बंबई का नव निर्मित तुलसी ऑडिटोरियम भीड़ से नाक तक भरा था।

काल खंड का प्रमोशन हो रहा था। बंबई में इसकी चर्चा थी। लोगों में जिज्ञासा थी – काल खंड के बारे जानने की। कुछ बेढंगी और भ्रामक खबरें भी आ जा रही थीं। अत: लोग चाहते थे कि चलकर देख तो लें कि आखिर क्या अबाल-बवाल था ये काल खंड।

विक्रांत नेहा और सुधीर ने जान लगा कर तैयारी की थी। खास कर बंबई को खुश करने का संभव प्रयास किया था। काल खंड का मोमेंटो तैयार कराया गया था। और नेहा ने स्वयं उस मोमेंटो को प्रमोटरों को भेंट करना था – एक मुसकान के साथ।

तुलसी ऑडिटोरियम कान्हा की बांसुरी की धुन में अपांग डूबा था। मांझी सांग की लय और लहजा लोगों को लुभा रहा था। सीटों पर बैठे लोग संगीत की लय के साथ साथ गतिमान हुए लगे थे।

मोमेंटो बांटती नेहा तुलसी ऑडिटोरियम को निहाल करती लग रही थी।

“आप ने स्वयं ही ये कष्ट क्यों किया?” सुतारिया ने प्रसन्न होकर नेहा को यूं ही पूछ लिया था।

“आप के सम्मान में इससे ज्यादा और क्या हो सकता है। सम्मान अगर स्वयं दिया जाता है तो ..” नेहा ने बड़े ही सलीके से संवाद बोला था।

सुतारिया गदगद हुआ लगा था। नेहा ने उसे सम्मोहित कर दिया था।

जैसे ही समय चर्म पर पहुँचा था ऑडिटोरियम की बत्तियां बुझ गई थीं। स्क्रीन पर पहली स्लाइड उभरी थी। गांधी जी प्रार्थना सभा में अपनी अनुयाइयों के साथ चले आ रहे थे। वो जल्दी में थे। तभी एक युवक ने सामने आ कर उनके चरण स्पर्श किए थे, फिर उन्हें प्रणाम किया था और फिर – धाय धाय धाय – तीन गोलियां दाग दी थीं। गांधी जी गिरे थे। गिरते गिरते उनके मुख से ‘हे राम’ निकला था।

और उसके बाद तो बाय बेला था। गोली मारने वाले युवक ने भागने का प्रयत्न नहीं किया था। उसने आत्म समर्पण कर दिया था।

तुलसी ऑडिटोरियम एक भिन्न प्रकार के सन्नाटे में डूबा रहा था। उम्मीद के बर खिलाफ न तो कोई विरोध प्रदर्शन हुआ था और न कहीं से गालियां आई थीं। कोई शोर-शराबा भी सुनाई नहीं दिया था।

दूसरी स्लाइड में तुरंत ही नेहा का सौम्य और सुघड़ चेहरा सामने आया था। वो इंदिरा गांधी से बातें कर रही थी। फिर शिखा के रोल में नेहा ने इंदिरा से नन्हे नन्हे प्रश्न पूछे थे। दर्शकों की जान में जान लौट आई थी।

फिर तो विक्रांत के संवाद थे। देश हित के लिए जान दे देने के लिए संदेश थे।

और तुरंत ही आमरण अनशन पर बैठे मुरारजी भाई समाधि लगाए थे। मुरारजी पूरे जोश के साथ कांग्रेसी शासन को कोस रहे थे और धमकी दे रहे थे कि अब भारत ..

इसके बाद जय प्रकाश नारायण उजागर हुए थे। मंच पर खड़े होकर जे पी संपूर्ण क्रांति की घोषणा कर रहे थे। एक नए भारत की परिकल्पना की रूप रेखा लोगों के सामने रखते जे पी की रैली में लोगों के ठठ के ठठ जमा थे।

इंदिरा गांधी और संजय गांधी की दौड़ भाग करती स्लाइडें दर्शकों के सामने से दौड़ती भागती निकल गई थीं।

ऑडिटोरियम में प्रकाश लौट आया था।

“मैं विक्रांत भाई की हिम्मत की दाद देता हूँ कि वो हम सब की आंखों में धूल झोंक कर अपना उल्लू सीधा कर लेना चाहते हैं।” फिल्म जगत के जाने माने हस्ताक्षर बाबू महा शिव अब दर्शकों को संबोधित कर रहे थे। “लेकिन मित्रों राष्ट्र पिता गांधी को यूं सरे शाम गोली मारना एक अक्षम्य अपराध नहीं तो और क्या है?” उनका प्रश्न था। “गांधी जी की जलती चिता पर हम गांधी दर्शन की होती लाश को बर्दाश्त नहीं कर सकते और हम कह सकते हैं कि ये हमारा इतिहास नहीं है।”

खामोश बैठे दर्शकों ने महा शिव बाबू को निराश किया था तो वो मंच छोड़ कर सोफे पर आ बैठे थे।

