नंगा कर के छोड़ दिया था !!
उपन्यास अंश
विस्तार -५
“आईये , मेरे बाबू जी ! आईये ….मेरे कदरदान ….महरबान ….” एक अधेड़ उम्र का लड़का चौराहे पर मज़माँ लगा रहा होता था .
राम लाल बताने लगा था . वह और आनंद बगीचे में बैठे चाय की चुस्कियां ले रहे थे . आनद तनिक चिंता मग्न था . उसे अभी भी अपनी आँखों के सामने अन्धकार घिरता लग रहा था !
“वो मैं था , आनंद बाबू ! मैं – राम लाल …गुरु जी के मरने के बाद अनाथ हुआ …मैं अब पैसे कमाने के प्रयत्न कर रहा था ! मैं जी-जान लगा कर लोगों को वही दिखाता …बताता जो मैं गुरु जी के सामने दिखाता -बताता था !” राम लाल रुका था . उस ने आनंद के मनोभावों को पढ़ा था . वह कहीं गुम था . “कमाल तो ये था , आनंद बाबू कि ….जो लोग गुरु जी के सामने तालियाँ बजाते …मुझे बड़ी ही प्रशंसक निगाहों से निहारते …वही लोग अब मुझे हीन द्रष्टि से देखते …और आने-दो आने फ़ेंक कर चलते बनते !” राम लाल चुप हो गया था .
आनंद ने महसूसा था कि राम लाल के चहरे पर पुरानी टीस-सा कुछ उभर आया था ! उस के भोगे तमाम दुःख आनंद के सामने आ खड़े हुए थे . और आनंद था कि उन्हें छूने से भी नांट गया था !
“भूखों मरने लगा था , मैं आनंद बाबू !” राम लाल लौटा था – किसी अंतहीन यात्रा से . “और फिर मैंने नौकरी तलाश करना आरंभ की थी .” वह तनिक हंसा था . “बिलकुल आप की तरह ….! फर्क इतना कि …आप ऍम ए – पास हैं ….और मैं बिलकुल ही ठूंठ था ….गंवार !” हंसा था , राम लाल . “स्कूल गया ही कब ….?” उस ने एक अफ़सोस जाहिर किया था .
“मिली नौकरी ….?” आनंद पूछ बैठा था .
“हाँ,हाँ ! मिली थी – नौकरी ! नुक्कड़ पर चलते रोमी के ढाबे पर डेरा डाल दिया था ! दिन निकलने से पहले ही …हमारे लिए दिन निकल आता था …और रात होने के बाद भी रात न होती !” जोरों से हंसा था , राम लाल . “हम नौकर थे ….ढाबे पर काम करते हम – छोकरे ….मानव नहीं -मशीन थे ! हमारा मालिक – रोमी जल्लाद था !” राम लाल ने फिर से आनंद को घूरा था .
“मारता था ….?” आनंद पूछ रहा था .
“नहीं ! उस का तो अंदाज़ ही अलग था ! ‘अब्बे ! नहाते ही रहोगे ….?’ रोमी आवाज़ देता . मैं लईयन – पईयन …भागता …काम पकड़ लेता …! और जब हार-थक कर मैं खाने पर बैठता …तो फिर रोमी आवाज़ देता ,’ब्बे,साले ! खाते ही रहोगे ….?’ और हम फिर से खाना छोड़ काम पकड़ लेते !” रामलाल ने साँस संभाली थी . “न नाम था …न पैसा था ….और न ही आराम था ….? और न थी हमारी कोई इज्जत ! हाँ, नौकरी तो थी , आनंद बाबू !” अब की बार खुल कर हंसा था , राम लाल .
आनंद को जैसे हज़ारों-हज़ार बिच्छू एक साथ काटने लगे थे – ऐसा लगा था ! अब नौकरी के मात्र स्मरण से उस के मुंह का जायका ही बिगड़ गया था ! उसे अपना हुआ इंटरव्यू याद हो आया था ! मालिक को तो नौकर से काम लेना होता है , बस ! आनंद आज फिर से सोचने लगा था …..
