हवेली के पीछे बने बगीचे में बहार आई थी। गुलमोहर के पीले खिले फूलों ने रजिया सुलतान का मन मोह लिया था। बिंदा रजिया के साथ बगीचे में लंच ले रही थी। बिंदा बेगम आज मूड में थीं। वो रजिया सुलतान को लखनऊ के नवाबों की अइयाशी की कहानियां सुना रही थी। बता रही थीं कि कैसे अंग्रेजों ने बड़ी ही चालाकी से नवाबों का उल्लू खिंचा था और उनका सारा राज पाट छीन लिया था।

“तुम तो फिल्म वाली हो सुल्तान।” बिंदा बेगम ने कहा था। “फिल्म है शतरंज के खिलाड़ी। कभी देखना। किस तरह अंग्रेजों ने मुगलिया सल्तनत का तख्ता पलटा, इन्हें चंगुल में फसाया और सब कुछ रेजीडेंसी के झंड़े तले आ गया।”

“और आप को मंसूर अली ने कैसे फसाया।” अचानक रजिया सुल्तान पूछ बैठी थी।

बिंदा बेगम के चेहरे पर बिखरे कोमल-कोमल भाव और हास-परिहास अचानक ही जाता रहा था। उनका चेहरा सख्त और गमगीन हो गया था। कोई दुख था जो उनके भीतर से भाग बगीचे की फिजा पर छा गया था।

“मेरे पिता पंडित पुरुषोत्तम दास गोस्वामी पुजारी, पुरोहित और कथा वाचक थे। मैं उनकी अकेली संतान हूँ। वो अपनी अकेली बेटी पर जान छिड़कते थे। उन्होंने मुझे खूब पढ़ाया-लिखाया। मैंने इतिहास में एम ए किया और रजिया सुल्तान पर पी एच डी की। मुझे यूनीवर्सिटी में जॉब मिलने की उम्मीद थी। तभी मॉं बीमार पड़ गई और उनकी हालत बिगड़ती ही चली गई। वो अब मरने-मरने को थीं। पिताजी ने जी जान से मॉं का इलाज कराया। जमा पूंजी सारी खर्च हो गई। मात्र घर बचा था। जिस पर हमारे सभी रिश्तेदारों की नजर थी।” ठहर कर बिंदा बेगम ने रजिया के चेहरे को पढ़ा था।

“लेकिन क्यों?” रजिया ने प्रश्न पूछा था।

“इसलिए कि पिताजी पैसे मांगें तो वो उनका घर अपने नाम लिखवा लें।” टीस कर बताया था बिंदा ने। “लेकिन .. लेकिन मैं कहां जाती – पिताजी की यही चिंता थी। मेरी तो शादी भी होनी थी। नौकरी अभी लगी नहीं थी। और फिर हम ..!” चुप हो गई थी बिंदा।

“मां नहीं बची?” रजिया सुल्तान ने पूछा था।

“नहीं।” बिंदा का स्वर कठोर था। “पैसा नहीं रहा तो अस्पताल वालों ने कहा सरकारी में ले जाओ।” बिंदा गमगीन थी। “पैसा ..। उस दिन मुझे पैसे का मोल पता लगा था, रजिया। किसी ने एक फूटी कौड़ी नहीं दी।” रोने-रोने को थी बिंदा। “और तब .. तब ये मंसूर अली किसी काम से अस्पताल में पहुंचा हुआ था।”

“अरे आप पंडित जी?” – इसने सादर पिताजी से पूछा था। “क्यों, किस लिए?” उसने खोजी निगाहों से मुझे भी देखा था। “क्या हुआ?” उसका प्रश्न फिर आया था।

“सलौनी को कैंसर है। अस्पताल वाले और पैसा मांग रहे हैं। यहां से जाऊं ..” पिताजी रो पड़े थे।

“कित्ते कमीने लोग हैं।” मंसूर अली गरजा था। “पैसा आ जाएगा। आप फिकर न करें।” उसने कहा था और मुड़ कर मुझे घूरा था। मैं डर गई थी।

“फिर ..?” रजिया सुल्तान ने पूछा था।

“मंसूर अली ने खूब पैसा लगाया था। मां ने तो मरना ही था। मर गईं। लेकिन मंसूर अली का पैसा? वही घर था। पिताजी ने कहा घर ले लो मंसूर भाई। पैसा तो मुझसे पटेगा नहीं।”

“कैसी छोटी बात कर दी पंडित जी।” मंसूर अली पुरजोर से गरजा था। “पैसा तो हाथ का मैल है।” उसने शेखी बघारी थी। “आप .. आप पंडित हैं .. पूज्य हैं।” उसने फिर से मुझे घूरा था। “घर में रहिए आप, खर्चे के पैसे भर दिए हैं।” फिर उसने जेब से नोटों की गड्डियां निकाल पिताजी को थमा दी थीं।” बिंदा एक दम मौन हो गई थी।

“फिर ..?” रजिया ने सवाल पूछा था।

“फिर एक अंधेरी रात में मंसुर अली घर आया था। पैसे का हिसाब पिताजी को थमाया था। पिताजी सकते में आ गए थे। वही घर था उनके पास। लेकिन जवान-जमा बेटी को ले कर कहां जाते?”

