पूर्वी विश्वास के कृशकाय शरीर को कौली में भर कर नेहा खूब रोई थी।
यों अचानक नेहा का घर लौटना और कसाई की गाय की तरह दहाड़ें मार कर रोना बाबा को समझ से बाहर लगा था। समीर ने आई विपत्ति को सूंघ लिया था। जरूर ही जीजाजी से झगड़ा हुआ था – वह जान गया था। लेकिन कारण समझ में नहीं आया था। वो दोनों तो सफलता के शिखर पर खड़े थे और ..
“मैं मर जाऊंगी मां!” बिलखते हुए जब नेहा ने कहा था तो पूर्वा को चक्कर आ गया था। फिर बाबा ने स्थिति संभाली थी। जैसे तैसे नेहा को लाकर बिस्तर पर लिटाया था। “बाबा! मैं न बचूंगी अब!” नेहा जारो कतार हो रोए जा रही थी।
“सब ठीक हो जाएगा बिट्टा!” बाबा ने पुराने पुरोधा की तरह सामने आई जंग को ललकारा था। “मैं जो हूँ!” उन्होंने अपना जर्जर सीना उस अनाम संकट के सामने तान दिया था।
समीर चुप था। वह दीदी की तीमारदारी में जुट गया था। वह समझने की कोशिश कर रहा था कि आखिर माजरा क्या था?
“ले चाय पी ले!” पूर्वी ने अदरक वाली अपनी अनूठी चाय नेहा के सामने प्रस्तुत की थी। चाय की मात्र सुगंध ने ही नेहा का दुख बांट लिया था। “चाय पीकर आराम कर लो।” पूर्वी की राय थी।
कमरे के अंधेरे ने नेहा को आश्रय दिया था।
“क्या है?” शोक मग्न विक्रांत को फोन की अनवरत बजती घंटी ने परेशान कर दिया था।
“अरे यार! मैं कैली हूँ! मैं तो डर गई थी कि तुम्हें क्या हुआ?” कैली कहती ही जा रही थी। “वो पार्वती के रोल के लिए नेहा का अनुबंध तो साइन ही नहीं हुआ?” कैली की शिकायत थी। “उन लोगों का तकाजा आ रहा है बार बार!”
“हो जाएगा!” विक्रांत ने स्वर संभाल कर कहा था। “घर गई है! मां बीमार है!” उसने झूठ बोला था ओर फोन काट दिया था।
गम की गहराइयों में डूबा विक्रांत हर कोशिश करने के बाद भी स्थिति से उबर नहीं पा रहा था। उसके गुण ज्ञान – सब कहीं घास चरने चले गए थे। आज तो उसका अभिमान भी कहीं दूर जा बैठा था। उसकी मुक्त हंसी और परिहास की आदत न जाने कैसे गुम हो गई थी। बार बार एक ही गम उस पर हावी हो जाना चाहता था और ..
“नेहा – पार्वती का किरदार निभाती नेहा? हाहाहा!”अचानक ही हंस पड़ा था विक्रांत। “वॉट ए ब्लडी जोक?” उसने प्रत्यक्ष में कहा था और टेबिल पर जोरों से मुक्का दे मारा था।
सुधीर परेशान था। उसे तो अभी भी यही लग रहा था कि वो मुल्ला – कासिम बेग कोई ऐसा टोटका कर के गया था जिसका असर नेहा और विक्रांत के दिमागों पर छप गया था। गांव होता तो जरूर वह किसी स्याने-दिवाने को खोज लाता और टोटके की काट करा देता। लेकिन यहां बंबई में, इत्ते बड़े शहर में अच्छा आदमी भी अपनी कैफियत खो देता है! उसे तो अपने आस पास का पता तक नहीं होता।
“काम काज सब बंद पड़ा है।” सुधीर बुदबुदाया था। “अब करूं तो क्या करूं?” वह स्वयं से ही पूछ रहा था। “ताला चाबी तो सब मैडम के पास है!” उसने फिर से दोहराया था। “अब क्या होगा, कैसे होगा?” वह सर पकड़ कर बैठ गया था।
नेहा को होश लौटा था। अंधेरे में उसने आंखें खोली थीं। अपने आस पास को टटोला था। लगा था – उसके हाथ खाली थे ओर उसका सब कुछ लुट गया था।
“कैसे .. कैसे ये पत्र खुड़ैल के हाथ लगा?” नेहा का सोच जागा था। “प्रभा के पास से बॉम्बे मेटरनिटी होम प्रा. लि. का वो एबॉरशन का वो बिल जो नेहा के नाम था कैसे चलकर खुड़ैल के हाथ आ लगा? केस तो उन दोनों दोस्तों के बीच ही था। प्रभा के सिवा तो उसने और किसी को भनक तक न लगने दी थी। ओर प्रभा – उसकी प्रगाढ़ सहेली भला क्यों उसे दगा देगी?
“बिकाऊ है प्रभा!” अंधेरा ही बोला था। “इस संसार में कोई किसी का सगा नहीं है नेहा!”
