धारावाहिक- 23
‘दिला दे , बेल …?’ कल्पतरु से मैं मजाक कर बैठी थी। मेरा मन आज हलका-भारी हो रहा था । आशा-निराशा आ-आकर मुझे मुंह चिढ़ा रहीं थीं । मैं कई बार आसमान पर डोल आई थी और अब जमीन पर चलना अच्छा न लग रहा था । ‘चल, कर देते हैं तेरी भी पूजा …?’ हँसी थी , मैं । फिर मैंने कल्पतरु के ही जमीन पर बिखरे पड़े पीले-गुलाबी फूलों को अंजुरी में भर लिया था । ‘लो, फूल चढ़ा दिये ।’ मैंने अब कल्पतरु को समग्र रूप से देखा था । फिर कुछ सोच कर उसे नमस्कार किया था और हाथ भी जोड़ दिये थे ।
आती-जाती कई कैदियों ने मुझे देखा था। हँसीं थीं वो , मेरी इस पूजा पर।
अब मुझे बहुत अच्छा लग रहा था । लग रहा था कि ये फूल-पौधे भी हम जैसे ही थे । लेकिन था सब विचित्र और खास कर यहॉं जेल में आ कर तो सब शून्य ही हो जाता था ।
‘नेहा विश्वास ।’ हाँक लगी थी । हल-चल हुई थी । और मैं भी जैसे नींद से जागी थी । ‘ओ-ये , नेहा ।’ अब भूरो चीखी थी । ‘चल री चल।’ वह मुझ से ही कह रही थी । ‘सुन ली तेरी भी …..?’ उस का कहना था।
आनन-फानन में मुझे जेल से बाहर निकाल दिया था ।
रिहा होते कैदियों को उन के स्वजन लेने आये थे । एक सत रंगी भीड़ जेल के फाटक के आस-पास भर आई थी । मैंने भी अब उस भीड़ में मुझे लेने आये किसी अपने को तलाशना आरंभ कर दिया था । मुझे अपनों पर आज बहुत प्यार आ रहा था । मैं समझ रही थी कि उन सब ने तन-मन से जोर लगाया ….होगा और तब आ कर मेरी बेल हुई होगी ? मेरी निगाहें अब उन अपनों को ही तलाश रहीं थीं । मैं मानती रही थी कि….मुझे लेने जरूर ही मेरा प्रिय भाई समीर आया होगा ? और शायद …..
लेकिन वहां मेरा कोई था कब, जो मुझे नजर आता ….?
रात के आठ बजे थे। भीड़ छट रही थी । लोग जा रहे थे । और मैं अकेली खड़ी-खड़ी …..असहज हो चली थी ….उदास होने लगी थी ….और अब डर रही थी ….
‘चलो, नेहा।’ अचानक मैंने खुड़ैल की आवाज सुनी थी । मैं बमक पड़ी थी । ‘सॉरी, मैं लेट हो गया ?’ वह माफी मांग रहा था ।’ क्या था ….कि ..’ अब न जाने वह क्या-क्या कहता रहा था …पर मैं तो कुछ सुन ही न पा रही थी । अब उस ने मेरे हाथ में लगा बैग ले लिया था और मैं उस के पीछे-पीछे चल रही थी ।
‘मेरा कोई क्यों नहीं आया ….?’ प्रश्न था- जो मेरे भीतर एक बवंडर की तरह भरता ही चला जा रहा था । ‘क्यों ….क्यों नहीं आया , कोई ?’मैं उत्तर मांग रही थी ।
और जब रमेश दत्त ने हमारे घर के सामने कार रोकी थी तो कार की हैड लाइटों की रोशनी में मैंने साफ-साफ देखा था – उस घर के दरवाजे पर लटकते ताले को । आस-पास का भी सब शांत था । मैं सन्न रह गई थी । काटो तो ….खून नहीं …..
