नेहा के शरीर में एक अजीब प्रकार की बेचैनी व्याप्त हो गई थी!

27 तारीख को सुधीर आया था। नेहा को उम्मीद थी कि कोई शुभ समाचार लेकर लौटा होगा। लेकिन उसने चाबियां पकड़ाते हुए नेहा को केवल यही कहा था कि वो इलाहाबाद जा रहा था। क्यों जा रहा था और कब लौटेगा – उसने नहीं बताया था। लेकिन जो सुधीर के चेहरे पर लिखा था वो तो बहुत भयानक था, वीभत्स था। लेकिन नेहा की हिम्मत ही न हुई थी कि सुधीर से कोई भी प्रश्न पूछ लेती। वह तो स्वयं डरी हुई थी, छुपी हुई थी और बाहर आने से भी कतरा रही थी।

“तुम दोनों के चक्कर में मैं मारा गया।” सुधीर की आवाजें आ रही थीं। “ऐसा क्या कर गया है वो मुल्ला जो सुलझे नहीं सुलझ रहा है!” सुधीर बार बार यही प्रश्न पूछता था।

और वो दोनों सुधीर को कैसे बताते कि वो मुल्ला जो कील उन दोनों के बीच ठोक गया था, वो तो ला इलाज थी।

जिस स्त्री को, जिस नारी को और जिस पवित्र प्रतिमा को विक्रांत प्यार करता था वो तो उसी पल मर गई थी जब रमेश दत्त ने उस बॉम्बे मेटरनिटी होम के पत्र को उजागर कर दिया था। उन पलों में नेहा ने देख लिया था कि विक्रांत की आंखों में प्रेम की जलती वो पवित्र लौ – जो अनवरत जलती रहती थी, अनायास जाती रही थी और उसका स्थान एक घोर निराशा ने ले लिया था।

नेहा की लाश ही तो थी जो उन दोनों के बीच धरी रह गई थी।

अब लाश थी नेहा। वह तो मर चुकी थी। उसका संसार तो उजड़ चुका था। उसके वो सपने जो विक्रांत के साथ उगे थे, बड़े हुए थे और फलित होने को थे – दम तोड़ गए थे। उसमें तो अब सांस भी न बची थी जो विक्रांत से शिकायत करती, प्रार्थना करती और प्रेम की भिक्षा मांग लेती।

“इतना खतरनाक होता है ये प्रेम – कभी सोचा भी न था।” नेहा ने आह रिताते हुए महसूसा था। “अब न मैं मरूंगी ओर न जीऊंगी!” उसे जंच गया था। “ये विरह न जाने कौन से वीरानों में खींच ले जाएगा और न जाने कैसी होगी मेरी मौत!” नेहा के नेत्र सजल हो आए थे।

कमाल ही तो था कि जो घट गया था वो अब अमर हो गया था। अब चाह कर भी नेहा उस पार नहीं लौट सकती थी। अब वह उस नेहा को जो विक्रांत की नेहा थी, जिला नहीं सकती थी। उन प्रेमिल पलों को लौटा लाना तो अब असंभव ही था।

बार बार लौट कर आता विगत नेहा को आत्म दाह की सलाह की सलाह दे रहा था।

“बिना विक्रांत के अब तुम जिस स्वर्ग में भी जाओगी वही नरक बन जाएगा। विगत बता रहा था। “अब तो अंत ही भला है नेहा!” उसकी परामर्श थी।

आशा ओर निराशा की आंख मिचोली के बीच से भाग नेहा का बचपन उसके पास आ बैठा था।

“ये क्या दादागीरी करती फिरती है – तेरी नेहा!” पड़ोसन नागी बैन पूर्वी से लड़ने चली आई थी। “ये रोज पीटती है मेरी सुरभि को!” उसने शिकायत की थी।

लेकिन सुरभि को सीधा करना, उसे तमीज सिखाना और .. और हां – गलत छोकरों के साथ जाने से रोकना – नेहा का मिशन था। नेहा को कितना बुरा लगता था जब छोकरों के साथ ..

“रोक लूंगी नागी!” पूर्वी की कोमल आवाज आई थी। “नादान है अभी।” पूर्वी ने समझाया था बैन को। “बच्ची ही तो है!” पूर्वी हंस जाती थी।

हां! वह तब बच्ची थी। कितना पवित्र था वो बचपन, कितना कोरा था उसका बदन! अंतर वाह्य पवित्र नेहा तब औरों को ज्ञान बांटा करती थी। एक मस्त खिलंदड़ की तरह सरपट दौड़ती नेहा, हंसती खिलखिलाती नेहा और किलकारियों से सुख स्वप्न जगाती नेहा – सभी की लाढली थी।

और अब .. और आज? नेहा नितांत अकेली थी और अपवित्र थी।

विक्रांत शायद श्रेया के साथ माहेश्वरी की शूटिंग पर जा रहा होगा।

नेहा की आंखों की नींद उड़ चुकी थी। उसका गात थर-थर कांप रहा था। उसकी सांस रुक रुक कर चल रही थी। उसे लग रहा था कि अब उसका अंत कहीं आस पास ही था। उसे कुछ सूझ नहीं रहा था। और तभी वह सोती पूर्वा के बिस्तर में जा घुसी थी और पूर्वा के साथ चिपक गई थी। रो रही थी नेहा। पूर्वा ने करवट बदल कर अपनी विक्षिप्त बेटी को सीने से लगा लिया था।

ना जाने कब तक रोती रही थी नेहा। पूर्वा ने मूक आश्वासन अपनी बेटी को दिए थे। उसका सर सहलाया था। उसे अपने बदन की ऊर्जा बांटी थी। उसे सहारे सुझाए थे और उसके आत्म विश्वास को बड़ा किया था।

न जाने कब नेहा अचेत हो निद्रा की गोद में जा सोई थी।

“देख लो बाबा!” समीर पैर पटक रहा था। “दीदी शूटिंग पर जाने से मना कर रही हैं।” वह शिकायत कर रहा था। “ईद पर रिलीज होने के लिए हमें कम से कम तीन महीने शूटिंग करनी होगी।” समीर का अनुमान था।

बाबा ने आंखें उठा कर नेहा को देखा था। बाबा का हिया कांप गया था। मर्माहत बेटी की सूरत तक देखने में बाबा डर गए थे। क्या खोट हो गया मेरी बच्ची से प्रभु – वह मन ही मन ईश्वर को स्मरण कर रहे थे।

“चली जाओ न बेटी!” बड़े ही विनम्र स्वर में बाबा बोले थे। “अब समीर को संभालेगा भी तो कौन? भाई बहन मिल कर काम करोगे तो कौन कठिनाई है!” उनकी राय थी।

नेहा चुप ही बनी रही थी। वह बाबा को यह बताना कि – रंगीला न तो कभी बनेगी और न ही चलेगी – दुख पहुंचाना नहीं चाहती थी। काल खंड बैन हो गई थी – उसे अचानक याद आ गया था। अगर काल खंड रिलीज हो जाती तो उनके पौ बारह थे। नेहा के सारे सपने लौट आए थे और हंसने लगे थे।

“कोई नहीं रोक पाता बाबू को अगर ..” नेहा की आंखें नम थीं। “काश कि वो पत्र ..”

अचानक ही विक्रांत उसके पास आ कर आ खड़ा हुआ था और आग्रह कर रहा था।

“त्रिकाल का एग्रीमेंट है नेहा!” वह प्रसन्न था। “मैं शिव और तुम पार्वती के रोल में हैं।” विक्रांत की सतेज आंखों में सफलता के ज्वार उठ रहे थे। “इस फिल्म के बाद हम दोनों ..”

कितना कितना मन था नेहा का पार्वती के किरदार को निभाने का।

सती नारियों की कहानियां, उनके करतब, उनके दिए बलिदान ओर उनकी की प्रार्थना-उपासनाएं नेहा को बार बार याद आती जा रही थी। वही एक अभागी रह गई थी – जो कहीं नहीं पहुंची।

“समीर!” किसी की धारदार आवाज ने घर को दहला दिया था। “बे तू कहां मर गया है!” वह आदमी अदल बता रहा था। “माल कहां है? पैसे कहां गए?” उसने शोर मचाना शुरू कर दिया था।

समीर डरते डरते उस आदमी के सामने चूहे की तरह आ खड़ा हुआ था।

नेहा को समीर पर दया आ गई थी। उसका मन तो हुआ था कि उस पागल आदमी के होश ठिकाने लगा दे। लेकिन समीर तो था कि उसके सामने हाथ जोड़े खड़ा था।

“उस्ताद!” समीर हिचकिया लेते हुए बोला था। “माल पैसा कहीं नहीं गया है!” उसने सूचना दी थी। “रंगीला की शूटिंग के बाद ..”

“उल्लू बनाता है बे!” पोंटू ने समीर को घुड़का था। “घर में नहीं दाने – अम्मा चली भुनाने!” उसने जुमला कहा था। “तू और फिल्म बनाएगा! हाहाहा!” जोरों से हंसा था पोंटू। “देख समीर! अभी तक तो मैं तुझे सहारा देता रहा हूँ। लेकिन अब ..”

स्थिति गंभीर होती जा रही थी। नेहा ने उस पोंटू नाम के आदमी को कई बार उसे नीची निगाहों से घूरते देख लिया था। वो कोई नेक आदमी न लगा था नेहा को। अब समीर को उसके चंगुल में फंसा देख नेहा को रोष आ गया था।

“कितने पैसे निकलते हैं आपके?” नेहा से रहा न गया था तो सामने आ गई थी।

पोंटू तनिक खबरदार हुआ था। उसने पहले तो नेहा को आंखें भर कर देखा था फिर निगाहें नीची कर ली थीं। उसका मन तो था कि नेहा के साथ कुछ कुछ बोले और तनिक सा स्पर्श भी ..

“पैसे पहुंच जाएंगे!” नेहा तड़की थी। “अब आप तशरीफ ले जाइए ..” बिफर आई नेहा क्रोधित थी।

एक बार को तो पोंटू की पिंडलियां कांप गई थीं। वह नेहा का रौद्र रूप देख कर डर गया था। उसने कातर निगाहों से समीर को घूरा था। समीर चुप था।

“ठीक है! ठीक है! मैं चला जाता हूँ लेकिन ..” पोंटू बड़बड़ाने लगा था। उसने फिर एक बार हिम्मत बटोर कर नेहा को देखा था। लेकिन उसकी निगाहें स्वयं ही नीची हो गई थीं। “मैं .. मैं ..” वह कुछ कह नहीं पाया था।

लेकिन नेहा को अंदाजा था कि वो पोंटू नाम का आदमी सब कुछ जानता था। बदनामी बला ही ऐसी है जो बदबू की तरह स्वयं ही धीरे धीरे फैलती है और हर किसी को हुए अपराध के बारे भनक लग जाती है।

खुड़ैल ने नेहा को बदनाम करने में कोई कोर कसर न उठा रक्खी थी – नेहा यह जानती थी। वह अब जानती थी कि रमेश दत्त किसी भी कीमत पर नेहा को हासिल कर लेना चाहता था।

लेकिन .. लेकिन अब खुड़ैल किसी भी कीमत पर उसके बदन को छू तक न पाएगा – नेहा का निर्णय था।

मेजर कृपाल वर्मा

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