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Devi By Suryakant Tripathi Nirala

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वह रास्ते के किनारे पर बैठी हुई थी एक फटी धोती पहने हुए। बाल काटे हुए। तअज्जुब की निगाह से आने-जाने वालों को देख रही थी। तमाम चेहरे पर स्याही फिरी हुई। भीतर से एक बड़ी तेज भावना निकल रही थी, जिसमें साफ लिखा था-‘‘यह क्या है ?’’ उम्र पच्चीस साल से कम। दोनों स्तन खुले हुए। प्रकृति की मारों से लड़ती हुई, मुरझाकर, मुमकिन किसी को पच्चीस साल से कुछ ज्यादा जँचे। पास एक लड़का डेढ़ साल का खेलता हुआ। संसार को स्त्रियों की एक भी भावना नहीं। उसे देखते ही मेरे बड़प्पन वाले भाव उसी में समा गए, और फिर वही छुटपन सवार हो गया। मैं इसी की चिन्ता करने लगा-‘‘यह कौन है, हिन्दू या मुसलमान ? इसके एक बच्चा भी है। पर इन दोनों का भविष्य क्या होगा ? बच्चे की शिक्षा, परवरिश क्या इसी तरह रास्ते पर होगी ? यह क्या सोचती होगी ईश्वर, संसार, धर्म और मनुष्यता के सम्बन्ध में ?

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Description

होटल के बरामदे में एक आरामकुर्सी पर पैर फैलाकर लेटा हुआ इस तरह के विचारों से मैं अपनी किस्मत ठोंक रहा था। चूँकि यह तैयारी के बाद का भाषण न था इसलिए इसके भाव में बेभाव की बहुत पड़ी होंगी, आप लोग सँभाल लीजिएगा। बड़े होने के ख़्याल से ही मेरी नसें तन गईं और नाममात्र के अद्भुत प्रभाव से मैं उठ कर रीढ़ सीधी कर बैठ गया। सड़क की तरफ बड़े गर्व से देखा जैसे कुछ कसर रहने पर भी बहुत कुछ बड़ा आदमी बन गया होऊँ। मेरी नज़र एक स्त्री पर पड़ी।
वह रास्ते के किनारे पर बैठी हुई थी एक फटी धोती पहने हुए। बाल काटे हुए। तअज्जुब की निगाह से आने-जाने वालों को देख रही थी। तमाम चेहरे पर स्याही फिरी हुई। भीतर से एक बड़ी तेज भावना निकल रही थी, जिसमें साफ लिखा था-‘‘यह क्या है ?’’ उम्र पच्चीस साल से कम। दोनों स्तन खुले हुए। प्रकृति की मारों से लड़ती हुई, मुरझाकर, मुमकिन किसी को पच्चीस साल से कुछ ज्यादा जँचे। पास एक लड़का डेढ़ साल का खेलता हुआ। संसार को स्त्रियों की एक भी भावना नहीं। उसे देखते ही मेरे बड़प्पन वाले भाव उसी में समा गए, और फिर वही छुटपन सवार हो गया। मैं इसी की चिन्ता करने लगा-‘‘यह कौन है, हिन्दू या मुसलमान ? इसके एक बच्चा भी है। पर इन दोनों का भविष्य क्या होगा ? बच्चे की शिक्षा, परवरिश क्या इसी तरह रास्ते पर होगी ? यह क्या सोचती होगी ईश्वर, संसार, धर्म और मनुष्यता के सम्बन्ध में ?

इसी समय होटल के नौकर को मैंने बुलाया। उसका नाम है संगमलाल। मैं उसे संग-मलाल कहकर पुकारता था। आने पर मैंने उससे उस स्त्री की बाबत पूछा। संगमलाल मुझे देखकर मुस्कराया, बोला, ‘‘वह तो पागल है, और गूँगी भी है बाबू। आप लोगों की थालियों से बची रोटियाँ दे दी जाती हैं।’’ कहकर हँसता हुआ बात को अनावश्यक जानकर अपने काम पर चला गया।
मेरी बड़प्पनवाली भावना को इस स्त्री के भाव ने पूरा-पूरा परास्त कर दिया। मैं बड़ा भी हो जाऊँ मगर इस स्त्री के लिए कोई उम्मीद नहीं। इसकी किस्मत पलट नहीं सकती। ज्योतिष का सुख-दुःख चक्र इसके जीवन में अचल हो गया है। सहते-सहते अब दुःख का अस्तित्व इसके पास न होगा। पेड़ की छाँह या किसी खाली बरामदे में दोपहर की लू में, ऐसे ही एकटक कभी-कभी आकाश को बैठी हुई देख लेती होगी। मुमकिन, इसके बच्चे की हँसी उस समय इसे ठंडक पहुँचाती हो। आज तक कितने वर्षा, शीत, ग्रीष्म इसने झेले हैं, पता नहीं। लोग नेपोलियन की वीरता की प्रशंसा करते हैं। पर यह कितनी बड़ी शक्ति है, कोई नहीं सोचता। सब इसे पगली कहते हैं, पर इसके इस परिवर्तन के क्या वही लोग कारण नहीं ? किसे क्या देकर, किससे क्या लेकर लोग बनते-बिगड़ते हैं, ये सूक्ष्म बातें कौन समझा सकता है ? यह पगली भी क्या अपने बच्चे की तरह रास्ते पर पली है ? सम्भव है, सिर्फ गूँगी रही हो, विवाह के बाद निकाल दी गई हो, या खुद तकलीफ पाने पर निकल आई हो, और यह बच्चा रास्ते के ख्वाहिशमन्द का सुबूत हो।

Additional information

ISBN

9788170558019

Author

Suryakant Tripathi Nirala

Publisher

Vani Prakashan

Binding

Hard Bound

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