‘ओ, हैल ….।’ तनिक चौंका था , खुड़ैल । ‘ताला ….?’ उस ने हैरानी से मुझे घूरा था ।
मैं समझ गई थी कि ये सब खुड़ैल का ही अभिनीत किया ड्रामा था।
‘चलते हैं , गुलिस्तां ?’ उस ने आह रिता कर कहा था । ‘कोई नहीं ।’ उस ने मुझे देखा था । ‘पता कर लेंगे ।’उस का कहना था।
गुलिस्तां एक अजीबो-गरीब चहल-पहल से भरा था ।
मैं ही थी – जो एक घोर अवसाद से भरी थी । खुड़ैल मुझे प्रसन्न करने में व्यस्त था । लेकिन मैं थी कि ….बोल ही न पा रही थी ।
‘फाेन है , तुम्हारा।’ खुड़ैल ने मुझे फोन पकड़ा दिया था। वह हंस रहा था ।
‘हैल्लो , माई रॉ-ब्यूटी….?’ फोन पर आवाज गूंजी थी । साहबज़ादा सलीम था । उस की आवाज में एक अजीव-सी खनक थी । वह शायद बहुत प्रसन्न था । मेरे उत्तर न देने पर वह फिर से बोला था। ‘हाउ ….इज द हैल्थ ….?’ मैं जानती थी कि ये एक औपचारिकता ही थी। ‘आई हैव अरेन्जड …..एवरीथिंग ।’ अब वह मुझे सूचना दे रहा था। ‘यू जस्ट कम , डार्लिंग ।’ उस का निमंत्रण था । ‘आई लव यू, नेहा।’ उस ने अंत में कहा था ।
अब आ कर समझ आया था मुझे कि …ये सब साहबज़ादे का ही खेल था।
पलांश में ही मेरी आंखों के सामने पूरा दुबई का दृश्य घूम गया था । उस दृश्य में सब था – एक साम्राज्य जैसा ही कुछ था। धन-दौलत से ले कर ….ऐशाे-आराम …..और हर शानो – शौकत शामिल थे । साहबज़ादे के पास वो सब कुछ था – जिस की कि मुझे दरकार थी । एक पिंजड़ा था – जिसे अब मैं देख रही थी । और इस पिंजड़े का द्वार खुला था । मुझे तो अब बस उड़ना ही था …..और उस में दाखिल हो जाना था । उस के बाद तो …….?
‘छोटी बेगम नहीं ……चौथी बेगम बनना था , इस बार । तीन तो पहले से ही मौजूद थीं – साहबज़ादे के हरम में ?
‘चुपके से निकल जाओ , नेहा ।’ खुड़ैल मुझे समझाने लग रहा था । ‘मान लो कि ये केवल साहबज़ादे की हिम्मत है जो बेल करा ली है वरना तो कोई माई का लाल तुम्हें छुड़ा ही नहीं सकता ?’ वह मुझे बताने लग रहा था । ‘बहुत बड़ी पहुँच वाला धंधा है।’ हँसा था , खुड़ैल । ‘एक बार निकल जाओ …..फिर तो आंख ओझल -पहाड़ ओझल । कौन किसे पूछता है ?’ इस बार वह जोरों से हसा था । ‘दो बजे की फ्लाइट है । मैं चुपके से छोड़ दूंगा ….और बस ….’
‘मेरे अपने कहॉं थे …?’ फिर लौट आया था वही प्रश्न । ‘कहॉं थे ….वो सब …?’ मैं जान लेना चाहती थी । ‘क्या सब को लगा दिया ठिकाने ?’ एक भयंकर आशंका चली आई थी। मैं सिहर उठी थी। ‘तो क्या ये ….अब मुझे भी ठिकाने लगा देंगे ?’ एक और संभावना पैदा हो गई थी । ‘क्यों नहीं ? सबूत मिटाना ही तो केस जीतना है- मैं अब जान गई थी । न रहेगा बांस ….न बजेगी बांसुरी ….?’ मुझे उत्तर मिल गया था ।
‘करीम से ही मंगवाया है , डिनर ।’ रमेश दत्त ने हँसते हुए मुझे बताया था । ‘मैं जानता हूँ , नेहा कि ….तुम्हें ….’
‘मैं चलूंगी , रमेश ।’ अचानक ही मैं उठ खड़ी हुई थी ।
‘कहॉं …? क्यों …? अरे, भाई । रात है । सड़कें वीरान हैं । तुम अकेली …..कहॉं चलीं ?’ उस ने आश्चर्य से ऑंखें फाड़ कर मुझे देखा था।
‘पुलिस स्टेशन चलती हॅू ।’ मैंने मुनादी जैसी की थी । ‘शायद देश की सरकार मुझे जागती मिले ?’ मैंने भावुक हो कर कहा था ।
‘नेहा…..नेहा।’ रमेश दत्त अब मेरी चिरौरियां कर रहा था। ‘क्या कह रही हो , तुम ?’ वह पूछ रहा था। ‘फिर से जेल….?’ उस ने हाथ पसार कर प्रश्न किया था। ‘अरे, भाई । उस जेल से तो कोई भी …..जहन्नुम बुरा नहीं ? फिर दुबई तो ……?’
मैंने कुछ भी नहीं सुना था, बाबू । मेरी समझ में अब समा गया था कि …मेरा अपना संसार तुम थे …..तुम । और मैंने …..मुझ अभागिन ने न जाने किन-किन को अपना गिना ….और राह भूल गई ……?
अब तो रोना ही शेष बचा है ……
सॉरी, बाबू …….
क्रमशः …