कान पकड़ कर पूछा था . “जितना प्रश्न है ….उतना ही उत्तर होना चाहिए .” उन्होंने कहा था .

लेकिन मुझे बुरा लगा था . मैं तो चाह रहा था कि गुरु जी मेरी प्रशंशा करेंगे. लेकिन उन का मुझे कान से पकड़ कर समझाना बेहद बुरा लगा था . मैं पाठशाला छोड़ घर लौट आया था . बकरी को ले जंगल में चराने चला गया था . मैंने अब पाठशाला न जाने का निश्चय भी कर लिया था . लेकिन …..

“क्यों….क्यों , चले आए थे ….?” गुरु जी घर पर आ गए थे . “मैं तुम्हारा गुरु हूँ . गलती नहीं बताऊंगा तो …..?”

मैं शर्मिंदा था . मैंने क्षमा मांगी थी . मैं फिर से पाठशाला जाने लगा था .

और आज फिर से मैं गुरु लाल गढ़ी जा रहा था . मेरा मन गुरु जी के दर्शन करने के लिए बिलख उठा था . मैं सीधा उन के घर ही चला आया था . मैंने उन के चरण छू कर प्रणाम की थी . गुरु जी ने मुझे चौंक कर देखा था . वह मुझे देखते ही रहे थे ….देखते ही रहे थे ….नापते ही रहे थे …, अवाक…!!

“क्या राज कुमारों-सा नूर खिला है ….!” गुरु जी बहुत देर के बाद बोले थे . “वाह, रे ! परमात्मा ….!!” उन्होंने आसमान की और देखा था . “तेरी कुदरत ….तू ही जाने ….!” उन्होंने कहा था . “कब लौटे – हेमचन्द्र …?” उन्होंने मुझे विहंस कर पूछा था .

लगा था जैसे गुरु जी मेरे ही आने के इंतज़ार में जी रहे थे ! वो शायद मेरी ही खोज में खड़े थे . मुझे वो पा जाना चाहते थे . जैसे मैं उन का ही कोई इच्छित अंग था …कोई शक्ति था …जिस के बिना वो जी नहीं पा रहे थे …!!

मुझे कलेजे से लगा कर हरे हो उठे थे , गुरु जी !!

………………….

श्रेष्ट साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!

 

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