गतांक से आगे :-

भाग -६१

“घर नहीं …आना …?” कविता का फोन था . चन्दन चौंक पड़ा था . जैसे कोई भयानक स्वप्न हो …और उसे दैत्यों ने आ घेरा हो …ऐसा लगा था , उसे ! “उसी के पास रहना है …ता-उम्र ?” कविता का अगला प्रश्न था . वह जानती थी कि …चन्दन अवश्य ही केतकी के घर ठहरा है . अब उसे चन्दन चाहिए था …! आज उसे ….

“आता हूँ ..!” बड़े ही सहज भाव से चन्दन बोस ने उत्तर दिया था. वह किसी भी तरह से आज अपने मनोभाव किसी को भी न बताना चाहता था.

चन्दन ने आँख उठा कर अपने आसपास को देखा था !

सूरज आधा आसमान पर चढ़ आया था. समुद्र हिलोरे ले-ले कर हंस रहा था. हवा सात समुन्दर पार से आकर उसे कहानियां सुना रही थी – प्रेमियों की कहानियां – जिन्हें आताल पाताल .. हवा पानी .. आदमी और परिंदे आज तक रोक नहीं पाए थे ! प्रेमियों का मिलन .. बिछोह से बड़ा होता है – चन्दन सोच रहा था. पारुल से उसका मिलन एक संयोग था – जीवन का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण संयोग !

लेकिन ये क्या ..? अभी-अभी पास बैठा सुन्दर भविष्य उठकर भाग गया था ! समूचे सुखी संसार की संरचना .. मात्र एक कविता का फोन सुनकर भाग गई थी. क्यों ..? नहीं, नहीं ! अब वह किसी हाल में भी कविता को अपने ऊपर हावी न होने देगा ! वह कविता को दो टूक बता देगा .. कि ..

“भूखे हो ..?” उसका अंतर्मन बोला था. “बना बनाया काम बिगाड़ लोगे ..!!” आवाजें आ रही थीं. “तुम .. चन्दन बोस .. कभी अपने बारे में सोचोगे ..भी …..?”

“हाँ, हाँ! अब अपने बारे में ही सोचूंगा ! अपना अलग सुख-संसार बसाऊंगा ! अब मै .. मै कविता तो क्या .. परमात्मा को भी नहीं बताऊंगा कि ……..”

केतकी की कार स्टार्ट कर चन्दन घर की ओर चल पड़ा था !

उसे भूख लगी थी. सोचा – घर जाकर खायेगा .. नहाएगा .. कविता से माफ़ी मांग सो लेगा ! फिर फुरसत में बात करेगा. कहेगा – उसका और केतकी का कोई रिश्ता नहीं है. जब किसी ने भी फोन नहीं उठाया था – तो उसने केतकी को फोन किया था .. और .. और केतकी .. के पास .. नहीं नहीं वह तो होटल में कमरा लेकर पड़ा रहा था .. भूखा-प्यासा .. और ..

“झूंठ बोलना तुम्हारे लिए नई बात नहीं है, चन्दन !” कविता के कर्कश स्वर उसने सुने थे. वह घबराने लगा था. हिम्मत हारने लगा था – चन्दन.

‘तुमने हमेशा इसी तरह जीती बाजी हारी है – दोस्त ….!’ चन्दन का अंतर आज बोल रहा था.

‘कॉलेज से लेकर आज तक तुमने हर मोर्चे को फतह किया लेकिन सम्हाला नहीं ! फेंक दिया. जीती त्रोफियाँ बाँट दीं .. आये इनाम दोस्तों में बाँट दिए .. यहाँ तक कि हासिल किये सर्टिफिकेट भी तुमने संभाल कर नहीं रक्खे…? तुम सोचते रहे कि .. तुम ……’

‘एक दिन इतना बड़ा बनूँगा कि .. इस पहाड़ से भी ऊँचा और अलग दिखूंगा .. दोस्तों…!’ कॉलेज का चन्दन कहता रहता .. सपने देखता रहता और अपनी ईगो को पोषता रहता ..

लेकिन .. लेकिन वक्त ने इस कदर पीटा .. इस कदर बर्बाद किया कि लेने के देने पड गए. पापा क्या डूबे .. उसका भी संसार डूब गया ! बम्बई आया था – अपने सपने लेकर लेकिन यहाँ भी जब मार पड़ी तो चौकड़ी भूल गया था ! फुटपाथ पर .. चौड़े में कहाँ-कहाँ नहीं पड़ा रहा था ! विचित्र नगरी है- ये बम्बई ! मांगो तो भीख नहीं मिलती – और बिन मांगे ..

