गोविन्द
खैर पुर गाँव की खबर-सुध लेने आज कोई युगान्तर के बाद ही आया था !
एक रौनक-सी उठ बैठी थी – हवा में ! देश-भक्ति के गीत सन्नाने -मन्नाने लगे थे . झंडे फहराए जा रहे थे . पोस्टर भी लगे थे . न जाने क्या था जो होनेवाला था . सूरत मुखिया समझ ही न पा रहे थे .
उन्हें याद आ रहा था कि कभी ऐसा ही जश्न -जुलूस आज़ादी आने के वक्त पर ही हुआ था . तब वो छोटे थे …पर इतने नहीं ! खूब याद है उन्हें कि किस तरह …नेताओं के नाम ले-ले कर रेडियो बताता रहा था …कि हमने उन के बल पर आज़ादी ली है और अब हम स्वतंत्र हैं …मुल्क के मालिक है !
पर आज कोई कुछ क्यों नहीं बता रहा था , उन्हें …?
“गोविन्द आ रहा है !” पूछने पर ही पता चला था , उन्हें . “खैर पुर का ही तो है . तुम्हें तो जानता है, दद्दा !”
“गो-वि-न्द ….!” सूरत मुखिया ने दिमाग पर तनिक जोर डाला था . उम्र हो गई थी, उन की . ज्यादा कुछ सुध-बुध नहीं रहा था . “बिट्टा ….?” उन के दिमाग में प्रश्न उगा था . “हो न हो , बिट्टा ही हो …!” उन का अनुमान था . वह खबरदार हुए थे . उन्होंने अपने बोये-बसाए साम्राज्य
को टटोला था . उन का दिमाग सजग हो गया था . वो अचानक ही एक तैयारी करने लगे थे .
खैर पुर को आज सूरत मुखिया ने नई निगाहों से देखा था .
उन का सब था . हवेली थी . खेत-खलिहान थे . ट्रोली -ट्रेक्टर थे . और जमा-जोड़ …पूँजी तथा पैसा भी था . उन का नाम था . अदल भी था . बेटे भी ऊंचे पदों पर थे . बेटियां तक जज थीं . वकील बहू और …! गिनाते ही चले जा रहे थे , मुखिया !! उन का मुकाबला ढूंढें कहीं न था ! लेकिन ये …गोविन्द ….बिट्टा ….?
“लो ! कोरिया भी पढ़ने लगे …?” सूरत मुखिया ने अपनी ही आवाज़ सुनी थी . “ऐसी क्या आज़ादी , भाई !” उन का एलान था . “ये …गोविन्द …गोकुल कोरिया का लड़का …?” उन्हें रोष हो आया था . लेकिन वो कुछ कर न पाए थे. वक्त ही और आ गया था !
अचानक ही सूरत मुखिया की आँखों के सामने तब का खैर पुर आ खड़ा हुआ था !
हाँ ,हाँ ! वहां …उस जघन्य इमली के पेड़ के नीचे … उस के आस-पास …नाले के साथ-साथ …गोकुल का कुनवा बस गया था . उन का व्यापार चलता था . टुकरी बनाते थे …बेचते थे . सूत कताई पर देते थे . बुनते घर में ही लगा रखे थे . बाहर के आस-पास में उन का कारोबार चलता था . बुनाई-कताई से लेकर छपाई तक , सब था .
“खेत क्यों ख़रीद रहे हो, गोकुल …?” सूरत मुखिया ने पूछा था .
“काम नहीं चल रहा है, मुखिया ! मिलों का माल आ रहा है . बाजार में मिटटी कुट गई है , हमारी . न मोल मिलाता है …न मज़दूरी निकलती है . अब तो …”
“खेती-बाड़ी करोगे ….?”
“हाँ, मुखिया ! गोविन्द का मन है …!!”
तब गोविन्द उन से मिला था . पढ़-लिख गया था . बहुत सुशील और भोला था . कहने लगा – मुनाफा तो खेती में है, दद्दा ! एक चने के सौ चने हो जाते हैं . …एक गेहूं के …हज़ारों गेंहूं ….! और यहाँ क्या …? रात-दिन खटने के बाद भी मज़दूरी डूब जाती है ! आप आशीर्वाद दो , दद्दा ! मैं चने बोऊंगा . ” उस ने सूरत मुखिया की आँखों में झाँका था .
“क्यों नहीं ….! शौक से चने बो दो !! पर हाँ, अच्छी तरह से भुना लेना चनों को !” उन्होंने गोविन्द को आगाह किया था .
