
युगांतर !
उन के जन्म दिन पर – विशेष !!
महान पुरूषों के पूर्वापर की चर्चा – उपन्यास अंश :-
वास्तव में ही अब मैं रो पड़ना चाहता था . रो पड़ने की बात भी थी ! कमाल ही था …कि हम अपने प्रतिद्वंदियों के साथ मिल कर अपने आप को गुलाम बनाए हुए थे !! हम उन के साथ थे जो ….हमारे साथ न थे . हम उन को सहारा दे रहे थे – जो हमें बे-सहारा , बे -घर …और बे-वतन बनाए हुए थे . इतना सा सोच …तक हम में नहीं था कि …..
“हमारा सोच ….हमारा होश ….हमारा हौसला ….बनाने और जगाने का प्रयत्न कर रहे थे ….’अनुशीलन समिति और युगांतर ………!!” अथावले ने सूचित किया था . “कलकत्ता की नींद खुल चुकी थी . उन्हें …मतलब कि ….यहाँ के कुछ प्रबुद्ध लोग – और दार्शनिक …अंग्रेजी राज की चाल-चलगत को समझ बैठे थे . वो जान गए थे कि अंग्रेज – ‘भेड़ की खाल में छुपा -भेड़िया था !’ और यही बात देश के कर्मठ और …जागरूक जवानों को समझाने के लिए उन्होंने , ‘अनुशीलन समिति और युगांतर जैसे संगठनों की स्थापना की .” अथावले तनिक गंभीर थे .
“अंग्रेजों ने …..फिर ….?” मैं अब प्रश्न करना चाहता था .
“ये गुप-चुप का सौदा था !” अथावले मेरी मंशा जान कर बोले थे . “सब अंग्रेजों की आँख के उस पार होता था . गुप्त होता था ….छुप कर होता था …..” अथावले की आँखों में एक प्रशंशक भाव उगा था . “कमाल के ही लोग थे – सो – काल्ड , स्वराजी ….!!” वो हँसे थे . “जैसे कि बीमारी के जर्म्स …बिना जाने ही पैदा हो जाते हैं ….और तभी नज़र आते हैं ….जब हम बीमार हो जाते हैं …..उसी तरह – ठीक उसी तरह ….इन लोगों का जन्म होता था . और पता जब चलता था ……..”
“काण्ड हो जाते थे ……..बम फट जाते थे ….ट्रेन लुट जातीं थीं ….और …..?”
“हाँ ! ” अथावले ने स्वीकार था . “सत्ता का पुरजोर विरोध होने लगा था . अंग्रेजों ने भी पुलिस की गस्त बढ़ा दी थी . पहरे भी कड़े कर दिए थे . सजाएं …और यातनाएं …चर्म पर थीं . कोई सुराजी सरे आम …घूम-फिर तक नहीं सकता था . उसे पकड़ने पर पुलिस को इनाम-इकरार भी मिलते थे . उन्हें समाज का दुश्मन बताने की साज़िश ज़ारी थी .
हमारे ही समाज के गण-मान्य व्यक्ति – जो अंग्रेजों ने ‘राय-साहब’ , ‘सर ‘ और ‘लॉर्ड्स ‘ बना दिए थे … इन सुराजियों से परहेज़ करते थे ….उन का बहिष्कार करते थे …!
बहिष्कार शब्द को मैंने जोरों से पकड़ लिया था !
सामाजिक बहिष्कार – समय का सूचक लगा था , मुझे !
मुझे लगा था कि ….मैं भी सुराजी था ….मैंने टोपी पहन रखी थी …. मैं एक ख़ास अंदाज़ में खड़ा नारे लगा रहा था – ‘इंक्लाव -जिंदाबाद ….मैं चिल्ला रहा था – अंग्रेजो -भारत छोडो ! मैं बडबडा रहा था – गुलामी की जंजीरें ……..
और फिर मुझ पर कोड़े वरस रहे थे …..मेरी काया पर कीड़े रेंग रहे थे ……मैं जेल की अंधी कोठरी में पड़ा-पड़ा कराह रहा था ….और कह रहा था – ‘वन्दे-मातरम !’.