रुलाई टूट आई थी नेहा की।
पूर्वा का मन बहुत खट्टा हो गया था। पहले तो उसे शक हुआ था कि नेहा को किसी की नजर लगी थी। लेकिन फिर उसने सोचा था कि अब नेहा दुनिया की नजरों में आ गई थी। अब उसके सौ दोस्त ओर सौ दुश्मन थे। अत: किसी करम जली ने उसे ..
पूरे घर को खोज टटोल कर पूर्वी ने काले तिल पा लिए थे और फिर उन्हें आंखों से लगा कर मां रानी को अर्पित किया था। छत पर जाकर उन तिलों को पूर्वा ने दसों दिशाओं में फेंक चलाया था और मां से प्रार्थना की थी कि नेहा का दुश्मन जहां भी हो वहीं भस्म हो जाए! फिर दोनों पति पत्नी ने कलकत्ता जाकर काली मां के चरणों में प्रसाद चढ़ाने का वायदा भी कर लिया था।
देव प्रसन्न होते हैं तभी संतानें फलती फूलती हैं – यह उन दोनों का मानना था।
ऑफिस से सुधीर आ गया था। उसका हुलिया उड़ा हुआ था। नेहा के परिवार ने एक बारगी सुधीर का कोई स्वागत नहीं किया था। जैसे कोई दुश्मन हो या कि कोई जासूस ही हो ऐसा लगा था उन सब को। लेकिन सुधीर की तो मजबूरी थी इसलिए उसे आना ही पड़ा था।
“ऑफिस की चाबी .. और ..” सुधीर ने सूखे मुंह से मांग की थी।
समीर ने भीतर जाकर नेहा को बताया था। नेहा कई पलों तक चुप रही थी। फिर वह बाहर आई थी और उसने सुधीर का हुलिया पढ़ा था। सुधीर भी हिला हुआ था। इसका अर्थ था कि विक्रांत भी अपने होश हवास में न था।
“क्या करता?” सुधीर कहने लगा था। “सब काम रुका पड़ा है। पेमेंट भी होने हैं और .. और ..”
“मैं कल आती हूँ!” नेहा ने संयत स्वर में कहा था। उसका मन तो आया था कि विक्रांत के बारे कुछ पूछ ले लेकिन उसकी हिम्मत न हुई थी।
लौटते वक्त सुधीर एक असमंजस से बार बार सर फोड़ रहा था।
विक्रांत ने ये पागलपन क्यों किया? सब कुछ नेहा के नाम! सब कुछ नेहा के हाथों! मालकिन भी नेहा और नेहा .. और नेहा? कारोबारी पुरुष को तो दूर तक की समझ होनी चाहिए लेकिन ..! लेकिन काल-कलां कुछ हो जाए तो ..?
“नेहा के प्यार में तो कोई भी पागल हो सकता है सुधीर!” एक खनखनाती हंसी कहीं से भागी थी और सुधीर को खबरदार कर गई थी।
गुलिस्तां आज गुलजार था। लोगों की आवाजाही बहुत बढ़ गई थी।
कोरा मंडी की शूटिंग जल्द ही आरंभ होने वाली थी – यह संदेश जा चुका था। खबर भी थी कि नेहा ने डेट्स दे दी थीं। त्रिकाल फिल्म में शूटिंग करने से पहले अब नेहा ने कोरा मंडी का काम पूरा करना था।
“काल खंड की रिलीज को लेकर आपका क्या कहना है?” प्रेस वाले भी सही अवसर जानकर गुलिस्तां में आ धमके थे।
“अरे भाई! मैंने तो साफ साफ कहा है कि काल खंड कोई फिल्म नहीं है।” रमेश दत्त आज बेहद प्रसन्न थे। “ये तो इतिहास का एक पन्ना है! इसे तो हर किसी ने स्कूल कॉलेज में पढ़ा है। इसमें नया कुछ नहीं है।” रमेश दत्त ने हाथ झाड़ दिए थे। “यू पी के भइये और बिहार के बबुआ अगर फिल्में बनाने लगे तो ..” खूब हंसे थे रमेश दत्त।
प्रेस ने भी यू पी के भइये और बिहार के बबुआ को लेकर खूब चटकारे ले ले कर लिखा था।
सब कुछ यथावत हो रहा था। सब कुछ घटता ही जा रहा था। विक्रांत खुली आंखों से हर घटना को देख रहा था। रमेश दत्त का पत्ता फेंकता हाथ भी उसे दिखाई दे गया था। लेकिन पहले की तरह वह उस हाथ को न तो रोकना चाहता था ओर न टोकना चाहता था। वह तो चाहता था कि रमेश दत्त तनिक सी और हिम्मत जुटाए और उसकी इस नापाक जिंदगी को ले ले।
न जाने क्यों विक्रांत अब अपने अंत के सिवा सामने फैले अनंत को देखना ही न चाहता था।
नेहा के बिना वह जीना ही न चाहता था।
मेजर कृपाल वर्मा