संविधान की प्रस्तावना की शुरुआत होती है, हम भारत के लोग। इसका निहितार्थ यहीं है, कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और कच्छ से लेकर असम तक हम सब एक है। ऐसे में जब हम गणतंत्र दिवस इस वर्ष मनाने जा रहें। फ़िर हमें विचार करना चाहिए, कि क्या हम सभी वास्तव में एक है। फ़िर वह किसी भी रूप में क्यों न हो। 
     आज हमारा देश भाषा के नाम पर बंट रहा, धर्म के नाम पर, क्षेत्रीयता के आधार पर और तो और ग़रीबी- अमीरी के नाम पर भी देश में खाइयां गहरी होती जा रहीं। फ़िर कैसे मान लें। इतने वर्षों बाद संविधान की प्रस्तावना को सुशोभित करने वाले शब्द समाजवादी, पंथनिरपेक्ष,लोकतंत्रात्मक गणराज्य, प्रतिष्ठा और अवसर की समता आदि सार्थक हो पा रहें। इसके अलावा अगर हमारा संविधान सभी नागरिकों के लिए न्याय, स्वतंत्रता, समानता को सुरक्षित करता है तथा राष्ट्र की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए भाईचारे को बढ़ावा देता है। तो क्या ये सब बातें वास्तविक धरातल पर आकार लेती हुई दीगर होती। इसकी तथ्यात्मक विवेचना होनी चाहिए। संविधान का अनुच्छेद अवसर की समता की बात करता है। क्या आज के परिवेश में अवसर की समता दिखती है। ऐसे में अगर हम कहें कि उजाले में चिराग लेकर भी देखें तो देश मे किसी भी स्तर पर यह समता दिखाई नहीं देगी। ज़्यादा नहीं राजनीतिक दलों का उदाहरण ही ले लीजिए, क्या किसी दल में सामान्य व्यक्ति वह पद-प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकता। जो वंशवाद के नाम पर मुफ़्त में बांटा जा रहा। चाहें वह उस योग्य हो, या नहीं। फ़िर कहाँ गई अवसर की समता की राजनीतिक दुहाई? आज देश के लोकतंत्र की महती समस्या यहीं है, कि जिस गण को संविधान सर्वोच्चता प्रदान करता उसी गण की समस्त शक्तियों और अधिकारों को सियासतदां अपने निजी हित और सरोकार को साधने के लिए कागजों में समेट कर रख दिए हैं।
      भारतीय संविधान में आम नागरिकों को मौलिक अधिकार के रूप में अनुच्छेद 14 से लेकर 18 तक विभिन्न प्रकार की समता की बात की गई है। संविधान का अनुच्छेद 14 विधि के समक्ष समानता का अधिकार देता है, अनुच्छेद 15 धर्म, वंश, जाति, लिंग और जन्म स्थान आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किए जाने का समर्थन करता है। वहीं अनुच्छेद 15.4 सामाजिक एवम् शैक्षिक दृष्टि से पिछडे वर्गो के लिए विशेष उपबन्ध की बात करता है। इसके अलावा अनुच्छेद 16 लोक नियोजन के विषय में अवसर की समानता और 17 छुआछूत  के अंत की बात करता है। अब जब हम 70 वां गणतंत्र मनाने जा रहें, तो हमें विचार-मंथन अवश्य करना चाहिए कि आख़िर इन वर्षों के दरमियान हमने कितना इन विषयों पर सार्थकता पाई। गणतंत्र दिवस, संविधान और आम जनमानस पर चर्चा कर रहें, तो यह समझना होगा। लोकतंत्र में जिस लोक को सर्वोपरि बताया जाता रहा है, वहीं आज पिछड़ता दिख रहा।