अब मंच पर उदीयमान भारत के संपादक बाबू दीनानाथ दानी उजागर हुए थे।

न जाने क्यों दर्शकों ने उनका तालियां बजा कर स्वागत किया था। सुधीर ने भी महसूसा था कि आज का जनमानस जाग्रत था। अच्छे बुरे की समझ समाज में आ चुकी थी।

“सर्व प्रथम मैं विक्रांत – दि यंग टर्क को मुबारकबाद दूंगा कि इन्होंने जिस साहस का परिचय दिया है वह तो बेजोड़ है। इसके बाद मैं नेहा जी का योगदान भी नहीं भुला सकता। इन दोनों ने हम सोते हिन्दुओं की आंखें खोल दी हैं।” दीनानाथ जी ने हॉल में बैठे दर्शकों को निगाहें भर भर कर देखा था।

“मुझे हर्ष इस बात का है कि आप लोग सच्चाई जानने के लिए चल कर आए हैं और आज के लिखे जा रहे इतिहास के चश्मदीद गवाह हैं। गवाही है इस बात की कि गांधी जी की अहिंसा असत्य है। आदमी अहिंसा का पाठ पढ़े तो चलेगा लेकिन कोई राष्ट्र अगर अहिंसा को अपनाएगा तो मिट जाएगा।” गजब की अपील थी दानी साहब की आवाज में। “गांधी जी का सर्वोदय डूब गया। गांधी जी का धर्म निरपेक्ष भी हार गया। नेहरू जी का गुट निरपेक्ष विफल हो चुका है। आज .. अभी जो प्रासंगिक बचा है वह काल खंड ही है मित्रों।”

खूब तालियां बजी थीं। दीनानाथ जी भी आज खुल कर बोले थे। वो मूड में थे। विक्रांत की फिल्म काल खंड का कथानक वास्तव में ही वक्त की एक जरूरत था।

“मैं 1962 में हुए चीनी आक्रमण के लिए उन लोगों का आभारी हूँ क्यों कि उन लोगों ने भारत को सही समय पर जगा दिया। वरना तो दोस्तों आज .. आज हम हिन्दू हिन्दू ही न होते।” दानी जी ने उच्च स्वर में घोषणा जैसी की थी। “आज गजवा ए हिन्द और दारुल इस्लाम की कामयाबी ने हमें – माने हम काफिरों को कभी का मुसलमान बना दिया होता।”

हॉल में एक सन्नाटा भर आया था। एक ऐसा सच दर्शकों के सामने आकर खड़ा हुआ था जो डरावना था, भयानक था और भयंकर था।

“लगता है ये भी संघी है!” कुछ दर्शकों ने आपस में कहा था। “पिटेगी – ये पिक्चर!”

“मैं खुले आम कहूँगा कि हमारे सिरमौर, हमारे श्रेष्ठ ब्रिटिश के दलाल थे। हम हिन्दुओं को मिली आजादी एक धोखा था, फरेब था। मुस्लिम लीग की चाल थी – देश को हड़पने की ओर इसमें हिन्दू माने कि हमारे चंद जय चंद भी शामिल थे।” रुके थे दीनानाथ जी। कुछ सोच कर उन्होंने कहा था। “यही कारण था कि पटेल को प्रधान मंत्री नहीं बनाया गया था।” उन्होंने अपनी बात समाप्त की थी।

तालियां बजती रही थीं। गहमागहमी में डूबे दर्शक चाय समोसों का आनंद उठा रहे थे। भीड़ भी वाचाल हो उठी थी। हर किसी के पास गांधी ओर नेहरू के किस्से थे। हर कोई इंदिरा गांधी की एमरजैंसी के बारे बताने लग रहा था। और दर्शकों में खुल कर मुसलमानों के नापाक इरादों की चर्चा थी।

लगा था काल खंड की विजय पताका बंबई के ऊपर लहरा रही थी। लेकिन बगल की सीट पर चुपचाप बैठे रमेश दत्त आज की हुई पूरी कार्यवाही से असंपृक्त थे। उन्हें अब काल खंड की सफलता विफलता से कुछ लेना देना न था। उन्हें तो अब अपने स्कोर सेट करने थे।

भीड़ जाती रही थी। एक खामोशी लौट आई थी। ऊपर के एक ऑफिसनुमा कमरे में बंद नेहा, विक्रांत और सुधीर हिसाब किताब में संलग्न थे। खर्चा खूब हो गया था लेकिन सुधीर को गम नहीं था। जो जनता की प्रतिक्रिया थी वो उत्साह वर्धक थी। काल खंड एक करिश्मा साबित होगी – सुधीर को कोई संदेह न रहा था।

लेकिन तभी कमरे का दरवाजा आहिस्ता आहिस्ता खुला था और एक शैतान की तरह रमेश दत्त ने कमरे के भीतर झांका था।

नेहा, विक्रांत और सुधीर तीनों ने रमेश दत्त के दरवाजे से अंदर आए चेहरे को एक साथ देखा था।

उन तीनों के होश उड़ गए थे।

मेजर कृपाल वर्मा

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