जोहारी बंबई पहुंच गया था। यह एक सनसनीखेज खबर थी।
अब किसी न किसी के भांडे तो बिकने ही थे। किसी न किसी ने आत्महत्या भी जरूर करनी थी। जोहारी को तो अपना काम करना था। उसे कर्ज पटाना आता था। फाइनेंसरों का पैसा डूबता कहां है। वह तो वसूल कराता है और छाती पर चढ़कर पैसा ले लेता है। मरता तो वो है जो जरूरत के वक्त ओने-पोने ब्याज पर पैसा उठा लेता है और फिर ..
फिल्म चलेगी, कमाएगी, डूबेगी या कि मझ धार में ही बह जाएगी – यह तो कोई नहीं बता सकता था। कोरा किस्मत का खेल था। खाक पति को न तो करोड़ पति होने में वक्त लगता था और न ही करोड़ पति को भाग्य भिखारी बनाने में देर लगाता था। बड़ा ही आकर्षक खेल था।
“थैंक्स गॉड! हमने किसी से कर्जा नहीं लिया।” विक्रांत ने प्रसन्न होते हुए स्वयं को सराहा था। ये सुधीर का कारनामा था। “सो सुधीर संभाल ही लेगा!” उसका अनुमान था।
और सुधीर था कि अब बावला हुआ पूरी बंबई के चक्कर लगा रहा था।
“हमारी तो जानी मानी फर्म है भइये!” कालिंदी फिल्म्स प्राइवेट लिमिटेड के डिस्ट्रीब्यूटर सेठ मगन लाल सुधीर को समझा रहे थे। “हम फिल्म वो लेते हैं जो कमाई करे!”उनका कहना था। “काल खंड जैसी आफत को कौन झेलेगा?” वो हंसे थे। “मेरी बात मानो भइये! पहले इसे गोवा में रिलीज कर लो। सैलानी लोग आते हैं। अच्छी लगती है तो फिल्म देख लेते हैं वरना तो चुपचाप उठ कर चले जाते हैं। लेकिन नॉर्थ में तो लोग कपड़े फाड़ने पर उतर आते हैं।” वो हंस रहे थे। “या इसे लेकर साउथ में चले जाना। कम्यूनिस्टों को बहुत पसंद हैं – ऐसी फिल्में।”
सुधीर सेठ मगन लाल के हुलिए को पढ़ता ही रहा था।
काल खंड के छपे रिव्यू बड़े ही कॉन्ट्रोवर्शियल थे। विमल घोसाल ने जहां जमकर फिल्म को सराहा था वहीं बच्चू भाई ने उसे मात्र आर एस एस का प्रचार-प्रसार बताया था। नेहा के अनेकानेक चित्र थे तो विक्रांत के हिला देने वाले संवाद थे। लेकिन खुड़ैल का जादू कुछ ऐसा था जो लोगों के सर चढ़कर बोलता था।
“फिल्म मनोरंजन के लिए बनती है! अगर कोई पाठशाला खोल कर सिनेमा हॉल में आ बैठे और लोगों को इतिहास पढ़ाए तो सोचो कौन भला आदमी ये जहमत उठाएगा कि ..”
जितने मुंह उतनी ही बातें थीं। अब सुधीर भी परेशान होने लगा था।
“लगता है भाई जी डूब गए!” सुधीर बेदम हुआ विक्रांत के सामने बैठा था। लगता नहीं कि हमारे पैसे भी लौटेंगे।” उसकी आवाज में घोर निराशा थी।
“सब लौटेगा सुधीर भाई!” विक्रांत ने उसे धीरज बंधाया था। “ये मार्केट का ट्रेंड है।” उसने समझाया था। “हर कोई अब हमें पटाना चाहेगा ताकि वह करोड़ों का माल कौड़ियों में लूट ले जाए!” हंसा था विक्रांत। “ये सब जानते हैं कि काल खंड कित्ता कमाएगी। लेकिन ..”
“लेकिन भाई जी ..” सुधीर परेशान था।
“तो नहीं रिलीज करेंगे दीवाली पर!” विक्रांत ने सुझाव रक्खा था।
“तो फिर क्या करेंगे?” प्रश्न नेहा ने पूछा था।
“कैली है न! पहले यूरोप में रिलीज कर देंगे फिर देखना कैसा रंग आता है।” विक्रांत ने एक नया रास्ता दिखा दिया था।
सुधीर को लगा था कि विक्रांत उसे मात्र खुश करने के लिए यूरोप की बात कह रहा था। उसका मन तो डूबा जा रहा था। उसे तो अब धन आता दिखना चाहिए था! उसकी उम्मीदें तो थीं कि ..
“ले लो पैसा सेठ!” पोपट लाल का फोन फिर आया था। “दुखम्मा-सुखम्मा मैं इसे बेच लूंगा!” वह बता रहा था। “आप को घाटा मैं न दूंगा।” उसका वायदा था।
विक्रांत ने नेहा की ओर देखा था, सुधीर सध सा गया था!
