धारावाहिक – 16

मेरी समझ में नहीं आ रहा था, बाबू कि मैं अपनी इस अपावन जिन्दगी का अंत कैसे लादूं ?

सच मानो बाबू कि मुझे तुम इन पलों में बहुत याद आये थे । मैंने मन ही मन जाना था कि अगर तुम होते तो मुझे शायद ही ये दिन देखना पड़ता ? तुम्हारी छत्र-छाया से दूर – इस बियाबान में अब मेरा कोई अपना नहीं था ।

‘लगा लो , फांसी …?’ मेरा दुखी मन मुझे सलाह दे रहा था । ‘पेट में बच्चा है ।’ मैंने स्मरण किया था तो दिल हिल गया था । अभी उम्र भी क्या थी , मेरी ? और अभी से मॉं बन कर बैठने में तुक भी क्या था ? और फिर मॉं बनना ….वो भी क्वांरी मॉं ….तो एक अपराध जैसा ही था ।

रह-रह कर रुलाई आती । पर न कोई इसे सुनने वाला था और न कोई सलाहकार था । अगर पूर्वी विश्वास को बता देती तो वह तुरंत बाबा के कान में डाल देती और बाबा हाथ फैला कर मुझ से भी पहले मौत मांग लेते । समीर को किसी की परवाह ही न थी । कहॉं जाता था ….क्यों जाता था ….क्या करता था – राम जाने ।

‘जहर खा कर सोना ठीक रहेगा , नेहा ।’ इस बार मेरा दिमाग बोला था । ‘कोई खिट-खिट नहीं । दो लाइन लिख कर छोड़ देना कि …तुम अपनी मर्जी से ….’

लेकिन बात तो उजागर हो कर ही रहेगी ….मैं जानती थी । जो मेरे पेट में जन्म ले चुका था …उस ने तो मुनादी कर ही देनी थी । और फिर ….हां …और फिर तो …शर्म का दरिया था …जिसे मुझे पार करना था । ऑंखें नीची कर पूरी जिन्दगी जीना ….और ….

फिर एक बार मुझे याद आया था , बाबू कि …तुम थे …हां तुम्हीं थे जो …मुझे इस संकट से उबार सकते थे । मैंने फिर से तुम्हें ही परमात्मा की तरह पुकारा था । मैंने तुम्हारे सामने गिड़गिड़ाकर की गलती की क्षमा मांगी थी और सब सच-सच बताकर हमेशा -हमेशा तुम्हारी ही बन कर रहने का वायदा किया था – बार-बार ।

और जब मेरा मन न माना था तो मैंने तुम्हें फोन किया था । मन बना लिया था कि तुम्हें सब सच-सच बता कर …अपना अपराध स्वीकार लूंगी …और फिर …

‘है-ल्लो । हां हां ….मैं नेहा ।’ मैंने फोन पर कहा था। ‘अरे, राधू ।’ मैं तनिक मुसकराई थी । ‘राधू । कहॉं हैं , साहब ?’ मैंने प्रश्न पूछा था ।

‘बाहर …। बाहर …।’ राधू की अजीव आवाज थी । मैं जानती थी कि उस ने मुंह में तम्बाकू भरा हुआ था । विक्रांत के गांव का था, राधू ।

‘बाहर कहॉं , राधू ?’ मैंने पूछा था ।

‘इंग्लैंड ……नहीं नहीं …पोलेन्ड गये हैं ।’ राधू ने हिचकिया ले-ले कर बताया था ।

‘कब लौटेंगे ?’ मैंने पूछ ही लिया था ।

‘पता नहीं , जी ।’ कह कर राधू ने फोन काट दिया था।

अंतिम चिराग भी गुल हो गया था।

मॉं ने खाना परोसा था । प्यार से मछली बनाई थी । महक से ही मुझे पता चल गया था कि ये मेरी पसंद का भोजन बना था । मॉं ने बड़े दुलार से मुझे देखा था । उन्हें तो अभी भी मैं उस कथित डायन की गिरफ्त में आई लगी थी जिस के लिये वाे गंडा बनवा कर लाईं थीं । उन्हें पूर्ण विश्वास था कि …अब मेरी बंद छूट जायेगी …और …

मजाल थी कि खाने को मुंह खुले और निवाला भीतर जाये …..?

रह-रह कर मुझे रोना ही आ रहा था । पश्चाताप था जिस ने मुझे अब आ घेरा था । बार-बार वही की गलती याद आ रही थी ….जब मैं उन बेहद कच्चे-कच्चे पलों में ….रमेश दत्त के आगोश में भरी ….पिघल गई थी …और ….और ….। क्या करती …? कैसे बचती ….? पर आज भी मुझे परखा है कि मैं बच क्यों न पाई ? ये मन उन पलों में मेरा क्यों नहीं रहा था ? क्यों मैं ……?

