धारावाहिक – 19
रमेश दत्त मुझे एक लावारिस लाश की तरह मेरे घर की चौखट पर पटक कर चला गया था।
मैं थी कि अभी भी गमों के महासागर में गाेते खा रही थी । आशा -निराशा के बीच में आ खड़ी हुई मैं – समझ ही न पा रही थी कि ….करूं तो क्या करूं ?
पूर्वी विश्वास जी-जान से मुझे समझने और संभालने में लगी थी । उन्हें अभी भी भरोसा था कि उन का बांधा गंडा – मुझे किसी भी हाल में मरने न देगा । डायन हारेगी और एक दिन मुझे छोड़ कर चली जायेगी , वह समझती थीं । हां , मेरी बिगड़ी शकल-सूरत ने उन्हें बेहद चिंतित बना दिया था । बाबा तो पूरी तरह से पूर्वी के ऊपर ही टिके थे । जहां तक समीर का प्रश्न था – उस के पास मेरे लिये समय ही न था । उस ने मुझे देखा था । कुछ सुना था ।लेकिन समझा कुछ न था। उस ने तो मुझ से बात तक न की थी । जैसे उसे मुझ से …या कि इस घर से कुछ लेना-देना ही न था ।
कई बार मन हुआ था कि सीमा को फोन करूं पर हौसला ही न हुआ था ।
आश्चर्य ये था कि मेरी कोख बोलने लगी थी । आने वाला बच्चा मुझे प्रश्न पूछने लगा था । ‘मेरे बाप का नाम ?’ वह जिद पर अड़ा था कि मैं उसे बताऊं कि वह किस का बेटा था और कहॉं का रहने वाला था ….तथा और कौन-कौन थे – उस के ?
लेकिन मैं तैयार न थी । किसी भी कीमत पर मैं उसके प्रश्नों का उत्तर न देना चाहती थी । मैं किसी भी कीमत पर कासिम से जुड़ना न चाहती थी । मैं नहीं चाहती थी कि इस प्रस्तावित रिश्ते को स्वीकार लूं ।
‘मैं कौन हूँ , मॉं ?’ अजीव प्रश्न था ।
‘नहीं । तुम कुछ नहीं हो ।’ मैं चिल्लाने लगी थी-जैसे । ‘शट-अप ।’ मैंने जोरों से कहा था और ….पलंग की पाटी पकड़ रोने लगी थी ।
अचानक नियति आ बैठी थी मेरे सिरहाने और मुझे समझाने लगी थी ।
‘हार मान लो , नेहा।’ एक स्निग्ध आवाज थी । ‘बुरा क्या है?’ प्रश्न था , उस का । ‘अब रमेश दत्त की शर्तों पर ही जीओ ।’ एक सम्पूर्ण सुझाव आया था । ‘सारे गम-गायले स्वतः ही दूर हो जाएंगे ।’ एक राय थी । ‘तुम भी …नूरजहां और मुमताज बेगम की तरह कोई फरहान बेगम – नाम रख लो …और अपना ईमान-धरम और जमीर-जांठा बेच दो ? भूल ही जाओ , नेहा कि ….तुम्हारे कोई मॉ-बाबा भी थे ….और सीमा -समीर भी कोई थे …या कि हैं । तुम तो ….हा, हां । तुम तो बेगम ….’
लेकिन मैं ठहर गई थी । मन था – कि मान ही न रहा था ।
‘क्या नहीं है , कासिम के पास ….?’ फिर से वही प्रश्न चला आया था । ‘नवाब है । जागीरें हैं । बाग-बगीचे हैं । तालाब है ….और खेत-खलिहान से ले कर …मस्जिद और कब्रिस्तान तक सब कुछ ताे है, नेहा ?’ नियति मुझे समझाने लग रही थी । ‘यों तड़प-तड़प कर मरना ….और पाई-पाई के लिये मुहताज ….?’
‘छोटी बेगम कहते हैं , तुम्हें ये सब …., नेहा ?’ आवाजें रमेश दत्त की ही थीं । ‘पसंद आया ….?’ वह पूछ रहा था । आज उस के सर पर जीत का सेहरा बंधा था ।
‘हां। ‘ अचानक ही मेरी लाश बोल पड़ी थी ।
और तभी फोन की बजती घंटी ने मुझे जगा दिया था ।
‘इंग्लैंड से …….ओ …नहीं , नहीं । पोलेन्ड से ….आ-ग-ये ।’ राधू की आवाज थी । पर फोन कट गया था ।
अचानक ही मेरी बंद ऑंखें खुल गईं थीं । लाश जी उठी थी । आता मेरा अंत अब पैरों पर ठहर गया था । एक शीतल पवन प्रवहमान हुई लगी थी । क्या ये भोर के पल थे – मैं सायास पूछने लगी थी । फिर मैं क्यों सोई पड़ी थी ? क्या हुआ था, मुझे ? कौन थी, मैं …? भ्रमित करते मेरे ही प्रश्न मुझे घेरे खड़े थे ।
‘नेहा । मैं आ गया , नेहा।’ अचानक मैंने तुम्हारे बोल सुने थे, बाबू ।
फिर क्या था । मैं बिस्तर से उठी थी । मैंने अपने बासी चेहरे को नहीं धोया था। मैंने अपने अस्त-व्यस्त बालों को भी नहीं संभाला था । मैंने अपने मैले-कुचैले कपड़ाें की ओर ध्यान तक न दिया था । न जाने मैंने चप्पलें भी पहनी थीं या नहीं । पर हां-हां । इतना तो मुझे ध्यान है ,बाबू कि ….मैं तुम्हें हर कीमत पर पाने के लिये दौड़ ली थी …..। सरपट दौड़ी थी, मैं। रिक्शा …टैक्सी …..लोकल …और न जाने कैसे-कैसे मैं …..तुम्हारे पास पहुँच गई थी ।
और मुझे याद है , बाबू कि तब तुम प्रेस के लोगों से घिरे खड़े थे । शायद उन्हें पोलेन्ड के किस्से सुना रहे थे । अब आ कर मैं झिझकी थी । मुझे अचानक ही अपने हाेश-हुलिये का ज्ञान हुआ था । कैसे ……कैसे ….? मैं कुछ समझ ही न पा रही थी । लेकिन जमा लोगों की भीड़ ने तो मुझे चीन्हा था और ….
हमारी ऑंखें मिलीं थीं , बस ।
और….और …हॉं । तुमने तुरंत ही उस जमा भीड़ को त्याग …आगे बढ़ कर मुझे अपने आगोश में समेट लिया था । तुमने मुझे खूब-खूब प्यार किया था । दुलारा था , मुझे । संभाला था , मुझे और फिर पूछा था –
‘क्या हुआ , नेहा ….?’
लेकिन मैं तो तुम्हारे सीने में मुंह छिपाये रोती ही रही थी …..और मैं उस दिन खूब ही रोई थी ।
लेकिन अब क्या करूं , बाबू । अब तो तुम्हारा जैसा कोई धीर-धरैया भी नहीं रहा …?
फिर रोने लगी थी , नेहा ।
क्रमशः ………