धारावाहिक – 5

-तू तो पगली है ।’ नेहा ने भूरो को डांटा है । उसे भूरो अच्छी नहीं लगती । एक दम क्रूड है ….देहाती …गंवारू । ‘क्या कहा था , तूने जज को ?’ नेहा पूछ लेती है ।

‘क्या कहती ? सच-सच कह दिया ।’ भूरो ने नेहा को कड़ी निगाहों से घूरा है । ‘मन्नें कह दिया …कि गंडासे से काटा था …टुकड़े-टुकड़े किये थे ….और …’

‘उम्र कैद …?’ नेहा ने बीच में टोका है । ‘मिली न …उम्र कैद …। सच बोलने पर ….?’

‘तू कौन बचेगी , छोरी ।’ भूरो गरजी है ।

‘मैंने क्या किया है ? मैंने तो किसी को नहीं मारा । मैंने तो ….’

‘बकते हैं क्या लोग ? अखबारों में छपा चला आ रहा है। टी वी पर रोज….’

‘सब झूठ है ।’ नेहा तड़की है। ‘लोग जलते हैं ….झूठ बोलते हैं ….। मैं तो …निर्दोष हूँ ।’

भूरो असमंजस में आ नेहा को नई निगाहों से देखती रही है । कामिनी चुप है । एक सदमे की तरह वह सब कुछ सुन रही हैं – चुपचाप ।

‘मिलाई ।’ रोमी ने नेहा को टहोका है । ‘ले पर्चा ….भाग ।’ अब वह हंस रही है ।

मिलाई के पर्चे ने नेहा के भीतर एक भू-डोल भर दिया है । छपे चित्र से जाहिर है कि मां मिलने आई है । नेहा कई पलों तक मां के चित्र को अपलक देखती रहती है…..सोचती रहती है कि …इस मां ने ..माने कि पूर्वी विश्वास ने , उसे क्यों जेल पहुँचाया ?

‘क्या बिगाड़ा था …मैंने तेरा …जो ……तू ने ….’ नेहा लड़ने लगती है, पूर्वी से । ‘लेकिन तूने मुझे उजाड़ दिया…..बर्बाद कर दिया ….। कहीं का न छोड़ा …..? तू मां नहीं …डायन है ….। तू ….तू रोक सकती थी …मुझे । तू सच भी तो बोल सकती थी? तू मां थी तो …दुश्मन क्यों बनी ….?

नेहा की दांती भिंची है । हाथ कांप रहे हैं । पर्चा हवा में उड़ रह है । नेहा शांत है । निश्चल है ।

‘अपना घर छोड़ कर ….पराया तू ही छाती है …री …?’ मां के स्वर नेहा सुन रही है। ‘छोटा भाई है ….छोटी बहिन है….बाबा हैं …और मैं …आधी अपाहज…?’ उन की दृष्टि में उलाहना था । ‘कहां जाएंगे , हम ? सड़क पर भीख मांगते नजर आयेंगे ….तब तू खुश होगी ?’

विचित्र था – जीवन-व्यापार । एक खतरनाक मोड़ पर आ खड़ी हुई थी , नेहा । बचपन से ही परिवार के लिये कमाती – खिलाती नेहा ….अब उन की संरक्षक बन चुकी थी । उस के बिना तो उन का सड़क पर आ जाना निश्चित ही था । लेकिन विक्रांत …? उस का अमर प्रेमी विक्रांत….। विक्रांत जिसे वो दिल दे बैठी थी …। वो विक्रांत जो उस के बिना सो भी नहीं सकता था। वो तो उस के बिना सांस तक न लेता था ….और …हां, हां ….हर-हर मायने में वह उसे अपना आधार मान बैठा था …। अपना भविष्य मानता था नेहा को …और मानता था…कि वो और नेहा मिल कर आसमान की उन बुलंदियों को छूएंगे ….जिन्हें आज तक किसी ने भी नहीं छूआ ?

सच भी था । विक्रांत जितना मजा कलाकार…विक्रांत जितना जहीन ….और चरित्रवान पुरुष उस ने आज तक नहीं देखा । लेकिन …..

‘हम सब को अनाथ कर….कहां जाओगी , नेहा …?’ ये खुड़ैल का प्रश्न था। ‘सूरज अपनी चिंता क्यों करे ? लेकिन सितारों को स्वयं को सूरज समझ लेना ….सही नहीं ।’ उस ने बाद में भी नेहा को समझाया था । ‘मौका मुफीद है । सब समेट लो । मैं तो हूँ – ही ?’ खुड़ैल की आंखों में अश्लील अर्थ थे।

‘सॉरी बाबू । मैंने न जाने क्यों ….उन अश्लील अर्थों को ही लील लिया …?’

रो रही थी , नेहा ।

क्रमशः ….

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