और गोविन्द ने ….उस पढ़े-लिखे -गंवार गोविन्द ने चनों को भुना कर बो दिया था . खूब हंसी हुई थी . लोगों ने खूब रंग लिया था . और जब खेत हरा नहीं हुआ था तो गोविन्द ने मुखिया से पूछा था -कब उगेंगे चने , दद्दा …?
“अगले साल तक उग आएँगे ,बेटा !!” उत्तर किसी और ने दिया था .
शर्म से लाल …विश्वासघात से आहत ….और अपने मनोरथ में विफल हुए गोविन्द का बाल-रवि सा चहरा मुखिया की आँखों के सामने जलने-बुझने लगा था .
अब लौटा है …गोविन्द – एक घोषणा जैसी हुई थी .
मुखिया के पैर उखड़ने लगे थे . मुखिया का मुंह सूख गया था . मुखिया की आँखों की रोशनी बुझना चाहती थी . मुखिया चाहते थे कि – वहीँ …इसी वक्त ज़मीन में समा जाएं ! कुछ हो …सो हो …पर वो गोविन्द के सामने न आएं !! कुछ ऐसा हो- जो …
“तुम्हारा क्या बिगाड़ लेगा , गोविन्द …?” अहंकार बोला था – मुखिया का ! “कोरिया नहीं रहे तो …उन की ज़मीन-जायदाद …मुखिया ने हड़प ली थी …तो हड़प ली !! कानून का कोई पेच न था – जो मुखिया के साथ न था ! और फिर घर के जज थे …वकील थे …! क्या लेलेगा उन से गोविन्द …? कितना वक्त गुजर गया …और कितना …..
कितना जन-मानस गोविन्द से मिलने उमड़ आया है ! कितनी पुलिस है …कितनी भीड़ है …और कैसा उन्माद है !! हर किसी की जुबान पर गोविन्द का गुण-गान है …’गोविन्द महान है ‘ का गीत जैसा ही गाया जा रहा है ! सूरत मुखिया उस सैलाव को आते देखते ही रहते हैं .
अब एक लम्बे मछली के आकार की कार चौपाल के सामने आ कर रुकी है . गोविन्द कार से उतरा है . देव-स्वरुप-सी एक पिंडी जैसा गोविन्द मुखिया को बहुत भला लगा है . उस ने नपे-तुले कदमों से चौपाल की सीढियाँ चढ़ी हैं . फिर वह मुखिया के सामने आ कर रुक गया है ! अब आ कर मुखिया खड़े हुए हैं ! गोविन्द ने उन्हें अपनी बांहों में भर लिया है . …दुलारा है …प्यार किया है …और सराहा है !
“ओह,…दद्दा… !” वह कह रहा है . “आप का आशीर्वाद लेने फिर लौटा हूँ …., दद्दा !” वह कहता ही जा रहा है .
मुखिया अब आ कर मुक्त हुआ लगा है . गोविन्द ने ज़मीन-जायदाद लेने को जो नहीं कहा है ! केवल आशीर्वाद ही माँगा है !!
“वो सब ….?” गोविन्द ने इमली के पेड़ की और इशारा कर कुछ पूछा है. “अब कुछ नहीं रहा , न ….?” वह हंसा है. “पर पेड़ तो है ही न ….? इसे प्रणाम कर के लौटूंगा !” वह कह रहा है . “ये देखिए ….!” अब वह इमली के पेड़ के पास खड़ा हो बता रहा है. “यहाँ हमारे भूमियाओं का थान होता था ! उस पर त्रिशूल गढ़ा होता था …और मोर-पंख सजे होते थे ! स्कूल जाने से पहले मैं इन्हें प्रणाम कर के निकलता था !” गोविन्द जोरों से हंसा है .
मोती जैसे बिखर गए हैं , चहुँ और !
अब वो जा रहा है . लोग कह रहे हैं – कितना उंचा उठा है , ये आदमी ! लोग बता रहे हैं कि गोविन्द गरीब-नबाज़ है . चर्चा चल रही है कि वो देश को स्वर्ग बना देगा …! इमानदारी और सादगी को गोविन्द गहनों की तरह पहनता है और ….
“क्या रे, गोविन्द ….?” मुखिया की आँखों से चौधार आँसू चुचा रहे हैं . “आशीर्वाद के बदले जो अभिशाप मैंने तुझे दिया था …उस का प्रतिकार तक नहीं चुकाया , तूने …?” वह सुबक-सुबक कर रो रहे हैं. “वाह रे , मेरे मसीहा …!!” उन्होंने आसमान को निहारा है .
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श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!