“नौकरी करोगे ..?” के डी सिंह ने उसे स्टूडियो में पकड़ा था. “क्यों चक्कर काटते हो …? बूढ़े हो जाओगे बेटा .. मिलेगा कुछ नहीं ! नट-भाड़ों का मेला है, ये. मेरे पास आ जाओ .. चन्दन बना दूंगा !”

“मेरा नाम चन्दन ही है अंकल !”

“तो फिर देर किसकी ..? चलो मेरे साथ……!!”

बस यहीं से उसका नामकरण इस खबर – खुराफातों की दुनिया में .. छपा. यहीं से उसने जिंदगी की शुरुवात की. और .. और हाँ .. कुछ दिनों के बाद उसे अपनी इस दुनिया में एक अजीब सा आनंद आने लगा था. लोगों की ख़बरें थीं .. उनके अपने नाम सुनाम थे और उनके अपने घाटे बाड़े थे लेकिन वही उनके लिए धन कमाने के आंकड़े थे ,अंडे देने वाली मुर्गी थे. लोग आते .. गिडगिडाते .. लेते-देते .. समझोते-सौदे करते और के डी सिंह का काम चलता. चन्दन के आने के बाद से तो ..

“बाउजी .. में ..! मेरा मतलब कि .. मेरा भी कुछ ..?” चन्दन ने कुछ पाने के लिए जुबान खोली थी.

“अरे, लो !” गरजे थे, के डी सिंह. “मेरा क्या है, भाई ! सब तुम्हारा है ! में तो तुम्हारे लिए कमा रहा हूँ.” उनका कहना था. “ऑफिस में रहते-सहते हो .. कल घर में आ जाना ! शादी के बाद सब तुम्हारा .. और कविता का ! मै तो हरिद्वार चला जाऊँगा, संभालना सब ..”

चन्दन था कि ठगा-सा उनका मुंह देखता रह गया था !

घर आ गया था. उसने कार खड़ी कर दी थी. अब वह हिम्मत जुटा रहा था – कविता से मुकाबला करने के लिए. लग रहा था – शादी के बाद नहीं .. आज वो शादी से पहले कविता से मिलने आया था. शादी से पहले .. उसने कविता को देखा कब था ? उससे मिला ही नहीं था. के डी सिंह चाहते ही नहीं थे .. कि ..

“सुना है, चन्दन बाबू शादी कर रहे हो ?” ऑफिस के हेड कन्हिया बाबू ने पूछा था. वह ‘हीं-हीं’ कर बड़ी देर तक हँसते रहे थे. बुजुर्ग थे. बडा वक्त देखा था – उन्होंने ! “घर जम्मैया बनोगे ..?” चुपके से पूछा था, उन्होंने. फिर मुस्कुराए थे. चन्दन उनकी बात समझ ही न पा रहा था. “मेरे दादा कहते थे – दूर जमईया फूल बरोबर तो पास जमईया आधो !” उन्होंने चन्दन की आँखों में सीधा देखा था. “और भईया – घर जमईया गधा बरोबर – चाहे जित्ता लादो !” वह तालियाँ पीट पीट कर हँसे थे. “कमर टूट जायेगी तुम्हारी .. चन्दन मियां ..! कमाते-कमाते…. मरोगे पर ..”

तब नहीं – कन्हिया बाबू की बात अब आकर समझ आई थी, चन्दन को !

अपने ही घर की घंटी बजाने से पहले उसे पसीने आ गए थे ! दरवाजा अनायास ही खुला था. कविता ही थी. उसने केतकी की कार को सरसरी निगाह से देख लिया था. कविता का सांवला चेहरा स्याह काला पड़ गया था. उसकी आँखों में क्रोध के ज्वालामुखी भभक उठे थे. चन्दन होने वाली जंग को जान गया था. लेकिन .. आज वह लड़ना नहीं चाहता था !

लेकिन घर के भीतर तो अखाडा सजा हुआ था. उसके दोनों बेटे हाजिर थे. दोनों ने चन्दन को एक चोर की हैसियत से देखा था. दोनों तनिक मुस्कुराए थे. दोनों दो दिशाओं में सेटियों पर ऊँचे बैठे थे. चन्दन की भूख प्यास और नहाने की चाह .. न जाने कहाँ गायब हो गई थी. वह अवाक .. एक मुजरिम की तरह .. उन तीनो माँ बेटों के बीचों बीच आ बैठा था !

“ये .. महारानी .. तुम्हारी क्या लगती है ..?” प्रश्न कविता ने किया था. “ये छपे तमाम फोटो .. ये तुम्हारे .. इसे लाने…. ले.. जाने के .. कार्यक्रम क्या हैं ?” कविता भभक आई थी. “ये .. बेशर्मी .. ये ..?”