“उम्र जा रही थी – मुझे एहसास होने लगा था, आनंद बाबू ! मुझे ज्ञान हुआ था कि …रोमी के पास …पड़ा-पड़ा मैं बूढा भी हो जाऊंगा ….तब भी छोकरा ही रहूँगा ! यहाँ मेरी कोई पद-प्रतिष्ठा होने वाली न थी ! रोमी अपने सिवा किसी अत्ते खान को भी न गिनता था !” राम लाल फिर से हंसा था .
“आप तो पढ़े-लिखे हैं !” राम लाल ने आनंद को घूरा था . “क्या पढ़े हैं , आप ….?” उस का प्रश्न था .
“ऍम ए ….इन हिस्ट्री …..!” आनंद ने गहक कर उत्तर दिया था .
“लेकिन …क्या फायदा है …..?” राम लाल ने फिर से गोले की तरह प्रश्न दागा था .
आनंद फिर से निराशा के सागर में जा डूबा था !
“मैं फिर से सड़क पर आ गया था !” राम लाल ने कहानी का सूत्र पकड़ा था .
“क्यों ….?” आनंद ने उत्सुकता वश पूछ लिया था .
“झगडा हुआ था ….रोमी के साथ मेरा ….झगडा …हुआ था ! लाख माँगने पर भी पैसे देता ही न था . कहता – किस लिए चाहिए , पैसे ? खाना -रहना मुफ्त है ! जेब खर्च देता हूँ . सप्ताह में एक सिनेमा देखने की छूट है ! इतना सब तो देता हूँ ! फिर ….साले पैसे …..?” वह दहाड़ रहा था . “मुझे आज तक का हिसाब दो ….?” मैं भी अड़ गया था . जम कर झंझट हुआ . पर मैं रोमी से पैसे ले कर ही टला !”
“फिर ….?” आनंद के कान खड़े हो गए थे .
“फिर ….?” राम लाल हंसा था . उस ने अपने आप को कुर्सी पर ठीक से स्थित किया था . “फिर , आनंद बाबू ! मैं चल पडा ! मैं खुली सड़क पर चल पड़ा ! हाँ ! जो मेरी जेब में पैसे थे -वो मुझे मित्र लगे ! मेरा सब से बड़ा सहारा…अब वो पैसे ही थे – जो मैंने कमाए थे …और रोमी से हासिल किए थे ! मैं प्रसन्न था . मेरे पैर मुझे लिए-लिए भाग रहे थे ….! न जाने कौनसी मेरी मंजिल थी ….जिस की और मैं चला ही जा रहा था !”
“पहुंचे , कहीं ….?” आनंद ने अब की बार हंस कर पूछा था .
“क्यों नहीं ….?” राम लाल ने आनंद की जांघ पर थपकी दी थी .
“कहाँ …?” आनंद ने भी पूछ ही लिया था .
“बाटा चौक !” राम लाल ने प्रसन्न हो कर बताया था . “एक तरह से तो ये एक वियावान ही था ! पर मेरी सूझ-बूझ ने कहा था – ये तुम्हारे लिए मक्का -मदीना है ! यहीं डट जाओ ! खोल दो …अपना होटल ….”
“खोल दिया था , होटल ….?”
“हाँ ! खोल दिया था – होटल !! एक बड़ा स्टोव …आटा …और अचार का डब्बा ले आया ! घड़े में पानी रख दिया . पेड़ की छाया में एक टूटी बेंच पहले से ही पड़ी थी ! बस, मेरा होटल चालू ! गरम-गरम पराठे – अचार के साथ …और पानी मुफ्त ! छाँव पेड़ की —सो कोई पैसा नहीं !” हंस रहा था , राम लाल . “सच मानो , आनंद बाबू ! अपने पहले ही दिन की कमाई गिन मैं बल्लियों कूदा था ! “
“फिर ….?”
“फिर तो चल पड़ा था – राम लाल का ढाबा ! मेरे पराठे दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो गए थे ! मैंने अचार अब खुद ही बनाना आरंभ कर दिया था . तीन लडके भी रख लिए थे . मेज-कुर्सी खरीद लीं थीं . पानी भी अब गिलासों में देने लगा था ! और अब चाय का धंधा भी साथ-साथ चालू कर दिया था !”