            देश परमाणु शक्ति से संपन्न और महाशक्ति बनने की राह पर अग्रसर है। भारतीय वैज्ञानिकों ने दुनिया के देशों के सामने अंतरिक्ष में भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा लिया है। हम चांद-मंगल भी फ़तह कर लिए हैं। फिर भी आज देश के सामने प्रत्यक्ष रूप से ऐसे अनगिनत सवाल ख़ड़े हैं, जो हमें सोचने पर मजबूर कर देते हैं, कि हम किस आज़ादी और संवैधानिक ढांचे का ढिंढोरा पीट रहें? जब देश आंतरिक सुरक्षा के मुद्दे पर ही लहूलुहान हो जाता है। क्षेत्रवाद और भाषा के नाम पर हम एक देश के होकर भी बंटे हुए हैं। युवाओं को अपने आज़ाद देश के प्रति कर्तव्यों का ज्ञान नहीं रहा है। तो वही बहुतेरे प्रश्न मुँह बनाकर हमें चिढ़ा भी रहें, कि हम कैसा गणतंत्र दिवस मना रहे, जब सामाजिक और राजनीतिक कुरीतियों और बुराइयों से अलग आज़तक देश नहीं हो सका। कुछ प्रश्न हैं, जो हमें सोचने पर मजबूर कर देंगें, कि संविधान की बातें तो सिर्फ़ किताबी हो चुकी है। हमारे रहनुमा अंतिम पंक्ति के व्यक्ति तक योजनाओं को पहुँचा नहीं सके। देश में महिलाओं को तमाम प्रकार के प्रतिबंधों से मुक्ति दिला नहीं सके। धर्म और जाति की जकड़न और जंजीरें हम झंझावात लाकर तोड़ नहीं पाए। इसके साथ अगर आज़ादी के सात दशक बाद भी किसान और मजदूर पूंजीवाद की जकड़न से स्वतंत्रता महसूस नहीं कर पाए। फिर कैसा अवसर की समता और कैसा लोकतांत्रिक समाजवादी गणराज्य? 
        गांधी और अम्बेडकर ने तो यह सपना कभी नहीं देखा होगा, कि आने वाले वक्त में भी हमारा सपनों का भारत छुआ-छूत और उच्च और निम्न श्रेणी के अधर में पिसता रहेगा! विवेकानंद ने कभी न सोचा होगा, कि हमारे देश की आने वाली पीढ़ी नशे में आकंठ डूब जाएं। पर शायद आज की व्यवस्था को इन सब बातों का जरा भी फ़र्क नहीं पड़ता। आज के वक़्त सत्ता के लिए खुला खेल चल रहा। नैतिकता, सामाजिक आदि कर्तव्यों को दरकिनार कर दिया गया है। राजनीति तो राजनीति के लोग, समाज का उच्चतर तबका भी इस मसलें पर कमतर कहीं से कहीं तक नहीं है। सियासतदां संविधान की दुहाई देते नहीं थकते कि वे समाज को सर्वसमावेशी बना रहें, लेकिन हकीकत कुछ ओर है। ऐसे में सियासतदानों को समझना चाहिए। देश का निर्माण तो चंद अंगुलियों पर गिने जा सकने वाले व्यक्तियों से होता नहीं। देश बनता है प्रदेश के समूह से। प्रदेश किससे बनता है, जिलों, तहसीलों आदि से। वह जिला कैसे निर्मित होता है। वहाँ पर रहने वाले व्यक्तियों के समूहों से। ऐसे में जब तक हर व्यक्ति के हाथ में समान संवैधानिक अधिकार के अंतर्गत सुविधाएं न पहुँच जाएं। तब तक सभी नीति और नैतिकी भोथरी ही लगती है।
               अब बात समाज में समानांतर पुष्पित और पल्लवित हो रहीं दकियानूसी, अमानवीय सोच की। हम विश्वगरु और वैश्विक परिदृश्य के नेतृत्वकर्त्ता बनना चाहते। जिस पर समाज की ऐसी सोच अंकुश लगाने का कार्य ही करती है। कुछ उदाहरण से यह बात समझते हैं। जब हम और हमारा समाज ही जाति-धर्म के नाम पर आपस में बिखरा पडा है, तो कहीं विश्वगुरू बनने का सिर्फ़ मुलम्मा तो नहीं खड़ा किया जा रहा। इस पर गहन विचार-विमर्श होना चाहिए। आज हमारे समाज में आर्थिक और सामाजिक असमानता ही नहीं। इक्कीसवीं सदी में जब विश्व प्राचीन भारतीय मानवतावाद को आत्मसात कर रहा। उस दौर में हमारे देश में धर्म और शिक्षण स्थलों पर भी मानवीय जातिभेद से ग्रसित हैं। 