“आप बुरा न मानें तो मैं बिंदू को लिए जाता हूं।” मंसूर अली बोला था। “आप आराम से घर में रहिए। पैसे मैं और भिजवा दूंगा।” वह हंस रहा था। “बिंदू का बोझ भी आप के सर से उतर जाएगा।”

“न .. न .. नहीं मंसूर मियां। ये मत करो। म .. मैं मर जाऊंगा भाई।” पिताजी फूट-फूट कर रोने लगे थे। “मेरी इज्जत है मेरी बिंदू।”

बिंदा बेगम एक दम मौन हो गई थी।

“फिर क्या हुआ?” रजिया सुल्तान जान लेना चाहती थी।

“पिताजी ने उसी रात दम तोड़ दिया था।” बिंदा बोली थी। “और मैं इस राक्षस की कैद में आज तक बंद हूँ।” बिंदा बेगम फूट-फूट कर रोने लगी थी। दहाड़ें मार-मार कर अपने मृत पिता को याद करती रही थी।

सोफी की आंखें भी भर आई थीं।

रोलेंडो के दूत रघुनाथन के आगमन पर उत्सव का आयोजन भी कम आश्चर्यजनक न था।

रघुनाथन कालिया के साथ महल की छत पर छुप कर बैठा उत्सव मनाते समर कोट के नर नारियों को बड़े चाव से देख रहा था।

उत्सव का आयोजन खुले में हो रहा था। दो सिंघासन थे जिन पर जालिम और तरन्नुम बेगम विराजमान थे। दोनों शाही पोषाकों में सजे थे। दोनों ने रतन जड़ित मुकुट पहने थे। दोनों के चेहरे बड़े ही कोमल भाव और उल्लास से भरे थे।

नर्तकियां विविध पारदर्शी परिधानों में सजी-वजी थीं। वन फूलों और रत्न जड़ित आभूषणों से लदी-फदी एक नई परम्परा का परिचय थीं। संगीत लहरी गूंज रही थी। अलग सा ही कोई वाद्य यंत्र था जिसकी धुन मीठी और उन्माद भरी थी।

नाचती नर्तकियां एक बहता उमड़ता समुंदर सा लग रही थीं। घोषणा हुई थी – जालिम जनाब नर्तकियों के बीच उतर रहे हैं। जालिम सिंहासन से उठा था और नृत्य करती सुंदरियों के बीच जा नाचने लगा था। बेगम तरन्नुम अपने सिंहासन पर ही विराजमान थीं।

नृत्य का उन्माद इतना बढ़ा था कि हर कोई नाचने लगा था।

संगीत की धुन पर थिरकते ठुमकते कालिया और रघुनाथन भी आत्म विभोर हो उठे थे।

“अब ध्यान से देखना किसके कंधे पर हाथ रखता है जालिम।” कालिया ने रघुनाथन को सचेत कर दिया था। “वो .. वो रख दिया कंधे पर हाथ।” कालिया कूदा था। “अब इसे जालिम लाल ताल ले जाएगा।”

“लाल ताल ..? लाल ताल क्यों?” रघुनाथन ने पूछा था।

“इसलिए कि लाल ताल अइयाशी के लिए मन भावन स्थान है। मैंने तो देखा है।” मुसकुराया था कालिया। “रात को चंद्रमा की चंद्र कलाएं तालाब के जल में डूब-डूब कर किलोलें करती हैं तो प्रेमियों के मन प्राण सजग हो जाते हैं। रात भर प्रेमालाप चलता है। सुबह का सूरज आता है तो लाल-लाल किरणों से छू कर जगाता है प्रेमियों को। नर्तकी अब विदा मांगती है तो उसे कीमती भेंट दी जाती है। ये अब जालिम की हो जाती है हमेशा के लिए। घर बसाए, शादी करे या कुछ भी करे लेकिन जालिम का हक बरकरार रहता है।”

“अजीब ही लोग हैं, यार।” रघुनाथन तनिक तिलमिला गया था। “ये जालिम तो ..”

“जालिम है।” कालिया कह कर हंस गया था।

“मेरी मुलाकात ..?”

“कल तो नहीं होगी। उत्सव का अवकाश रहेगा। कल के बाद कभी भी ..” कालिया ने इशारा किया था।

अब रघुनाथन सोच में डूबा था। अगर छत्तीस हजार टन का सौदा बन गया तो उसका कमीशन तो ..? जालिम के उत्सव से भी बड़ा हर्षोल्लास रघुनाथन के तन बदन में भर गया था। क्या ऐसा हो सकता है कि मैं भी ..?

“क्यों नहीं।” रघुनाथन का मन फिर बोला था। “अगर मैं समर कोट पहुंच सकता हूँ तो क्या ..?”

“जालिम बनोगे?” एक प्रश्न कूद कर रघुनाथन के सामने आ खड़ा हुआ था।

“नहीं, कभी नहीं।” रघुनाथन ने जेसे एक शपथ ली थी। “मैं तो अपना कमीशन ही कमाऊंगा बस।” उसने तय कर लिया था।

लेकिन जालिम जोरों से हंसा था और कह रहा था – जिगरा चाहिए जालिम बनने के लिए दोस्त।

“जिंदा रहोगे तभी तो कमीशन कमाओगे?” अब कालिया ने भी व्यंग किया था। “कल क्या होगा – कौन जाने। हमारे लिए तो समर कोट, समर कोट नहीं जेल है।”

रघुनाथन को भी लगा था कि वो किसी ऊंचे पहाड़ की चोटी पर आ चढ़ा था और अब धड़ाम से नीचे आ गिरेगा। उसे सहसा आत्म ज्ञान हुआ था कि धन माया के लालच में वह रास्ता भूल समर कोट पहुंच गया था। अब उसका उत्थान नहीं पतन होगा। और हो सकता है कि वो जालिम की जेल में जिंदगी बिताए और हो सकता था कि वो ..

रघुनाथन ने अपने चारों ओर निगाहें पसार कर देखा था।

निकल भागने का कोई रास्ता न था। स्थिति भी उसके हाथ में न थी। वह अंजाने में फस गया था।

सोने का बना समर कोट अब उसे सैल्यूलर जेल लग रहा था।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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