“पौ-बारह …..!!” आनंद प्रसन्न हो कर बोला था .
“हाँ ! लेकिन ……”
“लेकिन ….?”
“पहुँच गए , पुलिस वाले ! पहले तो पेट भर-भर कर खाना खाया ….फिर लगे पूछ-ताछ करने ! कहाँ के हो ….? क्यों हो ….? कब से हो …? कित्ता कमाते हो …? चलो, थाणे !!”
“क्यों ….? थाणे क्यों ….चलूँ ….?” मैं अकड गया था .
“सडाक ….!!” एक झापड़ उस लम्बे पुलिस वाले ने मेरे मुंह पर दे मारा था . “चल ….!!” उस ने मुझे आगे-आगे डाल लिया था …..और ले आये थे , पुलिस थाणे . “हमारे इलाके में ….बिना हमारी इजाज़त के धंधा पीट रहा है ….? नोट कमाँ रहा है ….? चोर ….!!” पुलिस वाले कह रहे थे .
“फिर ….?”
“नंगा कर के ….छोड़ दिया , मुझे !” अब राम लाल रोने-रोने को था .
“वेरी …सैड ….!!” आनंद का कलेजा हिल गया था . उसे लगा था जैसे उसी को पुलिस वालों ने पकड़ कर सड़क पर ला पटका था ! “फिर ….आप ने …?” आनंद ने डरते-डरते पूछा था . “ए ग्रेट ….ट्रेजेडी ….!!” आनंद जैसे स्वयं से कह रहा था .
“भट्ट बाबा ने ….ताबीज दिया था ! बस …., उसी के बाद से हमारे तो व्वारे-न्यारे हो गए …” मैंने एक महिला को कहते सुना था . मैंने उस महिला को गौर से देखा था .
“भट्ट बाबा ….?” मैंने उसे पूछ ही लिया था . मेरे मन में भी पुरानी एक जिज्ञासा जाग गई थी .
“मढ़ी पर रहते हैं . खूब भीड़ रहती है . कोई भी मिल सकता है .” उस महिला ने मुझे बताया था . “कोई दुःख है ….तो मिल लो , भैया !” वह राय दे रही थी . “दुनियां के दुःख दूर करते हैं ….पर कुछ लेते-देते नहीं ! श्रद्धा …हो …सो दे आओ !” उस ने मुझे अपनी समझ भी दे दी थी .
“और सच मानो , आनंद बाबू ! मुझे जैसे परमात्मा ही मिल गया था ! मैं तो भाग लिया था ….और मैंने मढ़ी पर जा कर ही दम लिया था ! खूब मेला लगा था . भीड़ थी . लोग थे . और थी भट्ट बाबा की चर्चा ! उन की प्रशंसा थी ! उन्हें परम-पुरुख की उपाधि मिल चुकी थी . वे पूज्य थे . मेरा भी मन भर आया था ! मैं अपने नम्बर पर सीधा ही भट्ट बाबा के चरणों में लेट गया था ! लेकिन ….” रुक गया था , राम लाल . उस के चहरे पर मुस्कान लौट आई थी . “भट्ट बाबा ने मुझे बांहों में भरा था …..और एकांत में ले गया था ! मेरे चरण पकड़ लिए थे . वह मुझ से भीख मांग रहा था कि में ……”
“कौन था ….?”
“गज्जू था !उसे मैंने ही तो यह सब सिखाया था ! औए अब ये सिद्ध पुरुष बन चुका था !” मुस्करा दिया था , राम लाल .
आनद को लगा था कि राम लाल ने ….अभी-अभी आसमान को पकड़ा है ….और उसे तोड़-मरोड़ डाला है !
“चलें ….?” राम लाल का प्रश्न था . “रिक्शा आ गया है !” उस ने आनंद का ध्यान आकर्षित किया था !!
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क्रमशः –
श्रेष्ट साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!