‘वन्दे-मातरम’ मैंने अपने होठों को छूते – इस नारे को दुहराया था – इस का पान किया था …..इसे सहलाया था ….इसे संजोया था …..!!
“क्या मेरी मंजिल भी …..यही नहीं हो सकती ….?” मैंने अपने आप से पूछा था . “क्या मैं …..देश-भक्त नहीं बन सकता ….?” मैं सोचे ही जा रहा था .
“लेकिन ये लोग सच्चे देश-भक्त थे ! जान पर खेल कर – सत्ता के विरोध में आ गए थे . रास बिहारी बोस …..और ….”
“रास बिहारी बोस ………?” मैंने पूछा था .
“हाँ ! रास बिहारी बोस ….जिस ने स्वतंत्रता का शंख सरे आम फूँका था ….और …अंग्रेजी हुकूमत को ललकारा था ….! उन का प्रभाव भी पड़ा था …..हमारे प्रणेता – हेगडेवार पर …..जो उस समय एक युवक थे ….छात्र थे …..! तब उन्होंने युगान्तर और अनुशीलन में काम करना आरम्भ कर दिया था ! उन्हें लगा था – मात्र-भूमि के लिए …..मर मिटना ….जीवन को सच्चे अर्थ देना है ….! गुलाम बन कर जीना ……कोई जीना नहीं है ! अगर हम न जागे तो ……”
मेरी आँखें भी खुलने लगीं थीं . न जाने कैसा एक नव-जागरण मेरे भीतर भरता चला जा रहा था ….न जाने कौन सी हवा चल पड़ी थी ….न जाने कौन सा युग लौट रहा था ….पर हाँ ! था तो सब नया ….नूतन ….चिरंतन ……और …..चिर-स्थाई …!
“मुझे जेल जाने का तनिक भी भय नहीं है ….!” हेगडेवार ने अपने गुरु स्याम सुंदर चक्रवर्ती से विंहस कर कहा था . “मुझे वहां जो एकांत मिलेगा …..मैं उस एकांत में ….इस ज़ालिम राज का अंत खोज लूँगा ! मैं खोज लूँगा ….कि ……आखिर ……”
“जेल किस जुर्म में गए ….?” मैं पूछ रहा था .
“राज-द्रोह का आरोप था – उन पर !”
“राज-द्रोह …..?”
“हाँ ! उन दिनों इस राज-द्रोह के जुर्म में ….फांसी तक की सज़ा थी ! पर इन्हें एक साल का कारावास मिला ! स्टूडेंट थे …..युवक थे ….! अंग्रेज जानते थे कि ….देश की नब्ज …युवाओं के हाथ में थी ! अतः …बहुत सोच-समझ कर पेश आने लगा था – राज ! यह सन १९२१ की बात है ….जब …..”
“घोर संग्राम छिड़ा था …..!” मैंने स्वयं से कहा था .
और मैं अब उस संग्राम में शामिल था !
न जाने क्यों मुझे भी मात्र-भूमि के लिए लड़ना -मरना अछा लगा था . न जाने क्यों मैं और मेरा मन ….दौड़ कर परम-पूज्य हेगडेवार की उस अंधी जेल की कोठरी में जा बैठा था – जहाँ वो साधना कर रहे थे ….ब्रिटिश राज का अंत खोज रहे थे ! वही…उन के चरणों में बैठ कर ….मैं देश-भक्ति की दीक्षा ले रहा था !
“देश सर्वोपरि है – नरेन्द्र !” वह कह रहे थे . “देश को बचाने के लिए ….हमें वो सभी प्रयत्न करने होंगे ….जो दरकार है ! हमारी जानें …जाएं ….हमें यातनाएं मिलें ….हमें ……..जो चाहे सो सजा मिले …..पर हमारी मांग – आज़ादी ही रहेगी !”
“हाँ ! रहेगी ….!!” मैंने स्वीकार में सर हिलाया था .
मैं मानता हूँ कि मैं ….एक स्वछन्द मन लेकर पैदा हुआ हूँ ….मुझे किसी प्रकार की बंदिश , दासता ……या गुलामी असह्य है ….! मैं न जाने क्यों …उड़ कर वहां बैठना चाहता हूँ …..जहाँ पूर्ण स्वराज हो ….!!
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श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !