“इजाजत हो तो मैं अंदर आऊं?” रमेश दत्त ने बड़ी ही आजिजी के साथ कहा था। लेकिन फिर बिना इजाजत लिए ही वह अंदर कमरे में दाखिल हो गया था।

कमरे में कुल तीन कुर्सियां ही थीं और उन तीनों पर वो तीनों बैठे थे।

शिष्टाचार वश सुधीर कुर्सी छोड़ कर खड़ा हो गया था। रमेश दत्त ने बिना विलंब के कुर्सी ग्रहण की थी और उसने सीधा नेहा की आंखों में घूरा था। नेहा ने पलकें ढाल ली थीं। फिर उसने विक्रांत के विद्रूप हो आए चेहरे को पढ़ा था। उसकी आंखों में रोष के बबूले उठ रहे थे। फिर रमेश दत्त ने सामने खड़े सुधीर पर दृष्टि डाली थी।

“चाय नाश्ता नहीं खिलाओगे बरखुदार?” रमेश दत्त ने धीमे स्वर में सुधीर से आग्रह किया था। “अरे भाई! ये तो हमारा हक बनता है।” दत्त साहब हंस पड़े थे।

सुधीर ने कुर्सियों पर मूर्तिवत बैठे विक्रांत और नेहा को उड़ती नजरों से देखा था। वो दोनों चुप थे। उनकी मूक अनुमति पा कर सुधीर चाय नाश्ते की फिराक में कमरे से बाहर चला गया था। अब रमेश दत्त को मन चाहा एकांत मिल गया था।

विक्रांत अंदर से आंदोलित था तो नेहा डरी हुई थी।

“भाई काल खंड के किले को तो तुमने फतह कर लिया है, विक्रांत।” रमेश दत्त कहने लगा था। “सच मानो! मुझे इतनी आशा न थी – तुमसे!” तनिक मुसकुराया था रमेश दत्त। “तुम तो इतिहास के भी ऊपर से निकल गए।” अब उसने मुड़ कर उन दोनों को एक साथ देखा था। “ये भी तो वक्त का तकाजा ही है भाई! और ये हिन्दू मुसलमान तो न जाने कब से चलता चला आ रहा है। भाई भाई हैं! लड़ते हैं तो प्यार भी करते हैं!” हंस पड़ा था रमेश दत्त। “और फिर सत्ता के सिकंदर भी तो अपना अपना भाग्य दुर्भाग्य साथ लेकर आते हैं।” रमेश दत्त उन दोनों को देख रहा था। “कभी गांधी जी का भी युग था। एक महान साम्राज्य की नींव हिला कर रख दी थी – अकेले हाथों।” दत्त साहब भावुक हो आए थे। “मानोगे विक्रांत कि ये कहीं आसान काम न था। सूरज नहीं छुपता था उनके राज में। लेकिन इस नंगे फकीर ने जो करिश्मा किया ..”

“कहना क्या चाहते हो?” विक्रांत उलझ पड़ना चाहता था। लेकिन चुप ही बना रहा था।

“हां! मैं नेहा जी को इनके श्रेष्ठ अभिनय के लिए मुबारकबाद जरूर दूंगा!” रमेश दत्त ने बात पलटी थी। “सही में इस किरदार को जी कर दिखाया है तुमने।” दत्त साहब की आवाज में जैसे एक सच उजागर हुआ था। “जासूसी कैसे होती है – ये तुमने दिखा दिया है – शिखा!”

नेहा का चेहरा आरक्त हो आया था।

लेकिन सुधीर अभी तक नहीं लौटा था। विक्रांत और नेहा अभी भी चुप थे। वो दोनों बोल ही न पा रहे थे।

“शादी कब बना रहे हो?” दत्त साहब का ही प्रश्न फिर से आया था।

कौन उत्तर देता? वहां तो सन्नाटा ही था जो बोल नहीं पा रहा था।

“काल खंड के लिए नहीं बुलाया तो कोई बात नहीं” दत्त साहब ने उलाहना दिया था। “लेकिन शादी में तो ..”

सुधीर क्यों नहीं लौटा – विक्रांत को कोफ्त होने लगी थी।

“बिन बुलाए चला आया हूँ। मुझ से रहा न गया – जब न जाने कैसे मेरे सामने .. ये .. पत्र ..” रमेश दत्त ने अपनी भीतर की जेब से एक पत्र बाहर खींचा था। उसने उस पत्र को उन दोनों की नजर किया था।

खंजर – अचानक विक्रांत के दिमाग ने बोल दिया था। नेहा ने भी डरते डरते विक्रांत की ओर देखा था।

“पत्र विक्रांत के नाम है पर बिल नेहा के नाम है।” हंसा था रमेश दत्त। “खैर! ये लो अपनी अमानत भाई!” उसने पत्र को नेहा के सामने रक्खा था। बॉम्बे मेटरनिटी होम का लोगो देखते ही नेहा के पसीने छूट गए थे! “फैसला स्वयं कर लेना।” कहकर रमेश दत्त उठा था और कमरे से बाहर चला गया था।

सुधीर खाली हाथ लौटा था और अब सामने खड़ा था।

इससे पहले कि सुधीर की नजर पत्र पर पड़े विक्रांत ने अपनी हथेली उस के ऊपर रख दी थी और आहिस्ता आहिस्ता उसे अपनी अंजुरी में समेट लिया था।

