धरावाहिक – 15

प्रश्न पैसे का है – प्रभा ने बता दिया था , मुझे । और जब मैंने आंख उठा कर देखा था तो आसमान साफ था ।

‘तू जानती तो है , नेहा कि …इस घर में तो …न भुनीं भांग है …और न कड़वा तेल ।’ पूर्वी विश्वास – मेरी मॉं ने दोनों हाथ झाड़ दिये थे । हां । उन्हें एहसास तो जरूर था कि मुझे इतने पैसे की जरूरत क्यों आन पड़ी ? लेकिन डरते हुए उन्होंने पूछा कुछ न था ।

बाबा से पैसे की बात ही करना बेकार था । उन की तो दोनों जेबें हमेशा फटी ही रहतीं थीं । सीमा शादी के बाद कभी घर ही न लौटी थी । फिर भी मैंने हिम्मत बटोर कर उसे फोन मिला ही लिया था ।

‘कहॉं, दीदी ।’ सीमा की धीमी आवाज आई थी । ‘जहर खाने तक के पैसे नहीं है , मेरे पास तो ।’ सीमा जैसे रो देना चाहती थी । लेकिन मैं जानती थी कि सीमा झूठ बोल रही थी । उस के पौ-बारह थे ….लेकिन अब …

मेरी सांसें आ-जा रहीं थीं । मैं अभी भी जिंदा थी । मैं निडर थी । मैं मरने की तो बात ही नहीं सोच रही थी । मैं सोच रही थी कि इस जमाने को देख तो लूं कि यह कितना मैला है?

आज इतवार का दिन था । मुझे पता था कि आज के दिन रमेश दत्त ऑफिस नहीं जाता था । शायद वह घर पर ही होगा – मेरा कयास था। मेरा दिमाग कह रहा था कि अगर मैं कहूंगी तो वह मुझे ‘नवाबज़ादे’ फिल्म के ऊपर कुछ पेमेन्ट तो करा ही देगा । अगर ना कहेगा …तो ….मैं भी तो ….?

‘कांप गया न हिया ?’ मेरी हिम्मत मुझे पूछ बैठी थी । ‘उतना ही मुंह खोलना …जितना जरूरी हो ।’ एक हिदायत भी साथ ही चली आई थी । और मैं हिम्मत बटोर कर रमेश दत्त की तलाश में निकली थी । उस का पता था – मेरे पास ।

यह पहला मौका था जब मुझे रमेश दत्त से डर लग रहा था ।

गुलिस्तां की ओर मैंने कार मोड़ी ही थी कि मुझे लगा था – रमेश दत्त ही तो था – जो सामने से चला आ रहा था । लेकिन …लेकिन वो रमेश दत्त नहीं था । नहीं ,नहीं । वो था तो वही रमेश दत्त …लेकिन न जाने क्यों उस ने जो कपड़े पहने थे – वो भ्रामक थे । शायद मेरा ही भेजा घूम गया था – मैंने सोचा था और …निगाहों को फिर से तान कर मैंने देखा था ।

रमेश दत्त ने चूड़ीदार पायजामा और काली अचकन पहनी थी । उस के सर पर स्कल-कैप जमीं थी । वह मुझे मुसलमान जैसा लगा था । और अब वह मेरी आंख से ओझल हो गया था । मैंने होश संभाला था । कार को पार्क किया था । हिम्मत बटोर मैं बी-511 , गुलिस्तां में घुस गई थी । लेकिन ये क्या ? वही आदमी सामने फिर से आ गया था । वही था – रमेश दत्त । पर ……..

‘कैसे , नेहा ….?’ उस ने मुझे तुरंत पूछ लिया था । ‘आओ । आओ । ‘ उस ने मेरा स्वागत किया था । ‘लेकिन …..?’ वह भी मुझे यों आया देख सकपका गया था । ‘नमाज पढ़ कर आ रहा हूँ ।’ वह मुझे बताने लगा था ।

‘तो क्या मुसलमान हो ….?’ न जाने मुझ मे कहॉ से हिम्मत आ गई थी , मैं पूछ बैठी थी ।

‘क्यों ….? तुम्हें पता नहीं है ।’ उस ने उलटा प्रश्न किया था । ‘अरे, भाई । मैं ही तो हूँ , आप का नसीम भाई ?’ वह जोरों से हंसा था । ‘बैठो …।’ उस ने आंगन में पड़े सोफे की ओर इशारा किया था ।

लेकिन न जाने कैसे मेरा तो हुलिया ही बिगड़ गया था ।

जो उल्टियां शुरू हुईं कि …..होती ही चली गईं । मेरा जैसे समूचा भीतर ही – बाहर लटक आया हो …..ऐसा लग रहा था , मुझे । लग रहा था – सांस रुक जायेगी …..और ….अब मैं मर कर ही रहूंगी । आज ….आज …तो ….

‘लो । पानी पी लो , नेहा ।’ वह नसीम भाई मुझे पानी पिलाना चाहता था ।

दीन-हीन निगाहें समेट कर मैंने उस नए नसीम भाई को फिर से देखा था । पर मैं उसे पहचान न पाई थी । मैंने उस के हाथ से पानी नहीं लिया था । मैंने सांस रोकी थी ….हिम्मत बटोरी थी ….और घर से बाहर भाग कार में आ कर दम लिया था । गाड़ी स्टार्ट की थी मैंने और फिर एक बे-ध्यानी में ….गाड़ी चलाते हुए मैं घर लौट आई थी ।

बिस्तर पर बेहोश पड़ी-पड़ी मैं पूर्वी विश्वास की गुड़गुड़ाहटें सुन रही थी ।

”गंडा बांध दिया है । ‘ वह बाबा को बता रहीं थीं । ‘नजर है। कोई डायन है – जो इस के सर आ गई है ।’

और मैं …..? आज पहली बार उस कथित डायन से मौत मांग रही थी । काश । अगर उसी दिन मेरी इस जिंदगी का अंत आ जाता तो …..तुम्हारी जान न जाती , बाबू ….?

ऑंखें भर-भर कर रो रही थी , नेहा ।

क्रमशः ………

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