26 जनवरी को हम 70 गणतंत्र दिवस मनाने जा रहें। दूसरी तरफ़ देव भूमि हिमाचल प्रदेश के कुल्लू बंजार घाटी की एक घटना संवैधानिक ढांचे और मानवीय मूल्यों पर प्रश्नचिन्ह लगा रही। वाकया कुछ यूं है, कि जिस दौर में सियासतदां विश्व गुरु और वैश्विक शक्ति बनने का दिवास्वप्न दिखा रहें। उसी दरमियान कुल्लू की बंजार घाटी के थातीबीड़ में एक मेले में लोकपरम्परा के नाम पर एक अनुसूचित जाति के युवक के साथ मारपीट की गई और साथ मे जुर्माना भी। अब उसके साथ अमानवीय व्यवहार क्यों किया गया। उसे समझते हैं। देवभूमि हिमाचल प्रदेश के कुल्लू के बंजार में वासुकी नाथ देव का मंदिर है। यहाँ हर वर्ष फागली उत्सव मनाया जाता है। इस उत्सव के अंतिम दिन देवता के गुर नर्गिस के फ़ूल को टोकरी में रखते हुए नाचते हैं और वह नाचते हुए यह फूल फेंकता है और जो इस फ़ूल को पकड़ता है। उसे स्थानीय परम्परा के अनुसार ऐसा माना जाता है भगवान का वरदान मिला है। अब उस युवक का ज़ुर्म यहीं था, कि उस युवक ने फूल पकड़ लिया था। जिसकी वज़ह से अनुसूचित जाति के युवक को पीटा गया और 5100 रूपए का अर्थदण्ड लगाया गया। यह वैज्ञानिक युग की कैसी विडंबना है, कि मानवता और मानवीय मूल्य को हमारा समाज देहरी पर रखता हुआ प्रतीत हो रहा। 
       अगर बात धार्मिक तथ्यों के आधार पर भी हो, तो कहा जाता है सबका मालिक एक है। इसके अलावा जब देवता कभी किसी के साथ भेदभाव नहीं करता। फ़िर मानव को यह आज़ादी किसने दे दी? देवता कभी इंसानों में भेदभाव करता तो श्रीराम कभी सबरी के जूठे बैर नहीं खाते और बाल्मिकी कभी रामायण नहीं लिख पाते। यह हमारे समाज को समझना होगा। अब बात शिक्षा के स्थल में भेदभाव की करते हैं। इसके लिए भी पहला उदाहरण देवभूमि के कुल्लू का। यहां के एक शिक्षण संस्थान की अखबारी सुर्खियां बनती है कि प्रधानमंत्री मोदी के मन की बात कार्यक्रम के दौरान विद्यार्थियों के साथ जातिगत भेदभाव हुआ। शिक्षण संस्थानों में भेदभाव का ये एक उदाहरण मात्र है। पूरे देश मे ऐसी घटनाएं आज के दौर में आम हो चली हैं। कभी मिडे-मिल के नाम पर तो कभी विषय-विशेष को पढ़ाने के नाम पर बच्चों के साथ जातिगत भेदभाव लगातार होता आ रहा। ऐसे में इन बाल मन वाले बच्चों पर इन बातों का क्या असर होता होगा, ये तो उन्हें ही मालूमात होगा। ऐसे में जब कुंठा और संकुचित मानसिकता बच्चो के दिमाग मे बालपन से ही समाज में भरी जा रहीं। फ़िर कैसा होगा देश और समाज का भविष्य। इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता। ये समाज में असमानता के चंद उदाहरण हैं। ऐसे उदाहरणों औऱ कृत्यों से हमारा परिवेश भरा पडा है। फ़िर बेहतर सामाजिक जीवन कैसे निर्मित हो सकता। यह लाख टके का सवाल उभर कर हमारे सामने आ जाता है। 