‘अब मैं मार डालूंगी , तुझे ।’ मैं अपने बेईमान मन को धमका रही थी । ‘तू ने मुझे बर्बाद किया है….और अब मैं तुझे जिंदा नहीं छोड़ूंगी । और ….और …फिर कभी गलती से भी …’औरत’ का जन्म न लूंगी । न …न …मैं अब ‘अबला’ औरत का जन्म ही न लूंगी । मैं तो अब खूंखार दरिंदा बन कर पैदा होऊंगी ….और …और इन सब के कत्ल करूंगी … एक-एक का संहार करूंगी….और बदला लूंगी…सब से …उन सब से ….जो …

‘है-ल्लो , नेहा ।’ अचानक मैंने एक अति-आत्मीय आवाज सुनी थी । मैंने ऑंखें उठा कर देखा था तो ‘रमेश दत्त ‘ था जो सामने खड़ा था । उस ने आगे बढ़ कर फूलों का एक बेहद सुन्दर गुलदस्ता मुझे सौंपा था । वह हंसा था । ‘अब कैसी हो …?’ उस ने मुझे पूछा था ।

क्या करूं …? करूँ इस का खून ….? दूं इसे गालियां ….? बता दूं इसे कि …ये क्या कर बैठा था , मेरे साथ …? कहूँ इसे कि ….निकाल पैसे ….। करूं ऐलान कि …तू दंड भरेगा ….और तू आइंदा कभी मुझे छूएगा तक नहीं । तू …तू …। मैं कांपने लगी थी ।

‘देर से आया हॅू । माफी चाहूंगा ।’ रमेश दत्त अपने मंजे स्टाइल में बोला था । ‘क्या करता । वो कमबख़्त कादिर आन मरा । और तुम तो जानती ही हो कि ….मेरी जान को कित्ते लफड़े लगे होते हैं ?’ वह बताता रहा था ।

मैं चुप थी । मैं उस फूल के लाये गुलदस्ते को ही देखे जा रही थी । मैं समझने का प्रयत्न कर रही थी कि अब ये रमेश दत्त कौन सी चाल चलेगा ?

‘क्या समस्या है ?’ उस ने सीधा प्रश्न पूछा था ।

‘पैसा ।’ मैंने भी सीधा ही उत्तर दिया था । अपनी रुलाई को रोक लिया था । मन को कस लिया था ।

‘जित्ता चाहो , नेहा ।’ वह तुरंत बोला था । ‘कल ऑफिस में आ जाओ । बात करते हैं , भाई से । और फिर मैं तो हूं ही ….?’ वह तनिक मुसकराया था ।

जैसे मुझे कोई इन्जैक्शन लगा हो …..खुशी का इन्जैक्शन …..आशाओं का इन्जैक्शन …. और जैसे किसी ने जीवन दान दे दिया हो ….मैं खिल उठी थी । तभी पूर्वी विश्वास ने एक कप चाय तहजीब के साथ ला कर रमेश दत्त को ऑफर की थी । रमेश दत्त ने ‘धन्यवाद’ कहते हुए चाय ली थी और मेरी ओर आश्वस्त निगाहों से देखा था ।

‘बड़ी चर्चा हो रही है , ‘नवाबज़ादे’ की ।’ रमेश दत्त मुझे बता रहा था । ‘इनशाल्लाह । अगर बेल मढ़े चढ़ी तो ….’ उस ने पैंतरा बदला था ।

‘मेरा तो मन डूब रहा है ।’ मैंने साफ-साफ कहा था ।

‘वो मुझ पर छोड़ दो ।’ कहते-कहते वह जाने को उठा था । ‘कल ऑफिस आ जाओ ।’ उस ने आदेश जैसा ही दिया था । ‘सब संकट दूर हो जाएंगे ।’ उस ने वायदा किया था ।

क्या था , ये ? नाटक था ….या कि कोई चाल थी । या कि ऐसा कोई प्रपंच था – जिसे मरी बुद्धि पकड़ न पा रही थी ?

मरता क्या न करता , बाबू ? और मैं क्या करती ? कहॉं जााती ? कहने को तो मेरा परिवार था – लेकिन था तो लाचार ….गरीब …डरा हुआ और थका हुआ ।

‘क्यों हैं , हम हिन्दू इतने असहाय ….गरीब …और क्यों हैं ….ये ……?’ अब आ कर मेरी रुलाई टूटी थी । सच मानो , बाबू । उस दिन तो मेरा हिया ही टूट गया था । और तुम भी तो ….एक डूब गये सितारे की तरह मुझे कहीं नजर नहीं आये थे ।

क्या करती , मैं ….?

मैं रोती ही रही थी …….

क्रमशः ……….

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