“लिसिन, कविता……!” चन्दन बड़े ही सौम्य ढंग से बोला था. उसका इरादा सुलह सफाई का था. “ये तो .. वो प्रोटोकाल हैं .. जो… कभी-कभी बड़े और प्रतिष्टित लोगों के लिए ..”

“फिर ये क्या है ..?” कविता ने दूसरा अन्तरंग चित्र दिखाया था. “और ये कौन सा .. प्रोटोकाल है ..?” वह पूछ रही थी. “और ये .. अइयाशी.. ये एशो आराम .. और ये .. ये ..!” बिफर पड़ी थी, कविता. “तुमने .. तुमने हमे कहीं का नहीं छोड़ा, चन्दन ! बदनामी ..!” वह हांफ रही थी. “कल को .. इन बेटों की शादी .. ब्याह ..?” उसने सांस संभाली थी. “कौन देगा हमे अपनी बेटी ..?” वह दहाड़ी थी. “क्यों .. क्यों चौपट कर रहे हो हमे .. चन्दन ..?” उसने गुहार जैसी लगाईं थी. “इस उम्र पर आकर .. ये एमाल ..?”

चन्दन चुप था. दोनों बेटे उसे गौर से देख रहे थे .. नाप रहे थे .. तौल रहे थे. दोनों रह-रह कर विलाप करती अपनी केकई माँ को देख रहे थे. एक चुप्पी ने अचानक पूरे घर को भर दिया था. चन्दन चाह रहा था कि ये तूफ़ान अगर यहीं थम जाये तो .. वो .. कुछ खाये .. नहाये .. आराम कर ले ..

“अब .. यहाँ से आगे एक पल भी बर्दाश्त न करुँगी चन्दन,.. कि ..” कविता ने अजीब तरह से चन्दन को घूरा था. “इस पार .. या उस पार ..!!” उसने मांग की थी.

“उस .. पार ..!!” चन्दन बड़े ही सधे अंदाज में बोला था. “मै .. उस पार ..!!” उसने फिर से कहा था.

“एक फूटी कौड़ी न दूंगी ..!” कविता की कर्कश आवाज आई थी. चन्दन ने आज गौर से कविता के चेहरे को पढ़ा था. वही .. के डी सिंह का लालची चेहरा था. वही घटिया अंदाज था, कविता का ! और पारुल ..? “रहना अपनी अंटी -संटीयों के साथ ! इस घर से कोई सरोकार नहीं ..!” आदेश दिए थे कविता ने.

अबकी बार कविता के आदेशों का पीछा करती दोनों बेटों की निगाहें उसे नाप रही थीं. उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि उनके पापा आज माफ़ी-शांफी क्यों नहीं मांग रहे थे ? क्यों आज जिद पर तन आये थे ? क्या कहीं .. कोई दाल में काला था ..?

“मुझे .. मंजूर है !” चन्दन ने धीमे से कहा था. “मै .. चला ..!” वह बहार जाने को उठा था.

“इस तरह नहीं ! मै सब जानती हूँ. तुम्हारी नस-नस से मै वाकिफ हूँ.” कविता दहाड़ रही थी. “ये, लो ! बनाओ अपने हस्ताक्षर …!” उसने कागजों का एक पुलंदा चन्दन के सामने रख दिया था. “आज से .. अभी से .. हमारा रिश्ता ख़त्म !”

“इस तरह नहीं !” चन्दन अकड कर खड़ा हो गया था. “कोर्ट में होगा ! मेरी कमाई है ! पाई-पाई मेने कमाई है ! था क्या के डी सिंह के पास ? भूखों मरते थे, हम लोग ! मेने रात दिन कमाया और .. और पूरे व्यापार को बढाया ! एश करते हो .. मेरी कमाई पर .. और ..”

“तुम ..? एश तुम करते हो……अइयाशी .. रंडी-बाजी ..”

“कविता ..!!” गरजा था चन्दन. “इनफ…. इज… इनफ !” वह फन उठाकर खड़ा हो गया था.

“कमोन, पापा …..!” खली ने उसे पकड लिया था. “साइन ..!” उसने आदेश दिए थे.

“एंड पापा .. बिहेव.. विथ द लेडीज ……” बलि – छोटा बेटा कह रहा था. “बाप की कमाई बेटे ही तो खाते हैं ..?” खली हंस रहा था.

“हो गई आपकी छुट्टी, हमेशा के लिए…..!” दोनों ने कहा था – और जोरों से हंस पड़े थे.

कविता ने अपनी जिद के मुताबिक धक्के मार कर ही चन्दन को घर से निकाला था ……!!

लेकिन वो तीनो ही नहीं जानते थे कि वो कर क्या बैठे थे …….!!

क्रमशः-

मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !

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