       भारतीय संविधान जो मानव-मूल्यों और कर्तव्यों, कानूनों की शरणस्थली है। क्या उसके लागू होने के बाद गांव, गरीब की स्थिति बदली। अब समय है, कि उस संविधान से प्राप्त अधिकारों और कर्तव्यों से ग्रामीण संरचना में कितना बदलाव आया, उस तरफ दृष्टि डालकर देख लें। संविधान भारतीय नागरिकों को अधिकार प्रदान करता है, तो कर्तव्यों के साथ कुछ बंदिशे भी लगता है। 1950 से शुरू हुआ दौर 21वीं शताब्दी के 2019 में पहुंच चुका है। अब यह जानना आवश्यक है, कि देश की लाचारिता कितनी कम हुई? ग्रामीण वातावरण के परिदृश्य में क्या बदलाव हुए? आज जब देश में विकसित देशों के साथ कंधे से कंधा मिलाने की सोच रहा है, तो क्या देश की आधारभूत संरचना भी विकसित देश के समक्ष टिकने लायक हो गई है। प्रथम गणतंत्र बेला पर भारत की आबादी 38.1 करोड़ थी, वर्तमान समय में देश में जनसंख्या विस्फोट की व्यथा उत्पन्न हो चुकी है, फिर 2011 की जनगणना के मुताबिक देश की आबादी 121 करोड़ को पार कर चुकी है, फिर यह जानना लाजिमी हो जाता है, कि क्या देश में मूलभूत सुविधाओं और जरूरतों की पूर्ति हो पा रही है, या नहीं। औद्योगिकीकरण के फलस्वरूप उत्पन्न पलायन के बावजूद 83.3 प्रतिशत आबादी ग्रामीण अंचलों में आज भी निवास करती है। संविधान में तमाम अधिकारों और कानूनों के उल्लेख के बावजूद ग्रामीण तबका शहरों की ओर पलायन करने पर क्यों मजबूर हो रहा है, इस विषय की सच्चाई से रूबरू होना भी जरूरी है।               वर्तमान परिस्थिति में ग्रामीण परिवेश अनेकों समस्याओं से ग्रसित है, और तमाम सरकारी प्रयासों के बावजूद ग्रामीण भारतीय परिवेश को शहरों की ओर रोजगार, शिक्षा आदि के लिए पलायन करना पड़ रहा है, लेकिन जनसंख्या दबाव के कारण शहरों की स्थिति भी भयावह हो रही है। ऐसे में यह सवाल उठना बेहद जरूरी हो जाता है, कि ग्रामीण अंचल का विकास क्यों नहीं किया जा रहा। जिससे लोग शहरों की तरफ विस्थापित न हो। किसी गणतांत्रिक और लोकाशाही राष्ट्र के विकास का पैमाना और उत्तम मानक शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार के अवसर होते हैं। इस मुद्दे पर कोई पूछेगा देश की स्थिति क्या है, फिर जवाब प्रतिकूल ही मिलता है। 2013 के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक देश में 2011 मे एक लाख 76 हजार के आस-पास समुदायिक स्वास्थ्य केंद्र स्थापित हो चुके है, देश में 9 लाख के करीब आधुनिक प्रणाली के डाॅक्टरों की फौज है, फिर भी दीपक तले अंधेरा ही है, कुपोषण, एनीमिया, और अतिसार के कारण देश का बड़ा हिस्सा काल-कलवित हो रहा है। साथ में सुदूर अंचलों में स्वस्थ और शिक्षा के स्तर पर भी वर्ग भेद साफ़ दीप्तिमान होता है। जो कभी दुःखद स्थिति को बयां करता है। जब देश का गणतंत्रता दिवस संविधान लागू होने की वजह से मनाया जाता है, और उसी संविधान की धारा 47 में स्पष्ट रूप से उल्लेख है, कि स्वच्छ पानी उपलब्ध कराना राज्यों का दायित्व है। फिर यह  प्रश्नचिन्ह खड़ा होता है, कि आजादी के पश्चात करोड़ों के खर्च के बावजूद जल की भयावह समस्या और स्वच्छ जल लोगों को क्यों नसीब नहीं हो रहा है। और हो भी रहा, तो सामुदायिक स्तर पर जातीय और लैंगिक भेदभाव क्यों? ऐसे में ऐसा भी नहीं देश की सूरत और सीरत नहीं बदल रहीं। बदल तो रहीं, लेकिन कुछ विषमताएं है। जिसे दूर करके ही बेहतर राष्ट्र का निर्माण हो सकता। जो विश्वगुरु बनने का माद्दा रखेगा!