” रक्षाबंधन आने को है..! सुन्दर राखियाँ खरीद लाना!”।

” अभी समय है! खरीद लाएंगे.. “।

” नहीं! आज ही.. courier से पहुँचने में वक्त लगता है.. पिछली बार भी हमारी राखी देर से पहुँची थीं”।

” चलो! भई! ठीक है.. जो हुक्म!”।

पतिदेव भी हमारी राखी लाने की ज़िद्द के आगे झुक गए थे.. और शाम को सुन्दर राखियाँ त्यौहार पर भेजने के लिए ले आए थे।

सुन्दर राखियाँ देख.. मन उड़कर फ़्लैशबैक में चला गया था.. 

” जल्दी से नहा-धोकर तैयार हो जाती हूँ.. बाज़ार भी तो जाना है!”।

भाईओं की कलाई पर राखी बाँधने की चिंता कम.. और रक्षाबंधन वाले दिन.. हमें अपने बड़े भाईसाहब के संग बाज़ार जाकर नया सूट खरीदने की टेंशन ज़्यादा हो जाया करती थी.. राखी का पूरा procedure करने के बाद मुश्किल से ही भाईसाहब को भोजन करने का समय दिया करते थे.. बिना ही किसी इंतेज़ार के.. झट्ट से रिक्शे की सवारी कर.. दिल्ली के नामी मार्किट.. तिलक नगर पहुँच जाया करते थे।

बाज़ार में  कुछ अलग सी ही भीड़-भाड़ और रौनक मेला हुआ करता था।

अब इस दिन भाईसाहब संग चलते वक्त.. पहले से ही mentally prepare हो जाया करते.. उस्ताद के साथ शॉपिंग करनी है!

उस्ताद यानी के हम.. एक सूट खरीदने के लिए सारा मार्किट छनवा दिया करते.. फ़िर जाकर मुश्किल से कुछ पसंद आया करता था।

आज भी इतने सालों के बाद कौन सी राखी पर क्या ख़रीददारी करी थी.. ख़रीददारी का रंग और भाई का संग अच्छे से याद है।

वो त्यौहार पर राखी बाँधने के बाद उपहार पाने की ख़ुशी और वो उपहार पाने के लालच में जल्दी-जल्दी से राखी बांधना आज भी हमारी यादों में तरो-ताज़ा है।

त्यौहार भी वही है.. प्यार भी वही है.. बस! राखियाँ लिफ़ाफ़े में बंद होकर.. हमारा प्यार और हमारे भाइयों के लिए लम्बी उम्र व उनकी समृद्धि की कामना करते हुए.. दिल्ली पहुँच जाती हैं.. बदले में हमें उपहार के लिए.. संग न ले चलते हुए.. और बचपन की तरह से हमारे संग शॉपिंग में समय न गँवाते हुए.. हमारा उपहार भी courier से उड़ कर हमारे पास आ ही जाता है।

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