बसों से उतरते ही उन सब को लगा था कि वो स्वर्ग में पहुँच गये थे!
पुन्नू था ही इतना रम्य कि आदमी की आत्मा अचानक जाग उठती थी। हवा के मात्र स्पर्श से पूरी थकान गायब हो गई थी। पुन्नू के प्राकृतिक सौंदर्य को देख उन सब के मन प्रसन्न हो गये थे। सामने के ढलवान पर जड़ा बगीचा जैसे उन सब को बुला रहा था। और पुन्नू के चरण पखारती पुष्पांजली नदी का शीसे सा साफ जल उनके सारे पाप धोने को कह रहा था!
हिमालय – नाम से मशहूर हुआ ये पुन्नू में बना पर्वतारोहियों का कॉलेज अपनी एक अलग पहचान बना चुका था।
बिस्कुटों के साथ गरमागरम चाय का आनन्द ही कुछ और था। लगा था – इस तरह की चाय उन लोगों ने कभी पी ही न थी! चाय बड़े बड़े मगों में डाल कर दी थी और साथ में बड़े बड़े बिस्किट थे। अलग ही था – सब कुछ!
“काफी बड़ा प्रतिष्ठान है!” नरहरि बाबू कहने लगे थे। “भई! मैं तो पहली बार ही इस स्वर्ग में आया हूँ!” उनका स्वर मधुर था। “भला हो सोनम का जो खींच लायी!” वह हँसे थे। “वर्ना तो मैं .. किताबी कीड़ा ..”
सब का हाल यही था!
“मैं आपका नाम पुकारूँगी!” सामने एक सफेद पोशाक में सजी धजी महिला आ खड़ी हुई थी। “आप सामने आएंगे और अपनी कॉटेज की चाबी ले लेंगे!” वह बताने लगी थी। “कुल तीन ही ग्रुप में कॉटेज मिले हैं। दो तीन तीन और एक पांच का ग्रुप है!” उसने सूचना दी थी। “समीर और माधुरी प्लीज!” उसने आवाज लगाई थी।
समीर माधुरी के साथ सामने आया था और अपने कॉटेज की चाबी ली थी। उसके बाद सोनम का नाम था और वो अपनी मॉं शैव्या और बाबूजी नरहरि के साथ सामने आ कर चाबी ले गई थी। कपीश और कमल .. उसके बाद श्रीकांत बसंतवीर के साथ आया था और चाबी ली थी .. और फिर सबने बारी बारी अपनी चाबियां ले ली थीं!
अजीब गहमा गहमी आरम्भ हुई थी। कॉटेज के ग्रुपों के हिसाब से अलग अलग दोस्तीयां हुई थीं। अलग अलग पहचानें बनी थीं। एक अनूठा परिचय हुआ था। लगा था जैसे अलग अलग प्रांतों से लोग आ आकर भारत में बस रहे थे – और एक समृद्ध समाज की संरचना कर रहे थे!
शाम का खाना सामूहिक रख्खा गया था!
कॉटेज का ताला खोलने से पहले समीर का माथा ठनका था। कॉटेज कोरी घासफूंस की बनी थी। दरवाजा भी कोई पुरातन का नमूना था जिसे आज आम नहीं देखा जाता! और कॉटेज के साथ उगे दो मौलसरी के पेड़ न जाने क्या क्या कह रहे थे!
“क्या सोच रहा है रे ..?” माधुरी ने उसे टहोका था। “खोल न ताला!” उसने आग्रह किया था।
और जब समीर ने ताला खोला था और कॉटेज में भीतर झांका था तो हैरान रह गया था।
“ओह गौश मॉं!” उसके मुँह से निकला था। “ब्यूटीफुल!” वह उछला था! “व्हाॅट ए सरप्राइज़?” वह कह रहा था। “मॉं! किसी ताजमहल से कम तो नहीं ..?” उसने पूछा था।
“चल – तू खुश तो हुआ!” माधुरी हँस पड़ी थी। “बिलकुल ..” वह रुक गई थी। उसे शायद अपना अतीत याद हो आया था।
“अरे भाई! हमारी खिड़कियां साथ साथ खुलती हैं!” सोनम पुकार रही थी। “व्हाॅट ए वंडर यार!” वह हँस रही थी।
हर किसी को बांस और पहाड़ी घास फूंस से बनाई – सजाई कॉटेज पसंद आई थीं! यह शायद दूसरा स्वर्ग था – उन सबके लिये!
“समीर बेटे!” अचानक कॉटेज में घुस आये कपीस कह रहे थे। “अरब सागर के बाद हिमालय के दर्शन कर मैं तो संपूर्ण हो गया!” वह खुशी में उछल रहे थे। “क्या कमाल है भाई!” उन्होंने आंखें भर भर कर पर्वत श्रेणियों को देखा था। “पता भी नहीं था कि ऐसा कुछ ..?” वह बता रहे थे।
“हम लोग घर से निकलते नहीं हैं!” कमल ने उलाहना दिया था।
कपीस का चेहरा तन आया था। न जाने कैसा कैसा खट्टा मीठा स्वाद उनके मन में तैर आया था। उन्होंने माधुरी को स्नेहमयी निगाहों से धूरा था। शायद वो उससे मदद मॉंग रहे थे कि उन्हें बच्चों के हुए इस हमले से बचा ले।
“कहॉं कहॉं जाये आदमी?” टीसे थे कपीस। “कुल सात साल की उम्र में मैने बाबा के साथ नाव पर जाना शुरू किया था, बहनजी!” वह बताने लगे थे। “क्या था हमारे पास! ले दे कर वही नाव थी। और जो मछली पकड़ लाते थे उसी से गुजारा होता था!” वेदना भरी थी उन की ऑंखों में। “बेटे कमल! तुम तो भाग्यशाली हो जो ..” उनका गला भर आया था। “तीन तीन दिन कभी कभी नाव पर निकल जाते थे, बहिनजी!” वह बताने लगे थे। “लेकिन ..”