विक्रांत ने महसूसा था कि कासिम बेग कोई अफजल खान था जो चोरी से विष में भुने खंजर को उसके सीने में उतार कर चुपचाप चला गया था और .. और वो खंजर अब उसके दिल को छू छू कर उसे मरने के लिए बाध्य कर रहा था। शक से बड़ा कोई सूरमा नहीं होता। प्रेम को परास्त करने के लिए केवल घृणा ही दरकार होती है और .. विक्रांत अचानक ही अनभोर में ही इन दोनों के हत्थे चढ़ गया था। उसने बड़ी ही याचक निगाहों से अपने प्रेम की देवी नेहा को देखा था और प्रार्थना की थी कि वो कुछ बोले और उसे मरने से बचा ले।

लेकिन वो दोनों चुप ही बैठे थे। सुधीर उस चुप्पी का कारण समझने में असमर्थ था।

“ये साला मुल्ला आया किस लिए था?” सुधीर अब स्वयं से प्रश्न पूछ रहा था। “क्या कोई जादू टोना मार कर चला गया है?” सुधीर को शक हुआ था। “यों अचानक ही ..” सुधीर ने उन दोनों को बड़ी ही दयनीय निगाहों से देखा था।

खुड़ैल के किए वार की आहट नेहा को बुरी तरह से झकझोर कर रख गई थी।

नेहा को समझते देर न लगी थी कि उस बॉम्बे मेटरनिटी होम के पत्र में क्या लिखा था। लेकिन वो हैरान थी कि वो पत्र खुड़ैल के हाथ कैसे लगा? क्या डॉ. प्रभा भी बिकाऊ थी? क्या उसका घर मिलने चला आना कोई महत्व रखता था? और क्या प्रभा की दोस्ती ..?

विक्रांत ने महसूसा था कि कासिम बेग ने उसके बसे बसाए साम्राज्य में आग लगा दी थी। उसका संजोया सपना अब उसी के सामने प्राण त्याग रहा था और उसकी परम प्रिय प्रेयसी नेहा चुपचाप पलकें ढाले उसके सामने निरुत्तर बैठी थी। लेकिन क्यों? क्यों .. क्यों .. नेहा कुछ भी बोल नहीं पा रही थी। क्यों नहीं कह देती थी नेहा कि ये कासिम बेग की एक चाल थी और ये पत्र कोरा झूठ था। वो मक्कार .. कासिम बेग .. उन्हें ..

नेहा की आंखों के सामने पूरे का पूरा विगत घूम गया था।

कब भूली थी वो उन पलों को – उन सम्मोहित करने वाले क्षणों को जब खुड़ैल ने उसे ..? हां हां! तभी .. उन्हीं पलों में न जाने कैसे उसने कंसीव कर लिया था। उसे तो भान तक न हुआ था, लेकिन जब बाद में पता चला था तो ..

“विक्रांत सब समझ जाएगा!” नेहा का अनुमान था। “पैसे तो विक्रांत ने ही दिए थे। और .. न जाने क्यों उस बेवकूफ प्रभा ने ..?” नेहा की उंगलियां आपस में उलझ गई थीं। मन में भी एक गांठ लग गई थी। मुंह शुष्क हुआ जा रहा था। और आंखें रो देना चाहती थीं।

“अमर प्रेम!” अचानक विक्रांत ने स्वयं से उपहास किया था। “पागल!” उसने अपने आप को गरिया दिया था। “कितनी बार समझाया था तुझे कि बावले ये संसार अमर प्रेम जैसी किसी भावना का कायल नहीं है। मिथ है अमर प्रेम! मिथ्या है अमर प्रेम! स्त्री और पुरुष का संबंध ..”

“संबंध तो थे ही!” नेहा ने स्वीकारा था। “खुड़ैल से शारीरिक संबंध तो थे ही!” उसने मन ही मन स्मरण किया था। “और .. उसी की व्युत्पत्ति तो थी – वो प्रेगनैंसी!”

सुधीर थक कर कुर्सी पर बैठ गया था। वह उन दोनों के बीच में बोलना न चाहता था। केवल अनुमान ही लगा रहा था कि वो मुसलमान जो हिन्दुओं का कट्टर दुश्मन था न जाने कौन सा खेल खेल कर चला गया था?

“चलें ..?” विक्रांत ने आहिस्ता से नेहा से पूछा था।

“चलो!” नेहा ने भी संक्षेप में उत्तर दिया था और चलने के लिए उठ खड़ी हुई थी।

वो दोनों चुपचाप ही चल कर गाड़ी तक आए थे। फिर दोनों ने कार के दरवाजे खोले थे और बंद किए थे। दरवाजे बंद होने के धड़ाम धड़ाम के शोर से लगा था जैसे कहीं बम गोले फट रहे थे।

लगा था – एक नए संघर्ष का आरंभ अभी अभी हो गया था।

सुधीर ही था जिसने अपने दुश्मन को पहचान लिया था। उसने मान लिया था कि ये मुल्ला कासिम बेग किसी कीमत पर भी काल खंड को रिलीज न होने देगा!

“जंग तो लड़ूंगा जरूर!” सुधीर शपथ उठा रहा था। “इस मुल्ले को मैं ही मारूंगा!” उसने ऐलान कर दिया था।

Major krapal verma

मेजर कृपाल वर्मा

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