“नहीं!” नेहा ने जोरों से कहा था। “पोपट लाल को नहीं बेचनी ये फिल्म!” उसने साफ मना कर दिया था।
“पोपट लाल जी! मैं फिर फोन करता हूँ आपको!” विक्रांत ने भी बात को लटका दिया था।
“अगले मंडे को सारे प्रोड्यूसरों को बुला लेते हैं। दो नए ट्रेलर दिखाते हैं।” विक्रांत ने फोन उठाते हुए कहा था। “मुझे उम्मीद है कि बात बनेगी।” उसने सुधीर को हिम्मत बंधाई थी।
सुधीर की जान में जान लौट आई थी।
“भाई जी आपसे बहुत नाराज हैं।” जोहारी बता रहा था। “अभी वक्त है!” उसने रमेश दत्त को सचेत किया था। “करो कुछ – इस करामाती मंडी का!” तनिक हंसा था जोहारी। “मैं तो ..” बाकी का संदेश उसने आंखों को तरेर कर दिया था।
कासिम बेग की जान हथेलियों में आ धरी थी। जोहारी का तौर तरीका आज पहली बार कासिम बेग को बुरा लगा था। उसे बहुत बुरा लगा था कि जोहारी बड़ी ही आसानी से आदमी की जान तक ले लेता था और ..
“कब तक हैं आप बंबई में?” रमेश दत्त ने औपचारिक प्रश्न पूछा था।
“जब तक आप जाने को न कह दें।” जोहारी खुल कर हंसा था। “मेरा और कोई काम है ही नहीं दत्त साहब!” वह कहता रहा था।
जोहारी के जाने के बाद रमेश दत्त ने पसीने पोंछे थे और एक गिलास पानी पिया था। जोहारी – साक्षात मौत ही तो थी जो उसे दर्शन दे कर लौट गई थी। जिंदगी को कैसे बचाया जाए – अब कोई ऐसी जुगत लगानी थी कासिम बेग ने। लेकिन कैसे ..
“आदाब! नवाब साहब!” अचानक ही मुसाफिर सामने आ खड़ा हुआ था। वह प्रसन्न था।
रमेश दत्त को नई उम्मीदें जगाता कोई फरिश्ता ही लगा था मुसाफिर!
“लाए भी हो कुछ?” रमेश दत्त ने सीधा प्रश्न पूछा था। वह जल्दी में था और जान लेना चाहता था कि क्या कुछ था मुसाफिर के पास जिसे जोहारी के मुंह पर मारा जा सकता था।
“एटम बम है।” मुसाफिर खड़ा खड़ा हंस रहा था। “बताया तो था मैंने!” उसने पूछा था। “किस्मत के धनी हो नवाब साहब!” मुसाफिर कह रहा था। “वरना तो जो करिश्मा हो गया है – इसकी तो मुझे भी उम्मीद न थी।”
“क्या हो गया है?”
“ये देखिए! एटम बम है – ये लैटर नहीं है।” मुसाफिर ने भीतर की जेब से पत्र खींच कर रमेश दत्त को दिखाया था। “खुदा कसम नवाब साहब! मैंने जिंदगी में न जाने कितनी बार करतब किया है!” कुछ सोच कर फिर बोला था मुसाफिर। “अगर मुझे मेरा लौंडा बर्बाद न कर देता तो शायद था कि मैं आपकी सेवा करने से नाट जाता!”
“दिखाओ तो ..?”
“नहीं!” मुसाफिर ने पत्र को भीतर की जेब में सहेजा था। “पहले मेरा इनाम!”
“मुंह मांगा मिलेगा आज!” रमेश दत्त ने फौरन कहा था।
“बेगम को अभी फोन खड़काओ! मेरी बात कराओ!”
और अपनी सारी शर्तें पूरी करा कर मुसाफिर ने वह पत्र नवाब कासिम बेग को एक अनमोल अस्त्र की तरह सौंप दिया था। वह फौरन ही चला गया था। नवाब साहब फिर से अकेले छूट गए थे।
अल्लाह को सलाम बजाने के बाद रमेश दत्त ने उस पत्र को गौर से देखा था। फिर लिफाफे को खोला था। फिर मजमून को पढ़ा था। और फिर ..
“अब नहीं मरूंगा मैं।” रमेश दत्त ने अपने दोनों हाथ आसमान की ओर तान दिए थे। “ओ अल्लाह! तेरा लाख लाख शुक्र है जो तूने मुझे ये संजीवनी दे दी।” वह कहता रहा था।
लगा था – काल खंड अभी अभी खंड खंड होकर हवा में बिखर गई है। उसके चिथड़े हैं जो पूरी बंबई की फिजा पर फैलते जा रहे हैं। विक्रांत का अंत है और नेहा उसकी गोद में आ बैठी है।
“कोरा मंडी एक बार पूरी हो जाए नेहा।” रमेश दत्त नेहा के अंगों को सहलाते हुए कह रहा था। “फिर तुम हमारे जलवे देखना मेरी जान।” उसने नेहा को समीप समेटा था। “तुम देखना देखना नेहा कि कौन कौन सी जन्नतों में हम जाते हैं! मैं .. मैं तुम्हारे नाम पर मुमताज महल का निर्माण कराऊंगा और मैं .. तुम्हारे नाम पर ..”
फोन की घंटी बज उठी थी। रमेश दत्त ने पलट कर देखा था। उसका सुंदर स्वप्न अभी भी उसके पास बैठा था।
“कब शूटिंग हो रही है कोरा मंडी की?” साहबज़ादे सलीम ने पूछा था।
“जल्द होगी!” विहंस कर बोले थे रमेश दत्त। “लेकिन मींयां आप नहीं पाकिस्तानी पठान को ले लिया है। नेहा की चॉइस है। हाहाहा!” हंसते ही रहे थे दत्त साहब!
ये खुशियां भी अजीब ही होती हैं! कभी भी किसी भी आसमान से टूटती हैं और बरसती ही चली जाती हैं।
मेजर कृपाल वर्मा