बुरे वक्त थे वो .. बहुत बुरे!
“डिनर टाइम!” सोनम जोरों से चीखी थी।
सब सतर्क हो गये थे। सब को अचानक जोरों की भूख लग आई थी। सबको और कुछ नया देखने की लालसा सताने लगी थी। सबने डिनर पर जाने के लिये गरम कपड़े पहन लिये थे। हवा में सर्दी सन्नाने लगी थी!
अब सब लोग इकठ्ठे होकर डिनर पर जा रहे थे। कॉटेजों से एक छोटी पगडंडी पुष्पांजली के उस ओर बने संस्थान की ओर जाती थी। कतारबद्ध हुए सभी उस छोटी पगडंडी पर चले जा रहे थे। पुष्पांजली को पार करने के लिये – मोटे मोटे पत्थरों पर पैर जमा जमा कर जाना था। पानी ज्यादा गहरा न था। नदी उन्हें बहुत बहुत अपनी जैसी लगी थी।
काफिला बढता ही गया था। अन्य ग्रुपों से आये लोग भी शामिल होते गये थे और अब डाइनिंग हॉल में एक अनूठी हलचल भरी थी। रात के इस अलौकिक अवसान में पूरा का पूरा संस्थान सजीव सा हो उन सब से अलग अलग बतियाने लगा था!
आसमान पर उग आये तारे – जमीन पर पैदा हुए सितारों से आ मिले थे!
एक अलौकिक क्षितिज बन कर खड़ा हो गया था आकाश और धरती को उन्होंने पहली बार मिलते देखा था! और वो झाींगुरों का शोर कितना मधुर संगीत पैदा कर रहा था – सब लोग हैरान थे!
एक लम्बी चुप्पी के बाद सब लोग अपने अपने चोलों में लौट आये थे!
“लाजवाब मीनू है जी!” सुदेसबाला बता रही थीं। ये गुजरात से अपनी बेटी सरोजबाला के साथ आई थीं। पति – रघु ओबेरॉय बड़े व्यॉपारी थे। “हम गुजराती लोग तो ..”
“खूब मीठा खाते हैं?” कुँती ने व्यंग किया था। सब लोग हँस पड़े थे। ये अपने बेटे मनहर सिसोदिया और पति राम सिसोदिया के साथ राजस्थान से आई थीं। “हम राजस्थानियों की तरह गुजराती भी ..” कुंती कहती रही थी।
एक विनोद भर आया था डाइनिंग हॉल में!
छोटे छोटे समूहों में बँटे लोग आपस में बतियाते-गपियाते भोजन का आनन्द लेने लगे थे। गर्मा-गरम खाना इस ठंड के प्रकोप में सब को बेहद भला लगा था। सबने पेट भरकर खाया था – खूब खाया था!
हिमालय में आकर हर किसी ने महसूसा था कि जीवन में इस तरह के मौके मिलते ही रहें तो जीना कितना आसान हो जाएगा? राजमर्रा की खिचखिच और खिटखट से आदमी पागल होने को हो आता था!
और ये पहाड़ – ये प्रकृति के साथ हुआ साक्षातकार और ये तारों की छॉंव में चुपचाप तैरते बादल .. खिलती चॉंदनी – सब कितने सुहावने थे?
“मैं तो अब निकला करूंगा कलकत्ता से!” भूतल सेठ व्रत जैसा ले रहे थे। वह अपने बेटे सूरज सेठ के साथ अपनी पत्नी भवानी को लेकर आये थे। “यारों! कोई जिन्दगी है? उस शहरी जमघट में जमा होने के बाद तो आदमी आपा ही भूल जाता है!” वह हँस रहे थे। “भवानी तो बहुत कहती रही थी – पर इस बार सूरज ने जिद की तो मैं माना!” वह बता रहे थे। “शायद हमारे ये बच्चे ..?” उनकी नजरें उठी थीं। तमाम किशोरों को उन्होने निगाहें भर भर कर देखा था। “ये बदल देंगे जहान को!” उन्होंने दुआएं जैसी दीं थीं।
एकबारगी सारे किशोरों के अविभावक एक मत हुए लगे थे कि उनकी अगली पीढी शायद एक नए समाज, देश और दुनियॉं का निर्माण करेगी! इन बच्चों में अलग से एक दूरदृष्टी है – जो उन सब में नहीं थी! वो सब तो संसार के मारे गमों से घायल थे! उनका संसार तो रोटी-चोटी से आगे कभी गया ही नहीं!
“कल के लैक्चर में कैडिडेट्स के साथ आप सब भी आमंत्रित हैं!” मैनेजर सूचना दे रहे थे। “बछेन्द्री पाल आ रही हैं! आप सब उन से मिल कर ..” वह मुस्कुराया था। “हम आपका स्वागत करेंगे!” कहकर वह चला गया था।
अलग से एक प्रसन्नता की लहर दौड़ गई थी। बछेन्द्री पाल का नाम और काम तो जग जाहिर था! लेकिन उनसे मुलाकात का सौभाग्य तो हर किसी को नहीं मिलता था!
“मैं तो उसे एक सवाल जरूर पूछूँगी!” रानी कौशल ने ऐलान किया था। ले अपनी बेटी कविता और पति कौशल के साथ जम्मू से पधारी थीं। “तेरी शादी ..?”
सब लोग हा-हा कर हँस पड़े थे!
क्रमश:
मेजर कृपाल वर्मा साहित्य